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बस्तरः गोली का जवाब गोली से

नथमल शर्मा
बस्तर के जंगलों में और गोलियां चलेगी. बारूद से फिर भर जाएंगे घने जंगलों में बसे माड़. अभी तक एकतरफा गोलियां चल रही थी. अब दोनों तरफ से धांय. सरकार ने तय किया है कि गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा.

बरसों से बस्तर सुलग रहा है. सारी विकास योजनाएं जलकर खाक हो जा रही है इस आग में. इस आग में हजारों लोग जल गए. हमारे जांबाज जवान, प्रकृति पुत्र आदिवासी,लोकतंत्र की सेवा कर रहे राजनेता. किसी को भी नहीं छोड़ा इस आग ने. हमारे बस्तर पर इस मामले को लेकर भी बहुत अध्ययन हुए. वहां शांति और सौहार्द्र स्थापित करने की कोशिश होती रही. हो रही है. इस कोशिश में करोड़ों/अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं.

नक्सलियों के आने के भी बहुत पहले हमारे बस्तर के लोग सिपाही,रेंजर और पटवारी से बहुत डरते थे. जंगल में मंगल के लिए लगातार इनकी सेवा में रहते थे. बस्तर की सांवली-सलोनी और बिलकुल निश्छल ह्रदय वाली युवतियां कब शहरों की शिकार हो जाती थी वे ही नहीं समझ पातीं थी. उस समय भी बस्तर जल ही तो रहा था. उस समय बस्तर देखने की चीज था. आज बस्तर डरने का नाम है. जंगलों में रहने वालों और बाहर वालों के लिए भी. हां,बस्तर के गांवों में/शहरों में पदस्थ ब्यूरोक्रेट्स के लिए बस्तर सेवा के साथ मेवा की जगह था. आजादी के पहले से ही बस्तर के घने जंगलों के सुकून पर नज़र लग गई थी. इसलिए भी कि वहां प्रकृति का अकूत खजाना भी छिपा है.

ऐसे हालात में “विकसित” होते रहा बस्तर “लुटते” ही रहा. इस दौरान नक्सली दस्तक हुई बस्तर में. उस समय राजधानी बहुत दूर भोपाल में थी और राजनीति की शतरंज में हम छत्तीसगढ़ के लोग प्यादे से ही रहे. भले ही हमने तीन मुख्य मंत्री दिए और मंत्रियों की फौज भी. लेकिन बस्तर के लोग ऊंट की तिरछी चाल या घोड़े के ढाई घर कभी समझ ही नहीं पाए. वैसे भी किसी राजा को मात देना आसान नहीं होता और उस समय तो हमारे राजा और सारे वज़ीर बहुत दूर श्यामला पहाडिय़ों पर थे. बस्तर सहित छत्तीसगढ़ उनकी चालों में उलझते रहा. पिटते रहा. इसलिए बस्तर के जंगलों की बात भोपाल तक कभी नहीं पहुंची. यह बस्तर की गहन् पीड़ा थी.

फिर अपना छत्तीसगढ़ बना. राजधानी बहुत पास आ गई. मुख्यमंत्री और सारे मंत्री छत्तिसगढ़िया. खूब जश्न हुआ अपने राज का. बस्तर को भी उम्मीद जगी कि जंगलों में भरी बारूद खत्म होगी और मांदर की आवाज़ फिर गूंजेगी. सड़कें बनेगी. स्कूल और अस्पताल भी. सरकारी खजाने से बहुत रुपये गए बस्तर. बहुत अफसर भी. नेताओं की फौज और समाज सेवी संस्थाएं भी ऊग गई. सब मिलकर बस्तर के विकास में जुट गए. सत्रह बरस से जुटे हैं. पर विकास है कि होता ही नहीं.

