प्रसंगवश

भगत सिंह, सावरकर और भाजपा

रायपुर | संजय अग्रवाल: भाजपा एक रणनीति के तहत एक के बाद एक राष्ट्र नायकों पर कब्जा करने के प्रयास में जुट गई है. उसके निशाने पर अब शहीदे आजम भगत सिंह हैं. बावजूद इसके कि भगत सिंह की विचारधारा पूरी तरह से उनके खिलाफ थी. सावरकर और गोड़से के भक्त इस मुगालते में हैं कि भगत सिंह को हथिया लेंगे. अभी तक वे जितना भी गोल गोलकर लोगों को भरमाते रहे हों, मगर सच यह है कि भगत सिंह की वैचारिक और राजनीतिक तासीर बहुत अलग है.

राजनीति का अवसरवादी चरित्र देखिये कि सुविधाभोगी राजनीतिज्ञ शशि थरूर जेएनयू जाकर कन्हैया कुमार के वैचारिक मिजाज और संघर्ष को भगत सिंह जैसा बताते हैं. इसके फौरन बाद उनकी पार्टी कांग्रेस शशि थरूर के वक्तव्य से पल्ला झाड़ लेती है. तो दूसरी तरफ भाजपा को इसमें अवसर दिख जाता है. वह इसे भगत सिंह का अपमान निरूपित करती है. आनन-फानन में भाजपा के रणनीतिकार जुट जाते हैं. भाजपा की स्थानीय इकाइयों को निर्देशित किया जाता है कि 23 मार्च को भगत सिंह के शहादत दिवस पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएं. भाजपा के स्थानीय संगठनों ने यह कार्यक्रम आयोजित भी किए.

यदि तथ्यों पर गौर करें तो भगत सिंह की राजनीतिक विरासत उनके दो नारों में व्यक्त होती है- ‘इंकबाल जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’. आठ अप्रैल, 1929 को असेंबली बमकांड के बाद ये नारे राष्ट्रीय पटल पर छा गए, क्योंकि इससे बिना समझौता किये लड़ते रहने का दृढ़ संकल्प और एक नई सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने की अभिलाषा व्यक्त होती थी.

गांधी, नेहरू, पटेल और अंबेडकर की राजनीतिक विरासत हथियाने में जुटे आज के राजनीतिक दलों खासकर भाजपा में भगत सिंह को छू पाने का सामर्थ्य नहीं है. पूर्व आईपीएस अधिकारी और भगत सिंह के विचारों को आगे बढ़ाने में सक्रिय विकास नारायण राय का मानना है कि भगत सिंह, गांधी समेत तमाम राष्ट्र नायकों से अलग हैं. गांधी की तरह भगत सिंह को भी ईश्वरीय नायक के रूप में प्रतिष्ठित करने वालों की कमी नहीं है. परंतु वे हाड़मांस के ऐसे साधारण मनुष्य थे, जिन्होंने राजनीति, देश प्रेम, गुलामी, आजादी, धर्म, भाषा और जाति जैसे तमाम विषयों पर बेहद मौलिक और तार्किक विचार साझा किए.

इस 23 मार्च को यानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहीद दिवस पर वेब पोर्टल द वायर ने भगत सिंह और विनायक दामोदर सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार के समक्ष दायर पिटीशन के अंश प्रकाशित किये. साल 1931 में लाहौर जेल से दाखिल इस अंतिम अर्जी में भगत सिंह लिखते हैं, ब्रिटिश राष्ट्र और भारत राष्ट्र के बीच युद्ध जैसी स्थिति है. और चूंकि हमने इस युद्ध में हिस्सा लिया है, हम ब्रिटिश किंग जॉर्ज के खिलाफ युद्धरत हैं. इसलिए हम युद्धबंदी हैं. भगत सिंह ने अपनी याचिका में कहीं भी अंग्रेज शासकों से दया की याचना नहीं की है.

दूसरी तरफ सावरकर ने सौ साल पहले 1913 में अंडमान स्थित सेल्युलर जेल से एक याचिका दाखिल की थी. इसके मुताबिक सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत से कहा यदि सरकार मुझ पर एहसान करती है और दया कर मुझे रिहा करती है, तो मैं सांविधानिक प्रगति वकालत करूंगा और ब्रितानिया हुकूमत के प्रति श्रद्धा रखूंगा!

साल 1909 में सावरकर के सहयोगी मदनलाल धींगरा ने वायसराय लार्ड कर्जन की हत्या के असफल प्रयास के बाद सर विएली को गोली मार दी. उसी दौरान नासिक के ब्रिटिश कलेक्टर एएमटी जैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. इस हत्या के बाद ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को 13 मार्च, 1910 को लंदन में कैद कर लिया. ब्रिटिश अदालत ने उन पर गंभीर आरोप लगाये और पचास साल की सजा सुनाई गई. सावरकर को अंडमान जेल भेज दिया गया. जहां से वर्ष 1921 में रत्नागिरी जेल भेजा गया. वर्ष 1924 में उन्हें शर्तों के साथ रिहा कर दिया गया. इस तरह सावरकर कुल 14 साल जेल की सजा काटकर रिहा हो गए.

