राष्ट्र

खिसकते जनाधार को राष्ट्रवाद का सहारा?

नई दिल्ली | बीबीसी: क्या मोदी सरकार अपने खिसकते जनाधार को ‘राष्ट्रवाद’ के सहारे थामना चाहती है? उन्होंने एक साथ अति वामपंथी तथा संसदीय वामपंथी, उदारवादियों से लेकर सोशल डेमोक्रेट सबको राष्ट्रविरोधी करार दिया है. जिससे सभी अपने वैचारिक विरोध को त्यागकर संसद से लेकर सड़कों तक मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट हो गये हैं. हालांकि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता अभी भी देश में सबसे टॉप पर है परन्तु क्या ‘राष्ट्रवाद’ का मुद्दा उन्हें गांव के किसानों का वोट दिला पायेगा जो सूखे से जूझ रहें हैं? कई लोगों का यह मानना है कि सरकार का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पुलिस भेजकर देशद्रोह के आरोपी छात्रों को पकड़ना बेवजह राष्ट्रवादी उन्माद को हवा देना है.

छात्रों पर देशद्रोह का आरोप कथित तौर पर एक ग़लत वीडियो और एक फ़र्ज़ी ट्वीट के आधार पर लगाया गया है. पुलिस कमिश्नर ने इस पर बिना कोई पछतावा जताए छात्रों को अपनी बेगुनाही साबित करने को कहा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी समर्थित वकीलों द्वारा कोर्ट परिसर के अंदर और बाहर छात्रों और पत्रकारों पर हुए हमले पर चौंकाने वाली चुप्पी साध रखी है. ये सारी हिंसक घटनाएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दफ्तर और गृह मंत्रालय से एक मील की दूरी पर हुई हैं.

बीजेपी शासन वाले प्रदेश छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित इलाकों में कथित तौर पर वकीलों और पत्रकारों को अधिकारियों के दबाव में इलाक़ा छोड़कर जाने को मजबूर किया जा रहा है.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बीजेपी समर्थकों ने कथित तौर पर कॉलेज कैंटीन में बीफ़ परोसने को लेकर तूफ़ान खड़ा किया हुआ है. यूनिवर्सिटी प्रशासन ने इससे इनकार किया है.

बीजेपी शासन वाले हरियाणा प्रांत में जाट आरक्षण को लेकर हुए हिंसक आंदोलन में 19 लोग मारे गए हैं.

पाकिस्तान के साथ शांति पहल के तहत मोदी दिसंबर में नवाज़ शरीफ़ से मिलने अचानक लाहौर पहुँच गए थे लेकिन चरमपंथियों द्वारा कश्मीर में एक इंस्टीट्यूट पर हमला करने से लगता है कि इस शांति पहल की धज्जियां उड़ गई हैं.

पिछले महीने पाकिस्तान सीमा के नज़दीक एयरफोर्स बेस पर हुए चरमपंथी हमले की वजह से दोनों देशों के बीच वार्ता रुकी हुई है.

मोदी ने विकास और रोज़गार का वादा किया था लेकिन भारत के लोग अब भी सात फ़ीसदी की दर से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था को महसूस नहीं कर पा रहे हैं.

लेकिन सबसे अधिक भड़काऊ जो बात हुई है, वह है जेएनयू कैंपस में छात्रों की गिरफ्तारी.

आलोचकों ने इसे अभिवयक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए इसकी निंदा की है लेकिन सरकार के मंत्रियों ने अपनी कार्रवाई से पीछे हटने से इनकार कर दिया है और वो ‘राष्ट्रविरोधी तत्वों’ को सज़ा देने पर अडिग हैं.

टिप्पणीकारों ने छात्रों की गिरफ्तारी को ‘राष्ट्रीय शर्मिंदगी’ और मोदी सरकार के लिए ‘ख़ुद के पाले में गोल दागने’ जैसा बताया है.

एक स्तंभकार ने लिखा है कि छात्रों के पीछे पुलिस लगाना ‘कुल्हाड़ी से अखरोट तोड़ने’ जैसा है. एक अन्य विश्लेषक का कहना है कि सरकार इस समस्या के समाधान के बजाए इस ‘संघर्ष को बढ़ा’ रही थी.

द न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि मोदी और उनके राजनीतिक सहयोगी ‘असंतोष की आवाज़ चुप कराने का फ़ैसला’ कर चुके थे.

मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सरकार पर असहमति के स्वर पर असहिष्णुता का माहौल बनाने का आरोप लगाया है. फिर भी मोदी ने अपनी पार्टी की ओर से फैलाए जा रहे राष्ट्रवाद के इस उन्माद पर चुप रहना पसंद किया.

