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UP: अब होगा असली मुकाबला

राजेंद्र शर्मा
आखिरकार, उत्तर प्रदेश का विधानसभाई चुनाव पूरी तरह से खुल गया है. देश के इस सबसे बड़े राज्य में, भाजपा के लिए चुनाव में एक कड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है. यह चुनौती समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन से मिलने जा रही है. बेशक, अब भी उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुकाबले बिहार जैसा ‘महागठबंधन’ खड़ा नहीं किया जा सका है. उल्टे यह तो पहले से ही स्पष्ट था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों के लिए मुकाबला कम से कम तिकोना जरूर होगा. बिहार के विपरीत, उत्तर प्रदेश की वास्तव में प्रतिस्पर्धी मुख्य गैर-भाजपा ताकतों, सपा और बसपा के एक साथ आने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी. यह इसके बावजूद है कि इन दोनों ताकतों को लेकर बना महागठबंधन, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के फौरन बाद 1993 में हुए चुनाव में, भाजपा का रास्ता रोकने में ही कामयाब नहीं रहा था, उसके साथ ही उत्तर प्रदेश में सत्ता से भाजपा के ‘पच्चीस साल के वनवास’ की शुरूआत भी हुई थी. लेकिन, इन दोनों पार्टियों पर आधारित महागठबंधन की संभावनाएं उस तजुर्बे के साथ ही खत्म हो गयीं.

बहरहाल, अब जबकि केंद्र में सत्ता में अपनी मौजूदगी और 2014 के आम चुनावों में 42.3 फीसद वोट के साथ, राज्य की 80 में से 73 लोकसभाई सीटों पर अपनी अभूतपूर्व कामयाबी से उत्साहित भाजपा, उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी की जबर्दस्त कोशिश करने जा रही है, उसके मुकाबले के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों की सीमित ही सही, फिर भी उल्लेखनीय गोलबंदी का रास्ता खुल गया है. यह भी आने वाले चंद दिनों में स्पष्ट हो जाएगा कि कड़ी सौदेबाजी के बाद, समाजवादी पार्टी से 105 सीटें हासिल कर पायी कांग्रेस, अपने हिस्से में से अन्य छोटी पार्टियों के लिए जगह बनाने के लिए कहां तक तैयार होती है. वैसे, अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल से कम से कम औपचारिक तालमेल के सभी दरवाजे अब बंद हो गए हैं, हालांकि कुछ खास सीटों पर स्थानीय/ अघोषित तालमेल अब भी असंभव नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सीमित सीटों पर ऐसा लेन-देन भी, भाजपा की मुश्किलें तो बढ़ा ही सकता है, वर्ना यहां चुनाव मैदान में अजीत सिंह की उपस्थिति, कई सीटों पर मुकाबले को चौकोना बना सकती है.

वैसे सच कहें तो उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी महागठबंधन के रास्ते में एकमात्र बाधा, एक सिरे पर बसपा तथा लोकदल जैसी पार्टियों का तथा दूसरे सिरे पर कम्युनिस्ट पार्टियों का चुनाव में भाजपा के साथ-साथ, सपा-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ खड़ा होना ही नहीं है. इसके साथ ही जो गठबंधन बना भी है, खुद उसकी अपनी पगबाधाएं भी कम नहीं हैं. इन पगबाधाओं का कुछ अंदाजा कांग्रेस और सपा के बीच चुनाव गठबंधन तथा कुल सीटों के बंटवारे की जिस तरह घोषणा हुई, उससे भी बखूबी लग जाता है. बात सिर्फ सीटों के बंटवारे पर कड़ी सौदेबाजी के बीच बात के टूट जाने के बार-बार निकले संकेतों के नकारात्मक संदेश की ही नहीं थी, जिससे गठबंधन के पक्ष में बनती हवा बेशक कमजोर हुई है. इसके अलावा बात दोनों साझीदारों द्वारा और खासतौर पर कांग्रेस द्वारा इस गठबंधन को दिए जा रहे महत्व की भी थी.

राहुल गांधी और अखिलेश यादव द्वारा संयुक्त रूप से गठबंधन का और उसके जरिए भाजपा को चुनौती दिए जाने का एलान किए जाने की प्रत्याशाओं के मुकाबले, सपा तथा भाजपा के राज्य अध्यक्षों द्वारा ही गठबंधन का एलान किया जाना, बेशक इस गठबंधन की हवा कम करता है. वास्तव में इसके लिए कांग्रेस ही ज्यादा जिम्मेदार लगती है, जिसकी शीर्ष स्तर से गठबंधन का एलान करने की तत्परता के अभाव में, राजनीतिक प्रोटोकॉल के तकाजों ने अखिलेश यादव तक को गठबंधन के एलान की प्रैस कान्फ्रेंस से बाहर रखा. प्रैस कान्फ्रेंस के स्थान को लेकर हुई खींचतान और घोषणा के बावजूद, समाजवादी पार्टी के दफ्तर के बजाए अंतत: एक होटल में प्रैस कान्फ्रेंस होने से निकले संकेत इसके ऊपर से हैं.

