प्रसंगवश

मैं जिस आदेश श्रीवास्तव को जानता हूँ…

आलोक श्रीवास्तव
( मुंबई से लौटते हुए )
संघर्ष के कण्ठ से जब कोई सुर निकलता है तो उस सुर का नाम आदेश श्रीवास्तव हो जाता है. कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड नहीं. परिवार का फ़िल्मों से कोई क़रीबी रिश्ता नहीं. बस, मध्यप्रदेश के जबलपुर में बैठे एक 17-18 साल के लड़के को धुन सवार होती है और वो मुंबई आ जाता है.

उँगलियाँ ड्रम पर थिरकती थीं तो पहले पहल इंडस्ट्री में ‘ड्रमर’ कहलाता है. यहीं से संघर्ष का पन्ना खुलता है. क्योंकि ये वो आकाश नहीं था जिसका सपना आदेश ने देखा था. वो फ़िल्मों के दरवाज़े खटखटाता है. कोई बंद रहता है तो कोई खुल जाता है. 1990 के बाद आदेश रातों रात इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री की ‘आँखों’ का तारा हो जाता है. संगीत जगत का सितारा हो जाता है. यहाँ एक बहुत पुराना जुमला फिर याद आता है : ‘इसके बाद उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.’

आदेश भाई से मेरी मुलाक़ात का समय 1995 में तय होता है. ये फ़िल्मों में उनके संगीत की तूती बोलने का वक़्त हुआ करता है. साथ काम करने का कोई मौक़ा करवट लेने को ही होता है कि मैं मुंबई से वापस अपने वतन अपने शहर विदिशा आ जाता हूँ. मिलने-मिलाने का सिलसिला फ़ोन और मोबाइल तक सिमट जाता है. दस बारह बरस गंगा में पानी बह जाता है. अचानक पुराने रिश्ते फिर ताज़ा होते हैं. हम दोनों साल 2010 से फिर संपर्क में आते हैं. अब रिलेशन, प्रोफ़ेशन नहीं रह जाता है. बल्कि परिवारों तक चला आता है. दोनों में एक पारिवारिक रिश्ता बन जाता है.

मेरा मुंबई जाना और उनका दिल्ली आना, एक दूसरे से मिलने की ज़रूरत बन जाता है. धीरे-धीरे मैं जान पाता हूँ कि उनके अंदर हर वक़्त सिर्फ़ संगीत ही नहीं गुनगुनाता है. बल्कि एक शानदार शख़्स, हमदर्द दोस्त, जज़्बाती भाई और ख़ूबसूरत इंसान भी टिमटिमाता है. जिसकी मद्धम रोशनी में उनका ‘मुकम्मल और बेहतरीन इंसान’ सबको अपना दीवाना बनाता है.

एक रोज़ मैं दिल्ली से उन्हें फ़ोन लगाता हूँ. बताता हूँ कि पाँच साल की एक मासूम बच्ची के साथ उसी के एक अपने ने बेरहमी से बलात्कार कर दिया. बात ख़त्म हो जाती है. रात को आदेश भाई का फ़ोन आता है. दूसरी तरफ़ से दो बेटों ‘अवितेश और अनिवेश’ का पिता बोल रहा होता है. जिसे पाँच साल की गुड़िया के साथ हुए हादसे ने सोने नहीं दिया है : “आलोक, गुड़िया के दर्द पर कुछ लिख कर दो. बनाता हूँ, बहुत बेचैनी है मन में यार !”

दूसरे ही दिन आदेश, नौ साल की अपर्णा पंडित की आवाज़ में गुड़िया के दर्द को समर्पित गीत, रिकॉर्ड करके दिल्ली भेज देते हैं. देश के बड़े न्यूज़ चैनल उसे गुड़िया के दर्द की आवाज़ बना कर चलाते है. एक कलाकार के सरोकार से रूबरू कराते हैं-
नज़र आता है डर ही डर तेरे घर बार में अम्मा,
नहीं आना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा.

इधर उत्तराखंड में बाढ़ से हाल बेहाल होता है, उधर आदेश अपने गायक मित्रों को टटोलते हैं. सिंगर शान मिल जाते हैं. आदेश बच्चों की तरह खिल जाते हैं. मुझे फ़ोन लगाते हैं : “आलोक, उत्तराखंड की त्रासदी पर एक गीत लिख, जल्दी. मैं उसे बनाऊँगा और शान के साथ गाऊँगा.” मैं हतप्रभ रह जाता हूँ. बॉलीवुड की चकाचौंध से घिरे संगीत के इस सितारे को उत्तराखंड की त्रासदी भी बहा ले जाती है. गीत चैनल पर बजता है और दर्द ज़ुबानों पर चढ़ जाता है :
न जीवन बचा न घरों की निशानी,
पहाड़ों पे टूटा, पहाड़ों का पानी.

समय और समाज के साथ इस कलाकार के सरोकार का रिश्ता यहीं नहीं थम जाता है. एक दिन वो मुझे फिर एक धुन सुनाता है. कहता है : “एक नेशन सॉन्ग बनाते हैं.” दादा (अमिताभ बच्चन जी) से गवाते हैं. मेरे सामने भी नए ख़्वाब के वरक़ खुल जाते हैं. अमित जी आदेश से बहुत प्यार करते हैं, गीत को आवाज़ देने के लिए राज़ी हो जाते हैं. रिकॉर्डिंग के दिन आदेश दो बजे रात तक स्टूडियो में काम करते हैं. गाना बनता है. चैनल पर चलता है और ज़ुबानों पर चढ़ता है : ‘आओ सोचें ज़रा, आओ देखें ज़रा, हमने क्या क्या किया.’ एक कलाकार का सरोकार फिर एक बार अपना परचम लहराता है. आदेश का कलाकार सेल्यूलाइट की लाइट्स से निकलकर कुछ अलग कर दिखाता है.

मैं जिस आदेश श्रीवास्तव को जानता हूँ, मेरी नज़र में उसका क़द, उसके फ़िल्मी क़द से कहीं ऊँचा है. चमक-दमक में घिरा फ़िल्मी ज़िंदगी का तारा. संगीत का सितारा. दोस्ती, इंसानियत, हमदर्दी और सरोकारों के उजालों से भरा. वो उजाला अब नहीं है. मैं मुंबई से दिल्ली लौट रहा हूँ. आज उसके शरीर को अपनी आँखों के सामने धूं-धूं कर जलते देखा है. पीली लपटों को नीले आकाश में खोते देखा है. लेकिन कलाकार कहाँ खोता है. वो तो जहाज़ के बग़ल वाली सीट पर बैठा अब भी गुनगुना रहा है :
रागिनी बन के हवाओं में बिखर जाऊँगा,
अब नई तर्ज़, नया गीत गुनगुनाऊँगा.

* लेखक देश के जाने-माने शाइर हैं, जिनके कई गीतों को आदेश श्रीवास्तव ने संगीत से सजाया है.

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