स्पष्ट है कि स्वंतत्रता प्राप्ति के लिए भगत सिंह तथा सावरकर के लक्ष्य, माध्यम और दृष्टिकोण एकदम अलग थे. जहां भगत सिंह अपने संगठन नौजवान भारत सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के माध्यम से व्यापक भारतीय समाज के लिए भेदभाव रहित, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा को लेकर लड़ रहे थे, वहीं सावरकर के संगठन अभिनव भारत और हिंदू महासभा का दृष्टिकोण सिर्फ हिंदुत्व और लक्ष्य हिंदू राष्ट्र था. जाहिर है कि विविधतापूर्ण भारतीय समाज का हित सावरकर की विचारधारा का हिस्सा नहीं था.

सावरकर की लाइन दरअसल अंग्रेजों के लिए फायदेमंद थी. उनकी फूट डालो और राज करो की नीति को इससे फायदा मिला. यही काम बाद में मुस्लिम लीग ने किया और दो राष्ट्र के सिद्धांत को अमलीजामा पहनाने में अंग्रेज कामयाब रहे. यह इतिहास में दर्ज है कि 15 अगस्त, 1947 को सावरकर सदान्तो में दो झंडे फहराये गए थे. एक भारतीय तिरंगा और दूसरा भगवा. इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सावरकर ने कहा था कि यह खंडित स्वराज है, इसका दुख है. पाकिस्तान बनाने के लिए सावकर पूर्ण रूप से गांधी को दोषी मानते थे.

भगत सिंह और सावरकर दोनों ही स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसा के रास्ते को अनुचित नहीं मानते थे. मगर आजादी के इतिहास का सच यह भी है कि अहिंसावादी महात्मा गांधी ने वर्ष 1920 में सावरकर की रिहाई की मांग ब्रिटिश हुकूमत से की थी. परंतु आठ अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा असेंबली में बम फेंके जाने की घटना की उन्होंने न सिर्फ निंदा की, बल्कि गांधी ने उन्हें आतंकवादी तक कहा था. हालांकि बाद में उन्हीं राष्ट्रपिता की हत्या के आरोपी नाथूराम गोड़से के साथ सावरकर का नाम भी सामने आया था. पांच फरवरी, 1948 को सावरकर को गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया.

इतिहास का अपुष्ट तथ्य यह भी है कि बम धमाकों के लिए भगत सिंह और उनके साथियों ने सावरकर के संगठन अभिनव भारत से सहायता ली. बम बमाने का गुर भी सीखा. मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सावरकर और भगत सिंह का कोई साझा एजेंडा था.

हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब 27 फरवरी, 2014 को अहमदाबाद में बोल पड़े कि भगत सिंह और उनके साथी काफी समय तक अंडमान की जेल में रहे. वे शायद नहीं जानते कि वहां भगत सिंह नहीं, सावरकर थे. यह गलत बयानी मोदी ने आजादी के 75 सालों बाद वर्ष 2022 में भारत, विषय पर आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए कर डाली थी. वैसे इतिहास पर अपनी लचर बौद्धिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन नरेंद्र मोदी कई अन्य मौकों पर भी करते आए हैं.

बहरहाल, भाजपा को यह जरूर साफ करना चाहिए कि भगत सिंह को लेकर एकाएक उसका ह्रदय परिवर्तन कैसे हो गया? धार्मिक मसलों को औजार बनाकर राजनीति साधने वाली पार्टी क्या भगत सिंह के विचार आलेख, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ से सहमत है? क्या भाजपा दक्षिण पंथी हिंदुत्ववादी आरएसएस की विचारधारा छोड़तकर भगतसिंह की मार्क्सवादी वामपंथी विचारधारा को अपनाएगी? क्या भाजपा इंकलाब का नारा लगाएगी? क्या भगत सिंह की विचारधारा दक्षिणपंथ में समा जाएगी? दरअसल यह सभी बातें असंभव हैं. भाजपा यह भूल रही है कि भगत सिंह कोई मोम के पुतले नहीं हैं, जिन्हें मैडम तुसाद के संग्रहालय में नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा कर दिया जाए.

इतिसाह के साथ यह सहूलियत जरूर होती है कि उसे तोड़ा मरोड़ा जा सकता है, किंतु उसे झुठलाया नहीं जा सकता. आरएसएस और भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि उनके पास मौजूदा कद में कोई भी आदमकद नहीं है. यह बौनापन निश्चित ही उसे सालता होगा.

(राजनीतिक विश्लेषक, राजनांदगांव, छत्तीसगढ़, मो. 9425562807)

(प्रस्तुत लेख में विचार लेखक के निजी हैं.)

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