इसके अलावा गठबंधन की मुख्य पार्टी, जो गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद की भी दावेदार है, खुद समाजवादी पार्टी में अब भी सब कुछ ठीक-ठाक न हो जाने के संकेत अपनी जगह हैं. एक ओर अगर, गठबंधन की घोषणा शीर्ष स्तर से नहीं किए जाने की स्थिति के चलते ही, अखिलेश यादव उसी दोपहर में सपा का चुनाव घोषणापत्र जारी करते हुए, गठबंधन के संबंध में कुछ भी कहने से बचते रहे, हालांकि आयोजन के बाद पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने एसका एलान जरूर किया कि ‘गठबंधन का सिलसिला कायम है’. दूसरी ओर, जानकारों के अनुसार चुनाव घोषणापत्र जारी करने के पूरे कार्यक्रम के दौरान, अखिलेश यादव कुछ बेचैन दिखाई दिए क्योंकि उनकी अपेक्षा के विपरीत, मुलायम सिंह यादव इस कार्यक्रम में नहीं पहुंचे और उनकी कुर्सी खाली ही रही.

बेशक, कार्यक्रम के बाद मुलायम सिंह सपा कार्यालय भी पहुंचे और उन्होंने अखिलेश तथा उनकी पत्नी व सांसद डिंपल से मुलाकात कर आशीर्वाद भी दिया, फिर भी कम से कम इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि अखिलेश के पूरी तरह से पार्टी तथा चुनाव की कमान अपने हाथ में ले लेने पर, उनकी अप्रसन्नता अब भी खत्म नहीं हुई है. यह दूसरी बात है कि इस अप्रसन्नता का परंपरागत समाजवादी पार्टी समर्थकों का उत्साह कम करने से ज्यादा कोई असर शायद ही होगा. आखिरकार, पार्टी के चुनाव निशान तथा नेतृत्व के प्रश्न पर चुनाव आयोग के फैसले के बाद बड़ी तेजी से चले घटनाक्रम में और खासतौर पर मुलायम सिंह द्वारा अखिलेश को 38 नामों की अपनी सूची सौंपे जाने तथा शिवपाल यादव के यह मान लेने के बाद कि ‘इस बार टिकट मुख्यमंत्री जी बांट रहे हैं’, इतना तो तय हो ही गया है कि अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी को, दबी-खुली अप्रसन्नता से आगे और टिकट-वंचितों की बगावतों को छोडक़र, कम से कम किसी स्पष्ट गुटीय चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा.

बेशक, अखिलेश यादव ने भी मुलायम सिंह की सूची में से अनेक नामों को जगह देकर और सार्वजनिक रूप से मुलायम सिंह के प्रति अधिकतम सम्मान का प्रदर्शन कर, संभावित-विरोधी गुट को कोई बहाना न देने का खासतौर पर ख्याल रखा लगता है.

इस सब का अर्थ यह है कि भाजपा इससे तसल्ली हासिल कर सकती है कि कम से कम शुरूआत में उत्तर प्रदेश में भाजपाविरोधी गठबंधन की वैसी हवा नजर नहीं आ रही है, जैसी बिहार में ऐसे ही गठबंधन की नजर आ रही थी. जाहिर है कि इसमें यह सचाई भी शामिल है कि जहां बिहार में 2014 के आम चुनाव में महागठबंधन के घटकों का सम्मिलित वोट, भाजपायी गठजोड़ के वोट से ज्यादा था, उत्तर प्रदेश के मामले में स्थिति इससे भिन्न है.

2014 के आम चुनाव में सपा तथा कांग्रेस का सम्मिलित वोट 30 फीसद से कुछ नीचे ही था यानी भाजपा तथा उसके सहयोगियों से 12 फीसद से भी ज्यादा पीछे. लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियों को मिलकर 57 सीटों पर ही बढ़त हासिल हुई थी, जबकि भाजपा को 403 में से कुल 328 सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी. यह दूसरी बात है कि करीब 50 अन्य सीटों पर भाजपा अपेक्षाकृत थोड़े अंतर से चुनाव जीती थी. 11 सीटों पर उसे पांच हजार या उससे कम वोट से जीत हासिल हुई थी, जबकि 19 सीटों पर 10 हजार से कम वोट से और 20 अन्य सीटों पर 20 हजार से कम अंतर से. यानी अगर सब कुछ 2014 के चुनाव की तरह ही रहे तब भी, कुल चार सौ में से एक चौथाई से ज्यादा सीटों पर तो गठबंधन भाजपा से जोरदार मुकाबला कर ही सकता है.