उन्होंने ट्विटर पर भी कुछ नहीं कहा जिस पर अक्सर वो कुछ न कुछ कहा करते हैं.

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तरह मोदी ने भी कुछ दिन पहले कहा कि उनकी सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र किया जा रहा है. इंदिरा गांधी अपने शासन के आख़िरी सालों में यह इल्ज़ाम लगाती रही थीं कि उनकी सरकार को बदनाम करने के पीछे विदेशी हाथ है.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फाइनेंशियल टाइम्स से मोदी की टिप्पणी पर कहा, “मुझे उनका यह व्यवहार अजीब लगा.”

यह साफ़तौर पर तो नहीं कहा जा सकता है कि पिछला हफ्ता मोदी सरकार के लिए उतना ही निर्णायक साबित होगा जैसा दिसंबर 2012 में गैंगरेप के बाद दिल्ली की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन तत्कालीन सरकार के लिए हुआ था.

मनमोहन सिंह ने एक बार कहा था कि उनकी कांग्रेस पार्टी छवि की लड़ाई पूरी तरह से हार चुकी है.

एक टिप्पणीकार के मुताबिक़ मोदी सरकार अपने दूसरे साल में हो सकता है कि अपनी हार का बीज बो चुकी है लेकिन इस तरह की राय देना अभी जल्दबाज़ी हो सकती है.

हाल में हुए एक ओपिनियन पोल से पता चला है कि मोदी अपनी लोकप्रियता खो रहे हैं. हालांकि वह अपने मुख्य प्रतिद्वंदी राहुल गांधी से अभी भी दोगुना लोकप्रिय हैं.

कई के मुताबिक़ कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय दलों का कमज़ोर बने रहना मोदी की सबसे बड़ी ताक़त है. कुछ का यह भी मानना है कि वर्तमान में जो हालात पैदा हुए हैं वे मोदी और उनकी हिंदूवादी पार्टी के लिए फ़ायदे का सौदा है.

मोदी की जीवनी लिखने वाले नीलांजन मुखोपाध्याय का कहना है, “यह बीजेपी को कट्टर राष्ट्रवाद के मुद्दे को फैलाने में मदद कर रहा है. वे कह रहे हैं कि भारत को राष्ट्रविरोधी तत्वों से ख़तरा है. उनकी नज़र में ये राष्ट्रविरोधी तत्व वो हैं, जो उनसे सहमत नहीं या जो उन्हें वोट नहीं करते हैं.”

उन्होंने कहा, “एकबारगी ही उदारवादियों से लेकर सोशल डेमोक्रेट्स तक और संसदीय वामपंथियों से लेकर अति वामपंथियों तक सभी को एक साथ राष्ट्रविरोधी करार दे दिया गया. उनका कहना है कि सभी उनकी इस राष्ट्रवादी सरकार के ख़िलाफ़ लामबंद हो गए हैं.”

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले सुदीप्ता कविराज ने लिखा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का यह उभार समाज के एक तबके में राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ा सकता है.

कविराज का कहना है कि छह दशकों के दौरान अर्थव्यवस्था में हुई वृद्धि ने भारतीय समाज में एक राजनीतिक और सामाजिक रूप से सशक्त मध्यम वर्ग तैयार किया है, जो आगे आर्थिक वृद्धि को बढ़ाने के लिए एक शर्त के रूप में मज़बूत राष्ट्र का हिमायती है.

इस मध्यम वर्ग का एक बड़ा तबका मर्दवादी राष्ट्रवाद के नाम पर मोदी का समर्थन करता है. हालांकि इसे लेकर तस्वीर अभी साफ़ नहीं हो पाई है कि हिंदू राष्ट्रवाद पर भारत के उत्तर और पश्चिमी राज्यों के अलावा देश में और कहीं जन सहमति है कि नहीं.

सबसे अहम यह है कि सरकार की क़िस्मत भारत के गांवों में तय होती है.

दो साल का सूखा, फ़सल की बर्बादी और ग्रामीणों की आमदनी में गिरावट आने से किसान मोदी सरकार से निराश हैं. राष्ट्रवाद का मुद्दा शायद उन्हें किसानों का वोट दिलाने में कामयाब न हो पाए.

नीलांजन मुखोपध्याय कहते हैं कि राष्ट्रवाद हमेशा एक खतरनाक जुआ रहा है. उन्होंने कहा, “इससे यह संकेत जाता है कि आप एक नया भारत बनाना चाहते हैं. यह लोकतंत्र और भारत की छवि के लिए भी बुरा है.” इसी से जुड़ा हुआ एक सवाल है कि वह नया भारत कितने भारतीयों को स्वीकार होगा?

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