छत्तीसगढ़छत्तीसगढ़ विशेषताज़ा खबर

जनाना बातें: सर्वाइकल कैंसर जनित अक्षमता में छत्तीसगढ़ नंबर 3 पर

रायपुर | सुदेशना रुहान : ये लगभग रोज़ की बात है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के आंबेडकर अस्पताल और एम्स रायपुर का कैंसर विभाग मरीज़ों से खचाखच भरा रहता है. गहमागहमी इतनी कि अस्पताल में काम करने वालों को थोड़ी देर की भी फुर्सत नहीं होती.

कैंसर के इन मरीज़ों की लंबी फेहरिस्त में एक बड़ा हिस्सा उन महिलाओं का भी होता है, जो सर्वाइकल (गर्भाशय के मुख) के कैंसर से पीड़ित हैं. ये महिलाएं केवल शहरों से नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के सुदूर इलाक़ों से आती हैं. लेकिन यह दूरी इन महिलाओं के जीवन को संकट में डाल रहा है.

इलाज के लिए रायपुर तक पहुंचने वाली ये महिलाएं इतनी दूर से आती हैं कि दोबारा आने से पहले उन्हें दोबारा सोचना पड़े. शायद एक वजह यह भी है कि कुछ महिलाएं इलाज़ अधूरा छोड़ देती हैं. राज्य के दूसरे हिस्सों में कैंसर मरीज़ों के इलाज की अनुपलब्धता इन महिलाओं को तेज़ी से मौत के मुंह में धकेल रही है.

साल 2018 में ‘लांसेट ऑन्कोलॉजी’ ने अपने शोध में पाया कि जिन तीन राज्यों में सर्वाइकल कैंसर जनित अक्षमता सबसे अधिक हैं वे हैं तमिलनाडु, कर्नाटक और छत्तीसगढ़.

2018 का भारत सरकार का एक आंकड़ा बताता है कि राज्य में हर दिन 48 से अधिक लोगों की मौत कैंसर के कारण होती है और साल दर साल इसमें इजाफा होता जा रहा है.

सर्वाइकल कैंसर का इलाज कारगर है, पर इसके लिए ज़रूरी है कि जाँच समय पर हो. ऐसा न होने से इससे जुड़ी जटिलताएँ बढ़ जाती हैं और इलाज़ उतना प्रबल नहीं रह जाता. जीवन की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है.

फरवरी 2021 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने बताया कि देश में पिछले कुछ सालों से महिलाओं में कैंसर की व्यापकता बढ़ी है. भारत में कैंसर की ‘नेशनल रजिस्ट्री प्रोग्राम’ 2020, के तहत सन 2018, 2019, 2020 में क्रमशः 677627, 695072, 712758 मामले सामने आये हैं. 2018 में केवल सर्वाइकल कैंसर के ही लगभग 96,922 नए केस दर्ज़ किये गए.

यह उन महिलाओं की संख्या है जो जाँच और इलाज़ के लिए अस्पतालों तक पहुंचीं. ज़ाहिर है, जो महिलाएं कैंसर ग्रस्त होते हुए भी अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाईं, उनकी संख्या इन आंकड़ों से कहीं अधिक होगी.

विकसित और विकासशील

कैंसर केवल एक बीमारी नहीं, बल्कि कई लक्षणों का मिला जुला रूप है. शरीर में पुरानी कोशिकाओं की जगह लगातार नयी कोशिकाएं जन्म लेती हैं, जिससे कोशिकाओं की संख्या में संतुलन बना रहता है. मगर जब किसी अनुवांशिक, जीवनशैली या संक्रमण की वजह से कोशिकाओं की संख्या में अनियंत्रित बढ़त होने लगती है, तो वह स्थिति कैंसरजन्य हो जाती है.

सर्वाइकल कैंसर का एक प्रमुख कारण है ‘ह्यूमन पैपिलोमा वायरस’ का संक्रमण. आमतौर पर इसे बढ़ी हुयी उम्र में होने वाली बीमारियों में देखा जाता है, मसलन 35-60 वर्ष की आयु वर्ग में. मगर पिछले कुछ सालों में यह 20-21 साल की महिलाओं में भी पाया जाने लगा है.

विकसित देशों में यह चौंथा प्रमुख कैंसर है. पिछले तीन दशकों में लगातार जांच और समय पर मिलने वाले इलाज़ से न केवल इसकी व्यापकता, बल्कि मृत्युदर में भी कमी आने लगी है. उदहारण के तौर पर, यूके में ‘यूनिवर्सल स्क्रीनिंग प्रोग्राम’ के तहत समय पर सर्वाइकल कैंसर की जांच से बेहतर नतीजे सामने आये हैं. इससे न केवल रोग में 50-60% प्रतिशत तक की गिरावट देखी गयी, बल्कि मृत्युदर भी 21-43% तक घट गया.

