प्रसंगवश

बजट बनाने का हक किसका?

बादल सरोज
बजट का पेश होना, उसकी रोचक झलकियाँ और फुलझड़ियाँ बड़ी खबर बनती हैं. कभी-कभार गहरी बहस और विश्लेषण भी पढ़ने में आ जाता है. मगर जो अक्सर चर्चा तक में नहीं आता उस पहलू पर एक सरसरी निगाह डालना भी सामयिक है. और वह है बजट के बनाये जाने की प्रक्रिया और बनाने वालों में उसके लिए समुचित दक्षता अथवा उसका अभाव.

संसदीय लोकतंत्र के अपने सुख दुःख हैं. उनमे से भी भारत के संसदीय लोकतंत्र के तो अपने कुछ ज्यादा ही चमत्कारिक आयाम हैं. यहां किसी भी विभाग का मंत्री होने के लिए न तो अर्हता का कोई मापदंड है ना उसके लिए ट्रेनिंग या प्रशिक्षण का कोई प्रावधान है. शिक्षा से सर्वथा परहेज रखने वाले शिक्षामंत्री बन सकते हैं !! थानों के इतिहास में मय फोटो के पाये जाने वाले पुलिस और गृह मंत्री बन सकते हैं !! जिन्हें हर्र बहेड़ा चिरोंजी और तेन्दू पत्ता तथा पीपल पत्ते का फर्क नहीं पता होता वे वनोपज का मंत्रालय संभालते पाये जाते हैं तो जिन्हें रबी-खरीफ की फसलों के मौसम तक नहीं मालूम होते वे कृषि मंत्री बनाये जा सकते हैं.

ठीक है, संसदीय लोकतंत्र की अपनी डायनामिक्स होती है. यहां चुनकर आये समूह में से ही चुनाव करना होता है. किन्तु ऐसे में तो और अधिक हो जाता है प्रशिक्षण- मगर शायद ही कभी ऐसा देखा गया हो कि कोई मंत्री जी शपथ लेने के बाद महीना दो महीना अपने विभाग से जुड़े विषयों पर पढ़ने-जानने के लिए बैठे हों.

यहां निर्वाचित और पदासीन माननीयों की योग्यता पर संदेह करने का इरादा कतई नहीं है. अपनी अपनी रुचियाँ होती हैं- काबलियत के अपने अपने दायरे होते हैं. लता मंगेशकर की गायन पारंगतता न भूतो न भविष्यति है. किन्तु लता जी से यह अपेक्षा करना कि वे लियोनेल मेस्सी के साथ फुटबाल में या सानिया मिर्ज़ा के साथ टेनिस में बराबरी करें, उनके साथ ज्यादती होगी. न खेलें फुटबॉल, टेनिस, न गायें सुमधुर गीत किन्तु वित्तमंत्रियों से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे अपने काम से जुडीं हुयी नवीनतम जानकारियों से खुद अवगत हों, अद्यतन हों. आखिर बजट कोई बहीखाता नहीं है.

यह हानि-लाभ की बैलेंस शीट भी नहीं है. बजट; फौरन के दाना-पानी, कल परसों के फौरी इंतजाम और दूरगामी भविष्य के लिए खूब पुख्ता नींव रखना है. बजट; खूब व्यवस्थित तरीके से बुना गया ऐसा परिधान है जो अगली कई वर्षों तक की संभावित देहयष्टि वृद्दि के अनुपात में अनुकूलन की क्षमता से पूर्ण हो. बजट “फुल बॉडी स्कैन” है और इसका काम “क्यूरेटिव” भी है. “प्रिवेन्टिव” भी मतलब उसे बीमारियों का निदान ही नहीं समाधान भी करना है. बजट का काम सिर्फ रोग दुरुस्ती की दवा की व्यवस्था करने के साथ ही भविष्य में रोग होने की नौबत ही न आये इसके लिए प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने का इंतजाम करना भी है.

यह जानने की उम्मीद रखना एक तरह से लोकतंत्र का विस्तार ही है कि बजट तैयार और प्रस्तुत करने वाले अपनी विधा में कितने पारंगत है. क्या उन्होंने एडम स्मिथ को पढ़ा है? मार्क्स भले न पढ़े हों मगर रिकार्डो और कीन्स को भी पढ़ा है कि नहीं? चलिए इन्हे पुराना मानकर छोड़ देते हैं. मगर वैश्वीकरण के इस जटिल बीहड़ में अगर कुछ कदम भी चलना है तो नवउदार अर्थशास्त्र के पुरोधा जोसफ स्टिग्लिट्ज़ के लिखे में तो झांकना जरूरी हो जाता है. वैश्विक मंदी अगर हमारी गंज बासौदा तक की मण्डी में व्यापी हुयी है तो उसके सिद्द विशेषज्ञ नोबल पुरूस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन की सारी 32 नहीं तो सबसे ताजी “एन्ड दिस डिप्रेशन नाउ” शीर्षक वाली किताब तो देखनी ही चाहिए.

