विविध

गुस्से और बदले से परे

हम कैसे अपने ही कुछ लोगों के खिलाफ चलाए जा रहे भारत सरकार के इस युद्ध को रोकने की शुरुआत कर सकते हैं?

भारत के आंतरिक युद्ध में दोनों तरफ जो मारे जाते हैं, वे इसी देश के नागरिक हैं. लेकिन 24 अप्रैल, 2017 को सुकमा की घटना के बाद बड़े मीडिया घरानों और सरकारी अधिकारियों की प्रतिक्रिया को तुलनात्मक तौर पर देखना जरूरी है. 24 अप्रैल को सीआरपीएफ के 25 जवान मारे गए. माओवादियों की ओर से कहा गया कि यह हमला 13 अक्टूबर, 2016 के आंध्र प्रदेश के ग्रेहाउंडस द्वारा ओडिशा के मलकानगिरी में की गई उस कार्रवाई के जवाब में किया गया है जिसमें 24 माओवादियों की जान गई थी.

सुकमा की घटना के बाद मीडिया और सरकार में गुस्सा और बदले की भावना दिखी और मलकानगिरी के बाद चुप्पी. लेकिन अब वक्त आ गया है कि भारत के अंदर सरकार और माओवादियों के बीच चल रहे इस युद्ध के बारे में बात की जाए. मलकानगिरी में अचाकन हमला करके 24 गुरिल्ला लड़ाकों को मारा गया. सुकमा में भारी शस्त्र बल के साथ तैनात जवानों को मारा गया. इसमें उनके पिछले तीन से पांच साल की तैनाती की वजह से व्याप्त खामियों को फायदा उठाया गया.

सरकार यह दावा करती है वह उग्रवादियों से मुकाबला करके उनके इलाकों में भी कानून का राज स्थापित करना चाहती है. लेकिन वे कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं जो अजीब हैं. इनमें ‘युद्ध जैसी स्थिति’, ‘सैन्य अभियान’, ‘क्षेत्र पर प्रभाव’ और ‘रोड ओपनिंग पार्टी’ शामिल हैं. जो लोग भी नक्सली अपराधों के आरोप में बस्तर के जेल में बंद आदिवासियों की मदद करने आते हैं उन्हें पुलिस बुरी तरह परेशान करती है. चाहे वे वकील हों, पत्रकार हों या सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हों.

बस्तर क्षेत्र में सरकार के पास तकरीबन 80,000 जवान हैं. जबकि नक्सलियों के पास पुरुष-महिला सब मिलाकर 4,000 लड़ाके हैं. दरअसल, बस्तर में जो चल रहा है वह एक ऐसा युद्ध है जिसमें सरकार न सिर्फ नक्सलियों के खिलाफ लड़ रही है बल्कि उन आम आदिवासियों पर भी बल प्रयोग कर रही है जो नक्सलियों की मदद कर रहे हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो सरकार एक ऐसी लड़ाई अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ रही है जिसमें न तो कानून लागू होता है और न ही युद्ध के नियम.
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अगर युद्ध राजनीति का अलग माध्यम से विस्तार है तो हमें यह पूछना पड़ेगा कि सरकार और माओवादी का वह राजनीति आखिर है क्या जिसके लिए यह लड़ाई लड़ी जा रही है? सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि वह ‘विकास’ करना चाहती है और माओवादी इसे रोकना चाहते हैं. विकास से सरकार का मतलब है जंगलों में सड़कें बनाना, स्कूल बनवाना, स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना आदि. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि जंगलों को माओवादियों से मुक्त कराए बगैर खनन में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं आकर्षित किया जा सकता. लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार उनसे भी एक कदम आगे चली गई है.

सरकार ने 1908 के छोटानागपुर टेनेंसी कानून में बदलाव किया है. अब झारखंड के आदिवासियों को वह संरक्षण नहीं मिल पाएगा, जो पहले उपलब्ध था. मोदी सरकार ने वन अधिकार कानून, 2006 के तहत मिले सामुदायिक वन अधिकार को भी खत्म कर दिया है. सरकार ने निजी कंपनियों को उत्तरी छत्तीसगढ़ में खनन करने और इन अधिकारों का उल्लंघन करने की खुली छूट दे रखी है. लगतार हो रहे सड़क निर्माण से भी जंगलों का काफी नुकसान हो रहा है. पश्चिमी सिंहभूम के सारंडा में लौह अयस्क खनन ठीक से हो इसलिए अद्धसैनिक बलों के 17 कैंप बनाए गए हैं.

इस तरह का विकास हमें कहां ले जा रहा है? निश्चित तौर पर हमें सुकमा की घटना पर गुस्सा व्यक्त करना चाहिए. क्योंकि अधिकांश जवान कामगार और गरीब परिवारों से आते हैं. यही पृष्ठभूमि उन लड़ाकों की भी है जो मलकानगिरी में मारे गए थे. लेकिन जवान और लड़ाकों की प्रेरणा अलग-अलग होती है. जो जवान सीआरपीएफ में आता है उसके पास जीवनयापन के लिए इससे अच्छा कोई और विकल्प नहीं है. जबकि नक्सल जवानों का पगार से कोई संबंध नहीं है. वे इस बात से प्रेरित होते हैं कि उन्हें अपनी जमीन और जंगल पर होने वाले कब्जे को रोकना है.

निश्चय ही हम लोगों में से अधिकांश लोग चाहते हैं कि यह युद्ध खत्म हो. लेकिन इसकी अंत की शुरुआत के लिए यह जरूरी है कि हम बस्तर या अन्य इलाकों के आदिवासियों के गुस्से की वजहों को समझें. हमें यह भी समझना होगा कि अपनी जमीन और जंगल बचाने के अभियान का नेतृत्व इन आदिवासियों ने माओवादियों को क्यों सौंप दिया? पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने 2013 में दस सालों के लिए अनुसूचित क्षेत्र में खनन और उद्योग पर रोक लगाने को कहा था. संभवतः यह एक शुरुआत हो सकती है जिसके जरिए उस सच्चाई का सामना भी शुरू होगा जिसे सरकार नजरंदाज करती आई है.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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