प्रसंगवश

आम पार्टियों सी है आप

सुदीप ठाकुर
आम आदमी पार्टी में इसके राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के बीच हुए टकराव की परिणति इन दोनों के साथ ही दो अन्य असंतुष्ट नेताओं प्रो आनंद कुमार तथा अजीत झा को बाहर का दरवाजा दिखाने के रूप में हुई है.

इस पूरे घटनाक्रम में जो कुछ हुआ, उसने राजनीतिक पंडितों, पत्रकारों और विश्लेषकों को ही नहीं, दूसरे राजनीतिक दलों को भी भारतीय राजनीति के इस सबसे नए दल के बारे में अपनी धारणाएं बदलने को विवश किया है. इसमें से कुछ राहत की सांस ले रहे हैं, तो कुछ के लिए यह एक उम्मीद के टूटने जैसा है.

दरअसल दो वर्ष पहले जिस रूप में यह पार्टी अस्तित्व में आई थी, तब उसके बारे में कोई स्पष्ट राय बनाना बेहद मुश्किल था. इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि देश के आम लोग इस पार्टी को किस तरह ले रहे हैं, यह कोई दावे के साथ नहीं कह सकता था. भ्रष्टाचार और जन लोकपाल के लिए हुए अन्ना आंदोलन के कारण एक राजनीतिक हलचल पैदा हुई थी, बावजूद इसके कि उस वक्त अन्ना और अरविंद केजरीवाल इसे गैरराजनीतिक बताते रहे. उस आंदोलन में ही एक राजनीतिक दल के बीज पड़ चुके थे और महत्वाकांक्षाएं टकराने लगी थीं.

इसके बावजूद आम आदमी पार्टी अपने गठन के बाद से ही बंद मुट्ठी जैसी थी, और किसी को पता नहीं था कि इसके भीतर क्या है. वैचारिक बुनावट में यह किसी को लेफ्ट जैसी लग रही थी, तो किसी को दक्षिणपंथी पार्टी की तरह. अपने तेवर में वामपंथी जैसी दिखने वाली यह पार्टी व्यवहार और मंच से लगाए जाने वाले नारों में भाजपा के राष्ट्रवाद के करीब लगती रही है. ऐसे भी लोग रहे हैं, जिन्हें यह अपनी एनजीओ वाली पृष्ठभूमि के कारण कांग्रेस के भी करीब लगती थी.

वैकल्पिक राजनीति की बात करने की वजह से इसे आंदोलन समझने वालों की कमी भी नहीं थी. वैचारिक रूप से इसका कोई स्पष्ट स्वरूप अब तक सामने नहीं आया था. संभवतः इसलिए लोकसभा चुनाव से पहले तक भाजपा को यह नारा मुफीद लगता था कि केंद्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल​!

लेकिन यही केजरीवाल जब बनारस में मोदी को चुनौती देने पहुंचे, तो वहां के वामपंथी रुझान वाले बुद्धिजीवी उनके साथ हो लिए. मगर ताजा घटनाक्रम में अब यह मुट्ठी खुल चुकी है. अब इस पार्टी को लेकर किसी तरह का संशय बाकी नहीं है. पांच वजहों के कारण आम आदमी पार्टी भी आम पार्टियों जैसी ही है.

पहली बात: यदि यह सैद्धांतिक और वैचारिक लड़ाई की परणिति है, तो यह कहा जा सकता है कि यह पार्टी वैचारिक द्वंद्व से बाहर निकल चुकी है और अब इसमें मध्य से वाम की ओर वाला झगड़ा खत्म हो चुका है. अभी यह कहना मुश्किल है कि यह पूरी तरह से दक्षिणपंथी रास्ते पर चल पड़ी है. संघ परिवार इसका अध्ययन जरूर कर रहा होगा. जो लोग जेपी आंदोलन की तुलना अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी की तुलना जनता पार्टी से कर रहे होंगे, उन्हें याद होगा कि उसमें पहली दरार वैचारिक आधार पर पड़ी थी. भारतीय लोकदल, संगठन कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और भारतीय जनसंघ के विलय से बनी जनता पार्टी में एक-डेढ़ वर्ष बाद ही दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर फूट पड़ गई थी. अंततः अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की अगुआई में जनसंघ वाला धड़ा इससे अलग हो गया और भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आ गई.

दूसरी बात: आम आदमी पार्टी का झगड़ा अंततः राजनीतिक पूंजी पर कब्जे का भी झगड़ा है. इस पार्टी के गठन में अलग-अलग धाराओं के लोग अपनी पूंजी लेकर आए थे, लिहाजा इसकी सफलता में सब अपनी हिस्सेदारी चाह रहे थे. असल में यह पार्टी पर कब्जे और अपना वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई थी. पार्टी पर इस तरह कब्जे की लड़ाई भी नई नहीं है. इसका लंबा इतिहास, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी (यह कई बार बनी और टूटी) से लेकर जनता पार्टी (1980 में कई धड़ों में टूट गई थी) और फिर हाल तक जनता दल के धड़ों के रूप में देखा जा सकता है. देखने वाली बात यह है कि क्या इस पार्टी के असंतुष्ट नेता आम आदमी पार्टी पी (प्रशांत) या वाई (योगेंद्र) या फिर एस (सेकुलर) के रूप में किसी नई पार्टी का गठन तो करने नहीं जा रहे हैं.

तीसरी बात: आम आदमी पार्टी की इस गति के बाद भाजपा और कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दल राहत की सांस ले रहे होंगे. उनके लिए यह भी एक दूसरा राजनीतिक दल ही है, जिसमें वह सब बुराइयां हैं जो उनमें हैं. यह पार्टी भी एक नेता के इर्द गिर्द सिमटी हुई है. सबसे गहरा धक्का उन्हें लगा होगा जो आम आदमी पार्टी में एक नई विपक्षी पार्टी की संभावनाएं देख रहे थे.

चौथी बात: वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाली इस पार्टी ने दिखा दिया है कि राजनीति में वैकल्पिक कुछ नहीं होता. ऐसा लगता है कि यह आशंका इस पार्टी से जुड़ने वाले सामाजिक संगठनों को रही होगी. मसलन अब इस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे चुकीं मेधा पाटकर ने पार्टी में शामिल होने के बावजूद अपने नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) का विलय इसमें नहीं किया था. उनके अलावा ऐसे छोटे बड़े संगठनों के नेताओं के पास अब आंदोलन की राह पर लौटने का विकल्प खुला है.

पांचवी बात: इस सफाई अभियान के बाद झाड़ू वाली इस पार्टी का भविष्य क्या है? 67 विधायकों के मजबूत समर्थन के साथ यह पार्टी दिल्ली में पूरे पांच वर्ष तक शासन करेगी. लिहाजा इसके पास अच्छा काम करने का पूरा अवसर है. अरविंद और उनके साथी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि वह दिल्ली में सुशासन का अच्छा मॉडल प्रस्तुत करेंगे. मगर उन्हें पता होगा कि उनकी निर्भरता केंद्र सरकार खासतौर से गृह और शहरी विकास मंत्रालय पर बहुत अधिक है. यहां तक कि उसे भाजपा के कब्जे वाले नगर निगमों से भी तालमेल मिलाकर चलना होगा. फिलहाल दिल्ली से बाहर उसकी संभवानाएं क्षीण दिख रही हैं. लाख टके का सवाल है कि क्या आम आदमी पार्टी दिल्ली की महानगरपालिका जैसी विधानसभा में सिमट कर दिल्ली की शिवसेना जैसी तो नहीं बन जाएगी!
* लेखक ‘अमर उजाला’ नई दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं.

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