कल्याणकारी राज्य और समर्थ ढांचागत विकास के विशेषज्ञ माने जाने वाले अर्थशास्त्री नोबल विजेता अमर्त्य सेन तो भारत के ही हैं, विकासशील दुनिया के अनेक देश उनके सूत्रों का पालन कर रहे हैं, हम भी यदि उनके सुझाये विधि-विधानों पर नजर डाल लेंगे तो कुछ बिगड़ेगा नहीं. अब बजट की लैंगिक संवेदनशीलता सिर्फ नारा नहीं रही. जेंडर इंसेन्सिटिव बजट कमजोर माँ ही नहीं बीमार समाज भी देते हैं. इससे मुक्ति पानी है तो सुश्री बारबरा बर्गमान की प्रस्थापनाये समझनी होंगी. अर्थशास्त्र के नारीपक्ष की वे असाधारण विशेषज्ञा थी, इंटरनेशनल असोशिएशन ऑफ़ फेमिनिस्ट एकनॉमिस्ट्स की अध्यक्षा थी. वे बिलकुल पुरानी नहीं हैं, पिछली अप्रैल में ही उन्होंने दुनिया छोड़ी है.

एक तबके को इन सब पाश्चात्य और असंस्कारी स्त्री-पुरुषों से सीखना अराष्ट्रीय लग सकता है (हालांकि इसी तबके के महानायकों ने अभी कल ही मुम्बई में “मेक इन इंडिया” के “लालफ़ीता हटाओ-लालकालीन बिछाओ” का सचमुच में करोड़ों रुपये फूंक कर किया गया उत्सव इन्ही पाश्चात्य और असंस्कारियों और उनकी लालची आवारा पूंजी को लुभाने के लिए था.) खैर उनकी भावनाओं का आदर करते हुए भी रास्ते निकाले जा सकते हैं. नियोजन और संतुलन समझने के लिए तक्षशिला के प्रोफ़ेसर विष्णुगुप्त जिन्हे कौटिल्य और चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, का कोई दो हजार साल पुराना अर्थशास्त्र पढ़ा जा सकता है. मनु महाराज को धारे धारे घूम रहे बंधुओ से जुड़े वित्तमंत्रियों से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे सेवायोजक-योजित के रिश्तों के प्रबंध हेतु शुक्र-संहिता पढ़ लें. सूखे और अकाल में किसानों के साथ किस तरह का बर्ताब किया जाए इसके लिए शिवाजी महाराज की चिट्ठी काम आ सकती है.

आखिर बजट के जरिये करोड़ों लोगों के आज और आगामी कल और देश-प्रदेश के दूरगामी भविष्य का नक्शा बनाया जा रहा है – थोड़ी बहुत तो विशेषज्ञता होनी ही चाहिए. विकसित पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्रों में छाया मंत्रिमंडलों का रिवाज़ है. विपक्ष भी अपने मंत्री बनाकर रखता है जो अपने अपने दायित्वों के बारे में अद्यतन होते रहते हैं- भारत में संसदीय लोकतंत्र अभी तक मायावी ही बना हुआ है.

प्रश्न उठता है कि फिर ऐसी स्थिति में बजट बनाने में मुख्य भूमिका किसकी होती है? भारतीय नौकरशाही की? शायद नहीं क्योंकि यह नौकरशाही भी गजब की प्रजाति है – कल जो राजस्व में थे वे आज हथकरघा में तो परसों कुक्कुट पालन या मत्स्यविकास निगम में बैठे पाये जाते हैं और अपने विभाग के विशेषज्ञ माने जाते हैं !!! बजट बनाते हैं कुछ अदृश्य हाथ- अंततः इस कमजोरी का लाभ उठाते हैं वे बड़े पूंजी घराने जिनके पास इस तरह के वेतनभोगी विशेषज्ञों-जानकारों की फ़ौज होती है.

नतीजे में हर साल परनाला उन्ही के जलाशय को भरने के काम आता है. चाबी बनाने का काम उन्हीं को मिल जाता है जिनसे हिफाजत की खातिर तालों की जरूरत पडी थी. वक़्त आ गया है जब इस विसंगति से बाहर आने का कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए. जिस तरह बजट के एक दिन पहले आर्थिक समीक्षा और सर्वे रिपोर्ट आती है, वैसे ही उसके एक महीना पहले उसे बनाने वालो का प्रोफाइल सार्वजनिक किया जाना चाहिए.

पुनश्चः 1977 में 21 जून को ज्योति बसु के जिस पांच सदस्यीय मंत्रिमंडल ने शपथ ली थी उनमे एक नाम डॉ अशोक मित्रा का भी था. वे न सीपीएम के सदस्य थे न राजनेता थे. किन्तु वे इतने मेधावी और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री थे तबकी प्रधानमंत्री ने उन्हें अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया था और डॉ मनमोहन सिंह उन्हें तकरीबन गुरु मानते थे और बाद के उनके सांसद काल में उनके घर से कपडे उठाकर ले जाया करते थे ताकि वाशिंग मशीन में धुलवा कर लौटा जाएँ. अपनी पसंद पर उठे सवालों के जवाब में ज्योति बाबू ने कहा था कि वित्त मंत्रालय विशेषज्ञता की दरकार रखता है. डॉ मित्रा इसके लिए योग्यतम है.

इतिहास गवाह है कि उस सरकार ने जो आर्थिक बुनियाद रखी वह 34 साल तक वाम को बंगाल में अडिग अविचल बनाये रखने वाली थी. इस कारण से पूछा जाना चाहिये कि बजट कौन बना रहा है और उसका अनुभव कितना है? जाहिर है कि बजट की दिशा से देश के आगामी दशा का सहज अंदाज लगाया जा सकता है. इससे आगे हम कुछ नहीं बोलेंगे, अगर बोलेंगे तो बोलोगे कि यह बोलता है.

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