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विचारों की सान पर सिनेमा

बिकास के शर्मा
महान क्रांतिकारी भगत सिंह एवं उनके साथियों ने भारत में अंग्रेजी हूकुमत को न केवल हिलाकर रखा था बल्कि इन युवा क्रांतिकारियों के बौद्धिक कौशल का भी लोहा फिरंगियों ने माना. पढ़ना और लिखना तो अन्य तत्कालीन क्रांतिकारी भी किया करते थे किन्तु भगत सिंह ने पढ़े को अपने ढंग से देश-काल-परिस्थिति अनुसार व्याख्यायित कर कलमबद्ध किया, वो भी महज 23 वर्ष की आयु में. यह खासियत उनको उनके समकालीन क्रांतिकारियों से पृथक करती है और लंबे समय तक उनके विचारों की याद हम सब को दिलाती है.

भगत सिंह पर अबतक करीब दस हिंदी फिल्में बन चुकी हैं, किन्तु उनमें से केवल सात का ही प्रदर्शन मुमकिन हुआ. साल 2002 में कुल पांच फिल्में भगत सिंह पर बनीं, जिनमें तीन ही रिलीज हुई. फिल्म ‘23 मार्च 1931-शहीद’ में निर्देशक गुड्डू धनोवा ने बोबी देओल को भगत सिंह के रुप में प्रस्तुत किया था तो सुकुमार नायर निर्देशित ‘शहीद ए आजम’ में सोनू सूद ने भगत सिंह की भूमिका निभाई थी. किन्तु सबसे प्रमाणिक कार्य जो नाटकीयता से कोसो दूर जाकर तथ्यात्मक था और अपने प्रभावी स्क्रिनप्ले, संगीत और संवाद के लिए जाना गया वह थी फिल्म ‘द लीजेन्ड ऑफ भगत सिंह’. राजकुमार संतोषी निर्देशित इस फिल्म को दो श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्रदान किया गया था. इसी फिल्म ने अभिनेता अजय देवगन को भी ‘लकीर से हटकर’ अभिनेता के रुप में पहचान दिलाई और उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के कई खिताब भी अर्जित करवाए थे. बकौल अजय इस फिल्म ने उनके उपर गहरा असर छोड़ा था और इसके बाद फिल्मों के चयन में वे काफी सावधानी भी बरतने लगे.

गौरतलब हो कि ‘द लीजेन्ड ऑफ भगत सिंह’ ने भी बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखाया था किन्तु अन्य दो फिल्मों के मुकाबले इसे अच्छा प्रतिसाद मिला और फिल्म लेखन से जुड़े लोगों ने इसे भगत सिंह पर किया एक गंभीर कार्य बतलाया था.

जिस वक्त भगत सिंह पर तीन फिल्में एक साथ प्रदर्शित हुईं उस समय ‘आप मुझे अच्छे लगने लगे’, ‘हां मैंने भी प्यार किया है’ सहित अन्य फॉर्मूला सिनेमा की बाढ़ थी और ऐसे में इन तीन फिल्मों का आना सिनेमा में आवश्यक सुधार के लिए की गई पहल के रुप में भी देखा जाना चाहिए. भगत सिंह के विचारों को तो महात्मा गांधी से लेकर पूरी कांग्रेस पार्टी ने हिंसात्मक बताया था, जबकि हिंसा करना ही भगत सिंह सहित उनके संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का मकसद नहीं था. वे शुद्ध रुप से सुधारवादी लोग थे, जो वैचारिक उन्नति एवं दूरदर्शिता को आधार मानते थे. तभी तो एसेम्बली में बम फेंकने के वक्त भी हानिकारक रसायन बम में नहीं डाले गए. वह बम केवल अपने अस्तित्व का अहसास दिलाने के लिए एवं जेल जैसे व्यापक मंच का प्रयोग कर अपने विचार एवं संदेश देशवासियों को देने के लिए फोड़ा गया था.

