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आयुष चिकित्सकों से सुधरेगा स्वास्थ्य

डॉ. संजय शुक्ला
देश में एलोपैथिक डॉक्टरों की कमी और इन डॉक्टरों के दुर्गम ग्रामीण व आदिवासीक्षेत्रों में सेवाओं के प्रति अरूचि के बीच केन्द्र की एनडीए सरकार ने नयी स्वास्थ्य नीति 2017 की घोषणा कर दी है. इस नीति में देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के उन्नयन तथा विशेष टीकाकरण पर जोर दिया गया है. सरकार का मानना है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र अभी तक महज प्रसव पूर्व जांच, टीकाकरण तथा मामूली बीमारियों के इलाज तक ही सीमित है. अब सरकार की मंशा इन स्वास्थ्य केन्द्रों में विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता तथा दवा और जांच की व्यवस्था सुनिश्चित कराने की है. लेकिन अहम प्रश्न यह कि डॉक्टरों, नर्सिंग स्टाफ तथा तकनीशियनों की भारी कमी के चलते क्या सरकार देश के 80 फीसदी ग्रामीण आबादी को इन स्वास्थ्य केन्द्रों के बलबूते गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के अपने लक्ष्य में कामयाब हो पायेगी?

भारत में लगभग 5 लाख एलोपैथिक डॉक्टरों की कमी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन यानि डब्ल्यू.एच.ओ. के मानक के अनुसार 1000 आबादी पर डेढ़ एलोपैथिक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन भारत में यह अनुपात 1681 लोगों के लिए एक डॉक्टर का है. छत्तीसगढ़ में महालेखाकार की हालिया रिपोर्ट के अनुसार यह अनुपात 17000 आबादी पर एक डॉक्टर का है. इस लिहाज से छत्तीसगढ़ जैसे विकासशील राज्य के लिए यह स्थिति चिंताजनक है. दुनिया के दूसरे सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत में कुल 9.59 लाख पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टर हैं जबकि आबादी के हिसाब से साल 2020 तक देश को 4 लाख डॉक्टरों की जरूरत होगी.

हमारे देश में हर साल 55000 एमबीबीएस तथा 25000 पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर तैयार हो रहे हैं. इन परिस्थितियों में साल 2020 तक एलोपैथिक डॉक्टरों की कमी को पूरा किया जाना संभव नहीं है. राश्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट के अनुसार कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है. इन क्षेत्रों के स्वास्थ्य केन्द्रों में स्त्रीरोग विशेषज्ञों के 76 फीसदी, शिशुरोग विशेषज्ञों के 82 फीसदी, मेडिसिन के 83 फीसदी तथा सर्जन के 80 फीसदी पद रिक्त है. छत्तीसगढ़ में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 87 फीसदी पद खाली है. दूसरी ओर पर्याप्त सरकारी प्रोत्साहन के बावजूद एलोपैथिक डॉक्टर गांवों में जाना नहीं चाहते हैं, इन्हीं विसंगतियों के चलते राज्य के राजधानी से लेकर दुर्गम ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अप्रषिक्षित यानि झोलाछाप डॉक्टरों ने अपनी जड़ें जमा ली हैं.

दरअसल आज पुराने रोगों के साथ-साथ नित नई जानलेवा बीमारियां जनस्वास्थ्य के लिए मुसीबतें पैदा कर रही है तो दूसरी ओर आज भी देश की एक बड़ी आबादी खस्ताहाल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर ही निर्भर है. लेकिन जब सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टर और स्वास्थ्य सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं होंगी तो उन्हें मजबूरीवश तथाकथित झोला छाप डॉक्टरों के शरण में जाने के लिए बाध्य होना ही पडे़गा है.

‘द हेल्थ वर्कफोर्स इन इंडिया’ नाम की रिपोर्ट बताती है कि भारत में एक लाख की आबादी महज 80 डॉक्टरों के भरोसे है, इनमें से 36 डॉक्टर ऐसे हैं जिनके पास एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक या यूनानी जैसी कोई मान्य मेडिकल डिग्री नहीं है यानि ये अप्रशिक्षित फर्जी डॉक्टर हैं, जो महज हायर सेकेंडरी या उससे कुछ कम पास हैं.

