राष्ट्र

नहीं है कोई एनडीए का संकटमोचक

नई दिल्ली | सुदीप ठाकुर-अमर उजाला : राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एनडीए की आज जो हालत हो गई है, उस पर तीन लोगों को गहरा अफसोस होता, मगर इनमें से दो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और राजग के पूर्व संयोजक जॉर्ज फर्नांडीज अपनी अस्वस्थता के कारण अब सिर्फ अतीत का हिस्सा हैं और तीसरे प्रमोद महाजन तो इस दुनिया में ही नहीं हैं.

वाजपेयी की उदार छवि, फर्नांडीज के राजनीतिक कौशल और महाजन के कॉरर्पोरेट शैली के प्रबंधन ने एनडीए को मजबूती दी थी.

वाजपेयी ने तो महाजन को अपना लक्ष्मण बताया ही था, मगर जॉर्ज भी उनके संकट मोचक थे. फिर वह रूठी ममता बनर्जी हों या जयललिता, उन्हें मनाने और नए सहयोगियों की तलाश में वाजपेयी जॉर्ज और महाजन पर ही सबसे अधिक भरोसा करते थे.

और यह वाकई आसान नहीं रहा होगा, जब एनडीए में एक समय 22 छोटे बड़े दल थे. कई बार खुद वाजपेयी तक इसे लेकर तंज भी कसते थे.

जयललिता के साथ तो जॉर्ज और महाजन दोनों के ही बहुत कड़वे अनुभव भी रहे, लेकिन इन दोनों ने अन्नाद्रमुक सुप्रीमो के दरबार में जाने से गुरेज नहीं किया. आज जयललिता नरेंद्र मोदी को मित्र बता रही हैं, और भाजपा भी उन्हें संभावित सहयोगी के रूप में देख ही रही होगी. मगर महाजन के साथ उन्होंने जो कुछ किया था, उसकी यादें ताजा कर लेनी चाहिए.

उन दोनों के बीच प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक ए के बेजबरुआ के तबादले को लेकर विवाद था. जयललिता ने कुछ आपत्तियां दर्ज की थीं और उनके निशाने पर महाजन थे. प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रतिनिधि के रूप में महाजन जयललिता से मिलने चेन्नई गए. कई घंटे इंतजार के बाद भी जयललिता उनसे नहीं मिलीं. इसके बाद महाजन ने दिल्ली आकर उन्हें चिट्ठी लिखी.

जयललिता ने उन्हें जवाब देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि आई कैन नाट रिप्लाई एनी टॉम, डिक एंड हैरी (मैं किसी ऐरे गैरे व्यक्ति को जवाब नहीं देती).

तो जॉर्ज से उनकी नाराजगी एडमिरल विष्ण भागवत को हटाए जाने को लेकर थी. इसके बावजूद जॉर्ज उन्हें गठबंधन में जोड़े रखने के लिए आखिर तक प्रयास करते रहे. और फिर वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर ही गई.

दरअसल 1990 के दशक में मंदिर आंदोलन और हिंदुत्व के उभार के दौर में जब भाजपा को अस्पृश्य माना जाता था, तब यह जॉर्ज फर्नांडीज ही थे, जिन्होंने सबसे पहले (शिवसेना और अकाली दल को छोड़कर) भाजपा से हाथ मिलाया था.

नतीजा भाजपा और समता पार्टी के गठबंधन के रूप में सामने आया. यह एनडीए के गठन की शुरुआत थी. 1996 में वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने मगर उनकी सरकार 13 दिन में गिर गई.

उस चुनाव में भाजपा सबसे बड़ा दल बनकर उभरा था और समता पार्टी को आठ सीटें मिली थीं. मगर 1998 के आते आते भाजपा की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अस्तित्व में आ गया और जॉर्ज फर्नांडीज को इसका संयोजक बनाया गया.

मगर उससे पहले का एक वाकया यह समझने के लिए काफी है कि किस तरह गठबंधन की नींव रखी जा रही थी. संसद में एक बहस चल रही थी, जॉर्ज भाषण दे रहे थे, उन्हें कुछ मिनट ही मिले थे, क्योंकि लोकसभा में उनकी पार्टी की सीटें कम थीं.

तब महाजन ने सदन में खड़े होकर स्पीकर से आग्रह किया था, कि जॉर्ज जितनी देर बोलना चाहें उन्हें बोलने दें और भाजपा के हिस्से का समय उन्हें दे दिया जाए.

उस वक्त भी लालकृष्ण आडवाणी अपनी घोषित कट्टर हिंदुत्व की छवि के घेरे में थे. तब उनसे संवाददाता सम्मेलन में पूछा जाता था कि वह जॉर्ज जैसे समाजवादी पर कितना भरोसा करते हैं, जिन्होंने जनता पार्टी में संघ से आए लोगों की दोहरी सदस्यता का मसला उठाया था और जिसकी परिणति जनता पार्टी के टूटने और मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के रूप में हुई थी.

बिहार से होकर रायपुर आए आडवाणी के साथ एक प्रेस कांफ्रेंस में ऐसी एक मुठभेड़ का साक्षी यह संवाददाता भी था.

खैर, कालांतर में जॉर्ज का भी वैचारिक रूपांतरण हो गया और 1999 में जब आस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बेटों को जिंदा जला दिया गया था, तब संसद के भीतर और बाहर उन्होंने बजरंग दल का जिस तरह से बचाव किया था, उसके बाद संघ से जुड़ा सवाल उनके लिए बेमानी हो गया.

और फिर जॉर्ज की वफादारी का इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा कि संघ के मुखपत्र ने उन पर आवरण कथा तक बनाई थी.

असल में जॉर्ज फर्नांडीज ने हमेशा कांग्रेस को अपना शत्रु नंबर वन माना और इसके लिए उन्होंने संसद में सोनिया गांधी के योगदान पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने तक से गुरेज नहीं किया था. मगर उनके शिष्य नीतीश कुमार और शरद यादव जिस राह पर चल रहे हैं, उससे लगता है कि उन्हें कांग्रेस से गुरेज नहीं.

यदि वाजपेयी और जॉर्ज राजनीतिक रूप से चैतन्य होते और महाजन जिंदा होते तब भी क्या राजग की यही गति होती?

2014 के चुनाव के मद्देनजर निश्चय ही एनडीए को नए सहयोगियों की तलाश होगी, मगर क्या मोदी के गुरूर में मस्त भाजपा को इसकी फिक्र है कि उसका डेढ़ दशक से भी पुराना सहयोगी साथ छोड़ रहा है.

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