राजनीति के लिए बस्तर आदिवासी सीटों वाला क्षेत्र है और भारतीय जनता पार्टी को नाज़ है कि इन सीटों पर उसका कब्जा है. सरकार के सुराज अभियान वहीं से शुरू होते हैं. इधर कांग्रेस को तकलीफ है कि इन आदिवासी सीटों पर उसका कब्जा नहीं है और कोशिश रहती है कि कब्जा हो जाए. इस नाज़ और तकलीफ के बीच भी बस्तर पिस रहा है. राजधानी भले ही पास आ गई पर बस्तर के जंगलों से बारूदी खौफ कम नहीं हुआ.

इस बरस की चिलचिलाती धूप में भी सुराज अभियान चल रहा था/है. इसी दौरान जंगल में धमाके हुए. हमारे पच्चीस जवान मारे गए. नक्सलियों ने गोलियां चलाई. रायपुर,दिल्ली सब हिल गए. दुख और गुस्से से भरे गृहमंत्री आए. उन्होंने इस कायराना हरकत की एक बार फिर निंदा की. हाँ,पहली बार इसे वामपंथी उग्रवादियों की कार्रवाई बताई और कहा कि अब रणनीति बदलेंगे. हाँ यह भी कहा कि सेना नहीं उतारेंगे.

कल दिल्ली में बैठक ली. प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हुए. रणनीति बदल दी गई. अब गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा. अब खदेड़ दिया जाएगा नक्सलियों को या उग्रवादियों को. अभी तक शायद गोली का जवाब गोली से नहीं दिया जा रहा था. कुछ नरम थी सरकार. हाँ,बस्तर की बात करने या हस्तक्षेप की कोशिश करने वालों के प्रति कड़क रही सरकार. ठीक भी है कानून व्यवस्था सम्हालना सरकार का काम है.

चिंतक,विचारक बेकार में अपनी सलाह देकर अड़ंगेबाजी करते रहे. यह ठीक नहीं. गोली का जवाब गोली से यानी बातचीत की संभावनाएं खत्म. यह स्थिति एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में बहुत भयावह है. हम जनता है. साधारण लोग हैं. हम तक सारी खबरें आती नहीं. सरकार को सब पता होता है. नोट शीट्स मे लिखकर सारी बातें सरकार को बताते हैं अफसर. ये फाइलें गोपनीय भी होती हैं. इसलिए हम भरोसा करके चलें कि सरकार के पास ऐसी रिपोर्ट होगी कि बातचीत से बात बनने के दिन गए. देश में कोई गांधी भी तो अब नहीं. गांधीवादी भी नहीं. कौन बात करे ? इसलिए गोली से जवाब देना जरूरी है. ऐसा सरकार सोच रही है. सोच क्या रही है तय ही कर लिया है.

हम उम्मीद करें कि गोलियां कम से कम चले. लोग सिर्फ घायल ही हों. कोई ना मरे. पर ऐसा होता है क्या ? गोलियां दोस्त-दुश्मन किसी को नहीं पहचानती. तभी तो नंदकुमार पटेल और उनके मासूम बेटे को नहीं पहचानी. नहीं पहचानी उत्तर प्रदेश,बिहार और देश भर से बस्तर की सेवा में जवानों को. गोलियां नहीं पहचानती बस्तरिया बेटे-बेटियों को. सलवा जुड़ूम या घोटुल किसी को नहीं पहचानती गोलियां. बस्तर की बेहतरी सब चाहते हैं.

उम्मीद करें कि जल, जंगल, जमीन सब बच जाए और बस्तर भी. यह तय है कि यह बचना हमारी चुप्पी और बंदूक की गोलियों दोनों से ही संभव नहीं. बस्तर को आज भी पीने का साफ पानी चाहिए. बेमौत मरते लोगों को इलाज भी और जंगलों की स्कूलों में अनार का अ की जरूरत, ग से गणेश की ना कि गोलियों की. सरकार काम कर रही है और हम चुप है. इसलिए बस्तर में गोलियों से समाधान की कोशिश होने लगी है. साहिर लुधियानवी की पंक्तियाँ याद आतीं हैं- जंग तो सिर्फ बर्बादी ही करती है.

*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इवनिंग टाइम्स, बिलासपुर के संपादक हैं.

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