पर यह न्यूनतम है. वास्तव में 2014 के आम चुनाव के बाद से बहुत कुछ बदला है और यह बदलाव सबसे बढक़र भाजपा के प्रतिकूल है. शेष देश की ही तरह उत्तर प्रदेश की जनता भी, मोदी राज के ढाई साल देख चुकी है, जिनमें 2014 के चुनाव के रोजगार देने से लेकर काला धन वापस लाने तक के वादों का हवाई साबित होना और अच्छे दिनों का जुम्ला बन जाना शामिल है. उसके ऊपर से नोटबंदी की चोट और. जाहिर है कि नरेंद्र मोदी की तस्वीर के सहारे भाजपा, 2014 के चुनाव का अपना प्रदर्शन और वह भी विधानसभाई चुनाव में वह प्रदर्शन, दोहराने की कल्पना भी नहीं कर सकती है.

वास्तव में यह अर्थहीन ही नहीं है कि आम चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए दो दर्जन से ज्यादा विधानसभाई उपचुनावों में भाजपा को शायद ही कोई सीट मिली है और वास्तव में राज्य विधानसभा में उसकी सीटों की कुल संख्या घटी ही है. इसके अलावा, न सिर्फ बिहार के नीतिश कुमार की तरह, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की छवि, मोदी को विकास के अपने खोखले नारे को चलाने से कारगर तरीके से रोक सकती है बल्कि समाजवादी पार्टी के परंपरागत आधार से आगे युवाओं को धर्मनिरपेक्ष गठबंधन के पक्ष में खींच भी सकती है. यह भाजपा को सांप्रदायिक कार्ड पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर बनाएगा, जो पलटकर अल्पसंख्यकों तथा धर्मनिरपेक्ष वोट का, सपा-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा सुदृढ़ीकरण भी करेगा.

|| याद रहे कि भाजपा को ऐतिहासिक रूप से ज्यादा वोट बाबरी मस्जिद के ध्वंस के फौरन बाद हुए 1993 के चुनाव में मिला था- कुल 33.3 फीसद. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा सचमुच इस विधानसभाई चुनाव में इस आंकड़े को पार कर पाती है. ||

वास्तव में अपनी विकास-अनुकूल तथा अपराधी-मुक्त छवि के बल पर अखिलेश के नेतृत्व में सपा-कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष गठबंधन, 2012 के विधानसभाई चुनाव के अपने ही प्रदर्शन के आस-पास भी पहुंच सकता है. उस चुनाव में 29.3 फीसद वोट के साथ सपा ने 224 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस ने 11.7 फीसद वोट के साथ, 28 सीटें. उस चुनाव में दोनों का संयुक्त मत फीसद, 2014 के लोकसभा चुनाव के उत्तर प्रदेश के भाजपा के मत फीसद के करीब ही था. चूंकि लोकसभा चुनाव के मुकाबले बसपा का वोट भी बढऩा और भाजपा का वोट घटना तय है, सपा-कांग्रेस गठबंधन भाजपा को पछाडक़र, तिकोने मुकाबले में सबसे आगे निकल सकता है. याद रहे कि भाजपा को ऐतिहासिक रूप से ज्यादा वोट बाबरी मस्जिद के ध्वंस के फौरन बाद हुए 1993 के चुनाव में मिला था- कुल 33.3 फीसद. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा सचमुच इस विधानसभाई चुनाव में इस आंकड़े को पार कर पाती है.

बेशक, ऐसा होना न होना सबसे बढक़र सपा-कांग्रेस गठबंधन की एक भाजपाविरोधी धर्मनिरपेक्ष तथा जनहितकारी गठबंधन के रूप में जनता के बीच साख बनाए जाने पर निर्भर करेगा. दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के चुनाव का नतीजा चूंकि 2019 के आम चुनावों की इबारत लिखने वाला नतीजा भी होगा, मोदी की भाजपा इस चुनाव में सभी हथियार आजमाएगी. इसमें, हिंदुत्ववादी तथा ब्राह्मणवादी कार्ड के इस्तेमाल से लेकर, अपना दल तथा राजभर पार्टी समेत छोटी-छोटी पार्टियों से गठजोड़ करने तथा बड़ी संख्या में दलबदल कराकर टिकट देने तक और तिकोने मुकाबले का फायदा उठाने की कोशिश भी शामिल हैं. फिर भी, अब उत्तर प्रदेश का चुनाव मुकाबला खुल गया है. राहुल गांधी ने गलत नहीं कहा था. उत्तर प्रदेश का चुनाव बहुत दिलचस्प होने जा रहा है.

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