विकासशील देशों की कहानी इससे उलट है. यहाँ महिलाओं में पाया जानेवाला यह दूसरा प्रमुख कारण है, जिसकी व्यापकता या बढ़ी है, या उतनी ही बनी हुयी है. लगभग 83% नए मरीज़ और 85% मौतें यहीं होती है. दुनिया भर में सर्वाइकल कैंसर से होने वाली मृत्यु एक चौथाई हिस्सा केवल भारत में है.

‘लैंसेट ग्लोबल हेल्थ’ के अनुसार सन 2018 में दुनिया भर में सर्वाइकल कैंसर से होने वाली मौतें सबसे अधिक भारत में ही हुयी हैं. जहां चीन में 106,000 केस के साथ 48,000 महिलाओं की मृत्यु हुयी, वहीं भारत में उसी साल 97000 नए मरीज़ों के साथ 60,000 महिलाओं ने दम तोड़ा है.

शहरी और ग्रामीण

विशेषज्ञ मानते हैं कि सबसे बड़ी समस्या केवल जागरूकता का अभाव ही नहीं, बल्कि सर्वाइकल जैसे विषय पर बात करने की असहजता भी है. झिझक कितनी है, इसे इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अपने घर वालों को इससे जुड़ी असुविधा के बारे में बताने में महिलाओं को महीनों का समय लग जाता है. पितृसत्तात्मक समाज होने की वजह से अक्सर पुरुष भी इसे जनाना विषय और जनाना बातें मानकर बात करने से हिचकते हैं.

भारत में सर्वाइकल कैंसर की चपेट में अधिकतर ग्रामीण महिलाएं होती हैं. इसका सबसे प्रमुख कारण है कम उम्र में विवाह और यौन जीवन की शुरुआत. प्रसव भी कम उम्र में होता है जिससे ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है.

साल 2017 में एक शासकीय मेडिकल कॉलेज ने इस पर अध्ययन किया जिसमें 30-82 की आयु वर्ग और 78% ग्रामीण महिलाओं को शामिल किया गया था.

इस अध्ययन ने पाया गया कि शहरों से दूरी और सीमित आय ग्रामीण महिलाओं को इलाज़ से परहेज़ करने पर मजबूर करती है. यह सही है कि स्मार्ट कार्ड और आयुष्मान जैसी योजनाओं से चिकित्सा की सुविधा काफ़ी हद तक बढ़ गयी, मगर फिर भी ऐसे कई खर्च हैं जो मरीज़ को खुद से करने पड़ते हैं. महिलाऐं पूरी कोशिश करती रहीं कि ऐसे ख़र्चों से बचा जा सके.

यह भी देखा गया कि महिला की वैवाहिक स्थिति इलाज़ के लिए एक बड़ा कारक रही. अविवाहित, विधवा और पति से अलग हो चुकी महिलाएं जांच के लिए सबसे आखरी में आती रहीं. ऐसा ही एड्स पीड़ित महिलाओं के साथ भी रहा.

इससे उलट शहरी और कामकाजी औरतें शुरुआती लक्षणों से ही सतर्क हो गयीं और जांच के लिए अस्पताल में आती रहीं. कहने की ज़रुरत नहीं कि आर्थिक, भावनात्मक और सामाजिक उपेक्षा कैंसर की व्यापकता का बहुत बड़ा कारण है.

बचाव और निवारण

कीमोथेरेपी, ऑपरेशन व् रेडियोथेरेपी सर्वाइकल कैंसर के इलाज में बेहद कारगर हैं. इसके साथ आज एचपीवी वैक्सीन भी उपलब्ध है, जिसे अगर किशोरावस्था में ही (यौन जीवन में प्रवेश से पहले) लगा दिया जाए तो कैंसर के ख़तरे से बचा जा सकता है. लेकिन देश में इसे लेकर चिकित्सकों और सरकारी अफसरों के की भिन्न राय है.

चिकित्सा के लिहाज़ से जहाँ यह बेहद कारगर हो सकता है, वही सरकारी अमला मानता है ऐसा करना युवतियों को सेक्स के प्रति स्वछंदता दे देगा. ये वैसी ही बात है जैसे किशोरों को कंडोम की जानकारी देना, उन्हें सेक्स की और धकेलना होगा.

भारत अनंत संभावनाओं का देश है. मगर साथ ही यह विरोधाभास, शहरी और ग्रामीण जीवन में असमानताओं का भी देश है. कैंसर के इलाज हेतु बेहतरीन तकनीक हमारे यहां मौजूद है. पर जब तक तकनीक, चिकित्सा और सेवा ग्रामीण महिलाओं तक नहीं पहुंचेगी, कैंसर से जीत मुश्किल है. और यह केवल शासकीय और राजनीतिक उत्तरदायित्व के साथ संभव नहीं. हमें भी अपनी ज़िम्मेदारियों का दायरा बढ़ाना होगा. सर्वाइकल कैंसर के संदर्भ में सही जानकारी, टीकाकरण और समय पर इलाज़ एक प्रभावी पहल है.

error: Content is protected !!