इस प्रकार यह तीन फिल्में भी फिल्म उद्योग को यह बतलाने के लिए थी कि असल में नायक भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी थे जो पल-पल प्रतिपल खुद को अपडेट करते रहते थे और भारत को एक विशिष्ट पहचान देने की कोशिश में लगे थे. उन्हें भी व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में शामिल हिन्दी सिनेमा को समझने की जरूरत है. इन तीन फिल्मों के पूर्व भगत सिंह पर पाँच और फिल्म हिन्दी में बनी थी जिनमें मनोज कुमार अभिनीत ‘शहीद’ एक महान फिल्म है. तकनीक के अभाव के बीच भी फिल्म एक नाटक या पेंटिंग की तरह दिल में उतरती है और मनोज कुमार का अभिनय और संवाद अदायगी लंबे समय तक याद किया जाएगा.

साल 1930 में भगत सिंह ने एसेम्बली बम काण्ड की सुनवाई के वक्त हाई कोर्ट में खुद की पैरवी करते हुए कहा था कि पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी जिसे वे प्रकट करना चाहते थे.
साल 2007 में प्रकाशित हुई अपनी किताब विद्आउट फियर- द लाईफ एण्ड ट्रायल ऑफ भगत सिंह में लेखक कुलदीप नैय्यर ने लिखा है कि महात्मा गांधी अंग्रेजों पर भगत सिंह एवं उनके साथियों पर से फांसी की सज़ा का हुक्म उठाने हेतु जोर लगाते तो भी अंग्रेज नहीं मानते क्योंकि उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को खत्म करने का निर्णय अटल रखा था. यह बात भगत सिंह भी जानते थे कि पकड़े जाने पर उन्हें फांसी की सज़ा मुकर्रर होगी किन्तु उनका इरादा भी अटल और अकाट्य था तभी चंद्रशेखर आजाद को भी उनके तर्कों को काटने में असुविधा हुई और बम भगत सिंह ने ही बटुकेश्वर दत्त के साथ फेंका.

भगत सिंह पूर्णतः नास्तिक थे किन्तु आज धर्म की राजनीति करने वाले दल भी उन्हें अपना आदर्श मानते हैं, शायद यही तो है दलों के विचार का स्खलन ही तो है. उनके लिए क्रांतिकारी भगत सिंह तो केवल सेल्फी प्वाईंट है और प्रतिरोध का स्वर देश-द्रोह. ‘द लीजेन्ड ऑफ भगत सिंह’ के संवाद लेखक पीयूष मिश्रा है जो यह मानते हैं कि आज भगत सिंह होते तो सच में देख पाते कि कैसे उनकी बात सत्य हुई और गोरों को भूरों ने रिप्लेस कर लिया.

ठीक इसी प्रकार हिंदी सिनेमा की गुणवत्ता को लेकर भी पिछले दो दशक से एक नई बहस छिड़ी हुई है और ऐसे में कुछ वर्ष तक तो कंटेंट और कॉमर्स एक दूसरे के बरक्स खड़े दिखे थे किन्तु विगत आधा दशक से यह रेखा महीन करने में कुछ फिल्मकारों-नागेश कुकनूर, नीरज घेवन, कबीर खान, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप आदि-का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. साल 2006 में राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित ‘रंग दे बसंती’ इसका सबसे बेहतर उदाहरण है जिसमें क्रांतिकारी भगत सिंह एवं साथियों के विचारों को केंद्र में रखा गया था. फिल्म भगत सिंह की बायोपिक न होते हुए भी उनके विचारों के करीब दर्शकों को ले गई और व्यावसायिकता की दौड़ में भी अव्वल रही. क्या ‘द लीजेन्ड ऑफ भगत सिंह’ सहित भगत सिंह पर बनी अन्य फिल्मों ने ‘रंग दे बसंती’ के लिए आधार तैयार किया था? शायद हां. फिल्में भी विचारों की सान पर ही चमकती आई हैं और इसके बदौलत ही उन्हें वैश्विक पहचान मिलती रही है.

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