ऐसी स्थिति में डॉक्टरों की कमी और अनुपलब्धता तथा आम लोगों के सेहत को केन्द्र में रखते हुए अस्पष्ट एवं पूर्वाग्रह युक्त कुछ नियमों को राष्ट्रहित में शिथिल करना आज की जरूरत है. इस लिहाज से देश में कार्यरत आयुष यानि आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी तथा योग व प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों के डॉक्टरों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवा के मुख्यधारा में लाना जनहित में होगा.

भारत में आयुष पद्धति के लगभग 6.77 लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं यदि एलोपैथिक व आयुष पद्धतियों के कुल पंजीकृत डॉक्टरों को मिला दिया जाये, तो हमारे देश में आबादी के अनुपात में डॉक्टरों की उपलब्धता 893 लोगों पर एक डॉक्टर की होगी. आयुष चिकित्सकों की इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद इस मानव संसाधन के क्षमताओं का पूर्णरूपेण उपयोग नहीं किया जा रहा है. जबकि ये चिकित्सक सामान्य रोगों के उपचार, मातृ व शिशु स्वास्थ्य, राष्ट्रीय कार्यक्रमों, गैर संचारी तथा आधुनिक जीवनशैली गत रोगों के उपचार व रिफरल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.

गौरतलब है कि आयुष पाठ्यक्रमों में मूल वि.य यानि आयुर्वेद तथा होम्योपैथिक इत्यादि विषयों के अलावा एलोपैथिक के विषयों की पढ़ाई, परीक्षा तथा प्रशिक्षण शामिल रहते हैं. इसलिए इन डॉक्टरों को अपने मूल चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ आवश्यकतानुरूप एलोपैथिक दवाओं के प्रयोग का अधिकार उस समय तक दिया जाना उचित होगा, जितना उन्होंने अपने पाठ्यक्रम में शिक्षण व प्रशिक्षण प्राप्त किया है. साथ ही उन्हें समय-समय पर आधुनिक चिकित्सा पद्धति का प्रशिक्षण इत्यादि देकर अद्यतन रखा जा सकता है.

तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस व्यवस्था को लागू करने की लगभग पूर्ण तैयारी कर ली थी, लेकिन इस प्रस्ताव में मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया यानि एमसीआई तथा इंडियन मेडिकल कौंसिल यानि आईएमए लगातार रोड़ा बने हुए हैं. इन संगठनों का विरोध आठवीं या बारहवीं पास मितानीनों व जनस्वास्थ्य रक्षकों के द्वारा एलोपैथिक दवाओं के वितरण व्यवस्था की पृश्ठभूमि में बेमानी है.

बहरहाल एमसीआई और आईएमए के आयुष चिकित्सकों द्वारा ऐलोपैथिक दवाओं के प्रयोग के विरोध की पृष्ठभूमि में चिकित्सा मानक व व्यवसायिक हितों की सुरक्षा भी हो सकती है लेकिन वर्तमान आवश्यकताओं के मद्देनजर सरकार को दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति प्रदर्शित करनी होगी. हालांकि उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड तथा मध्यप्रदेश जैसे राज्यों ने उक्त विरोध को दरकिनार करते हुए अपने राज्य में आयुष चिकित्सकों को एलोपैथिक दवाओं के सीमित प्रयोग का अधिकार दे दिया है तथा छत्तीसगढ़ में भी इस प्रकार के निर्णय की दरकार है. गौरतलब है कि नयी स्वास्थ्य नीति में आरोग्य और रोग प्रतिरक्षण पर सर्वाधिक जोर दिया गया है.

इस कसौटी में आयुर्वेद तथा योग जैसी अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां शत-प्रतिशत खरा उतरती है. आज आवश्यकता देश में समन्वित यानि इंट्रीग्रेटेड चिकित्सा पद्धति की है, जिससे सभी चिकित्सा पद्धतियों के अचूक नुस्खों को शामिल कर नयी चिकित्सा व्यवस्था अपनायी जाये. आयुष प्रणाली और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के बेहतर तालमेल से देश के बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं में आशातीत सुधार होगा, वहीं वैश्विक स्तर पर यह नये हेल्थ मॉडल के रूप में स्थापित हो सकता है. सरकार के इस निर्णय से लोगों को सस्ता, सुरक्षित और सुलभ स्वास्थ्य सुविधा भी मुहैया हो सकती है.

* लेखक आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में व्याख्याता हैं.

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