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संवेदनहीन सरकार और खुद्दार किसान

संदीप पांडेय
पूरे देश ने देखा है कि किस तरह से केन्द्र सरकार ने संसद से बिना बहस या मतदान के तीन कृषि सम्बंधित विधेयक जल्दीबाजी में पारित करवाए. यह अब मोदी सरकार का संसद से निर्णय करवाने का एक तरीका बन गया है, जिसमें लोकतांत्रिक प्रकिया को ताक पर रख दिया जाता है.

इन तथाकथित कृषि सुधार कानूनों के नाम बड़े लुभावने लगते हैं. कृषक उपज व्यापार व वाणिज्य (संवर्धन व सुविधा) अधिनियम, 2020, किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन का अनुबंध व कृषि सेवाएं अधिनियम, 2020 व आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020. वर्तमान आंदोलन में इन तीन कानूनों के अलावा किसान विद्युत (संशोधन) विधेयक 2020 व राष्ट्रीय राजधानी व आसपास के क्षेत्र में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग अध्यादेश 2020 का भी विरोध कर इन्हें वापस लेने की मांग कर रहे हैं.

बताया जा रहा है कि कृषक उपज व्यापार व वाणिज्य (संवर्धन व सुविधा) अधिनियम, 2020 किसानों को मण्डी व्यवस्था से मुक्त कर देगा और अब किसान अपना उत्पाद देश में कहीं भी किसी को भी बेच सकेगा. जो बात कही नहीं गई है वह यह कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी समाप्त हो जाएगी.

यह सही है कि देश में कम ही किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ प्राप्त करते हैं और यह भी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य असल में किसानों के लिए अधिकतम मूल्य होता है. उससे ज्यादा पर कोई खरीदता नहीं और ज्यादातर किसानों को सरकारी खरीद केन्द्र के बाहर ही दलालों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर अपना उत्पाद बेच देना पड़ता है. लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य एक तरह से किसानों के लिए कवच का काम करता है क्योंकि वह बाजार में एक मानक तय करता है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने पर किसान कम से कम उसे लागू कराने के लिए लड़ तो सकता है. अब आंदोलन के दबाव में कहा जा रहा है कि मण्डी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खत्म नहीं की जा रही है. लेकिन जब धीरे धीरे किसान बाजार पर आश्रित हो जाएगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य व मण्डी की व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी तो किसान पूरी तरह से बाजार के हवाले हो जाएगा.

किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानूनी अधिकार के रूप में मिलनी ही नहीं चाहिए बल्कि उस पर खरीद भी होनी चाहिए व मण्डी व्यवस्था बरकरार रहनी चाहिए ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली व्यवस्था या राशन की दुकानें भी कायम रहें.

किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन का अनुबंध व कृषि सेवाएं अधिनियम, 2020 के तहत बड़ी कम्पनियों को खेती के क्षेत्र में प्रवेश मिलेगा. वे किसानों से अनुबंध करेंगी और तय करेंगी कि किसान क्या उगाएगा और उसे क्या मूल्य मिलेगा. किसानों को ऋण, आदि भी वे ही उपलब्ध कराएंगी. क्या किसानों को चम्पारण के दिनों में लौटाने की तैयारी है?

आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 के तहत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, आलू, प्याज जैसे उत्पादों को आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है जिसका मतलब यह है कि अब इन वस्तुओं का असीमित भण्डारण किया जा सकता है.

दूसरे शब्दों में कहें तो अब कालाबाजारी को वैध बना दिया गया है. भ्रष्टाचार को वैधता प्रदान करने का मोदी सरकार का यह कोई पहला कारनामा नहीं है. कम्पनियां अपने पिछले तीन साल के औसत मुनाफे का 7.5 प्रतिशत पूरी पारदर्शिता के साथ ही चुनावी चंदा दे सकती थीं. मोदी सरकार ने यह सीमा खत्म कर दी और राजनीतिक दलों को चंदा देने की व्यवस्था को अपारदार्शी बना दिया.

जाहिर है कि उपरोक्त तीनों कृषि कानून निजी कम्पनियों के हित में बनाए गए हैं जिसमें कम्पनियों को तो मुनाफा कमाने के तमाम रास्ते खोल दिए गए हैं और ऋण के बोझ से दबे किसान के और अधिक शोषण का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है.

हमें याद रखना चाहिए ये सिर्फ मोदी-शाह की सरकार नहीं है ये अडाणी-अम्बानी की भी सरकार है जिनकी पूंजी की ताकत के बिना मोदी-शाह का अस्तित्व नहीं है.

विद्युत (संशोधन) विधेयक 2020 के तहत राज्य सरकारों का बिजली दर पर छूट देने का अधिकार समाप्त हो जाएगा. किसानों को पहले पूरा बिल अदा करना पड़ेगा और फिर छूट की राशि सीधे उनके खाते में जाएगी.

इसके पहले देखा गया है कि किस तरह वस्तु एवं सेवा कर के केन्द्रीयकरण से किस तरह राज्य सरकारों को परेशानी का सामना करना पड़ा. जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निर्णय लेने की प्रक्रिया केन्द्रीयकृत है उसी तरीके से यह सरकार भारत के संघीय ढांचे को भी केन्द्रीयकृत तरीके से चलाना चाह रही है. यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है.

राष्ट्रीय राजधानी व आसपास के क्षेत्र में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग अधिनियम 2020 के तहत पराली जलाने पर रुपए 1 करोड़ का जुर्माना व 5 वर्ष की कैद भी हो सकती है. पूछना चाहिए कि आज तक किसी उद्योग, उदाहरण के लिए भोपाल के यूनियन कारबाइड संयंत्र या तुथुकुडी के स्टरलाइट संयंत्र जिनकी वजह से पर्यावरण को अपूर्तिनीय क्षति पहुंची है पर इस किस्म कर जुर्माना लगाया गया है? ऐसा लगता है कि सरकार किसान को ही पर्यावरण का सबसे बड़ा दुश्मन मान रही है.

किसानों की एक लम्बित मांग है किसान आयोग के गठन की. अब समय आ गया है कि सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए ताकि किसानों की अन्य समस्या के साथ उसकी लाभकारी मूल्य की मांग जो लागत के डेढ़ गुणा से कम न हो का समाधान हो सके.

किसानों की सरकार से वार्ता चल रही है किंतु गतिरोध बना हुआ है. इन बैठकों में अपना खाना-पानी साथ ले जाकर किसानों ने जबरदस्त प्रतीकात्मक संकेत दिया है- किसान सरकार पर निर्भर नहीं है बल्कि सरकारी अधिकारी व मंत्री अपने भोजन के लिए किसानों पर निर्भर हैं. किंतु यह अहंकारी सरकार है.

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब प्रख्यात वैज्ञानिक संत स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद उर्फ प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल ने हरिद्वार में गंगा के संरक्षण हेतु कानून बनाने की मांग को लेकर 2018 में 112 दिनों का अनशन कर अपने प्राण त्याग दिए. प्रधान मंत्री को स्वामी सानंद ने चार पत्र लिखे लेकिन जवाब एक भी नहीं मिला. हां, उनके मरने के तुरंत बाद नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट कर श्रद्धांजलि व्यक्त की.

ऐसी संवेदनहीन सरकार से कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती है. किसान आंदोलन की ताकत से सरकार को झुका ले तो बात दूसरी है.

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