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खुले बाज़ार में किसान

देविंदर शर्मा
अमरीका के एक किसान ने ट्वीट किया कि उसने 2018 में मक्का जिस कीमत पर बेचा, मक्के की उससे ज्यादा कीमत उसके पिता को 1972 में मिली थी. यह एक ऐसे देश की दशा है, जहां छह-सात दशक से खुला बाजार है. अभी हाल ही में अमरीकी कृषि विभाग के एक अर्थशास्त्री ने कहा है कि अमरीकी किसानों की आय तेज गिरावट की ओर है.

इससे पता चलता है कि जो बाजार सुधार अमरीका ने कृषि क्षेत्र में सात दशक पहले किया था, वह नाकाम साबित हो चुका है. इस साल अमरीका के किसानों पर 425 अरब डॉलर का कर्ज हो गया है. वहां ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर शहरों से 45 प्रतिशत ज्यादा है. यह वह देश है, जहां खुला बाजार है, जहां बड़ी कंपनियों के लिए कोई भंडार सीमा नहीं है.

अनुबंध खेती और वायदा बाजार भी है. वहां एक देश एक बाजार ही नहीं, एक दुनिया एक बाजार है. वहां के किसान दुनिया में कहीं भी निर्यात कर सकते हैं, इसके बावजूद वहां कृषि पर संकट गंभीर है.

अगर हम यूरोप में देखें, तो फ्रांस में एक साल में 500 किसान आत्महत्या कर रहे हैं. अमरीका में वर्ष 1970 से लेकर अभी तक 93 प्रतिशत डेयरी फार्म बंद हो चुके हैं. इंग्लैंड में तीन साल में 3,000 डेयरी फार्म बंद हुए हैं. अमरीका, यूरोप और कनाडा में सिर्फ कृषि नहीं, बल्कि कृषि निर्यात भी सब्सिडी पर टिका है. ताजा आंकड़ों के अनुसार, हर साल 246 अरब डॉलर की सब्सिडी अमीर देश अपने किसानों को देते हैं.

बाजार अगर वहां कृषि की मदद करने की स्थिति में होता, तो इतनी सब्सिडी की जरूरत क्यों पड़ती? हमें सोचना चाहिए कि खुले बाजार का यह पश्चिमी मॉडल हमारे लिए कितना कारगर रहेगा?

गौर करने की बात है, वर्ष 2006 में बिहार में अनाज मंडियों वाले एपीएमसी एक्ट को हटा दिया गया. कहा गया कि इससे निजी निवेश बढ़ेगा, निजी मंडियां होंगी, किसानों को अच्छी कीमत मिलेगी. आज बिहार में किसान बहुत मेहनत करता है, लेकिन उसे जिस अनाज के लिए 1,300 रुपये प्रति क्विंटल मिलते हैं, उसी अनाज की कीमत पंजाब की मंडी में 1,925 रुपये है.

पंजाब और हरियाणा में मंडियों और ग्रामीण सड़कों का मजबूत नेटवर्क है. इसी वजह से पंजाब और हरियाणा की देश की खाद्य सुरक्षा में अहम भूमिका है.

अब जब वैध रूप से मंडी के बाहर भी अनाज बिकेगा, तो एक देश दो बाजार हो जाएगा. मंडी में जो खरीद होगी, उस पर टैक्स लगेगा, लेकिन मंडी के बाहर होने वाली खरीद पर नहीं लगेगा. इस वजह से मंडियां धीरे-धीरे खाली होती जाएंगी. सरकार का कहना है हमने एपीएमसी को नहीं छुआ है और न्यूनतम समर्थन मूल्य भी जारी रहेगा, पर किसानों को शंका है कि जब एपीएमसी का महत्व कम होगा, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य का महत्व भी खत्म हो जाएगा.

शांता कुमार समिति कहती है कि देश में सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है और 94 प्रतिशत किसान खुले बाजार पर निर्भर हैं. साफ है, अगर खुला बाजार अच्छा होता, तो किसानों की समस्या इतनी क्यों बढ़ती? अगर खुले बाजार में किसानों को उचित मूल्य मिल रहा होता, तो वे भला क्यों न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करते?

ओईसीडी की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 व 2016 के बीच भारत के किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, क्योंकि उन्हें उचित दाम नहीं मिला. आर्थिक सर्वेक्षण 2016 कहता है, किसान परिवार की औसत आय देश में सालाना 20,000 रुपये है. बड़ा सवाल है कि इतने कम पैसे पर किसान परिवार जीवित कैसे रहता होगा?

अब सरकार पांच साल तक की अनुबंध खेती को भी मंजूरी दे रही है. उपज की कीमत पहले तय हो जाएगी. कोई समस्या होगी, तो पहले एसडीएम के पास जाना पड़ेगा. इतिहास रहा है, कंपनी की ही ज्यादा सुनी जाएगी. एक और बड़ी बात हुई है कि कुछ अनाजों से भंडारण की सीमा हटने से एक तरह से जमाखोरी के रास्ते खुल जाएंगे. किसानों को क्या फायदा होगा? जो नुकसान होगा, उपभोक्ता भुगतेंगे.

आज प्याज की जो कीमत बढ़ रही है, उसमें जमाखोरी की भी बड़ी भूमिका है. अमरीका में वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनियां हैं, उनके भंडारण की कोई सीमा नहीं है, लेकिन वहां तो किसान को फायदा हुआ नहीं, वह तो सब्सिडी पर बचा है. अमरीका में किसानों को मिल रही औसत सब्सिडी 7,000 डॉलर प्रतिवर्ष है, जबकि भारत में करीब 200 डॉलर. खुले बाजार के बावजूद वहां सब्सिडी की जरूरत क्यों है?

क्या हमें खुली मंडी, अनुबंध खेती व भंडारण संबंधी प्रावधान अमरीका और यूरोप से लेने चाहिए थे? हमारे प्रधानमंत्री कहते रहते हैं, आज भारत के पास मौका है, सबका साथ सबका विकास साकार करने का. प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर भारत बनाने को प्रयासरत हैं और इन दोनों मंजिलों की राह गांव से होकर गुजरती है. गांवों-किसानों के हित में हमारा अच्छा मॉडल है एपीएमसी मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य का, जो हमने कहीं से उधार नहीं लिया.

अभी पूरे देश में 7,000 मंडियां हैं, हमें चाहिए 42,000 मंडियां. नए प्रावधानों के बाद सब बोल रहे हैं कि किसानों को अच्छा दाम मिलेगा. अच्छा दाम तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा ही होना चाहिए, तो फिर समर्थन मूल्य को पूरे देश में वैध क्यों न कर दिया जाए? किसान की आजादी तो तब होगी, जब उसे विश्वास होगा कि मैं कहीं भी अनाज बेचूं, मुझे न्यूनतम समर्थन मूल्य तो मिलेगा ही. हमारा मॉडल दुनिया के लिए मॉडल बन सकता है. यही किसानों को सुनिश्चित आय दे सकता है. अच्छा है, सरकार इस मॉडल को नहीं छोड़ना चाहती.

देश में करीब 50 प्रतिशत आबादी और 60 करोड़ लोग खेती से जुड़े हैं, उनके हाथों में ज्यादा दाम आएगा, तो अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी. अभी हम 23 फसलों का समर्थन मूल्य निर्धारित करते हैं, यदि हम देश भर में न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था कर दें, तो 80 प्रतिशत फसलों का सही मूल्य मिलने लगेगा. लेकिन मंडी और समर्थन मूल्य के बावजूद 60 प्रतिशत किसान ऐसे रह जाएंगे, जिनके पास कुछ बेचने को नहीं होगा.

उनके लिए किसान आय और कल्याण आयोग बनाना चाहिए, आयोग तय करे कि हर महीने सरकारी कर्मचारी का जो न्यूनतम वेतन है, उसके बराबर किसानों की आय कैसे सुनिश्चित हो. देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें देर-सबेर यह करना ही पडे़गा.

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