छत्तीसगढ़

कासलपाड़ के सवाल?

जगदलपुर | सुरेश महापात्र: लंबी खामोशी के बाद नक्सलियों ने फोर्स पर हमला कर अपनी ताकत का ऐहसास करा दिया है. करीब छह माह से बस्तर में फोर्स की गतिविधियां निश्चित तौर पर दबाव बनाने की दिशा में बढ़ती हुई दिख रहीं थीं. ऐसा लगने भी लगा था कि बदली हुई रणनीति में अब माओवादियों के लिए बड़ा हमला कर पाना पहले जितना आसान नहीं होगा. माओवादियों ने कासलपाड़ में हमला करके यह जता दिया है कि फोर्स की रणनीति से वे एक कदम आगे चल रहे हैं. इस हमले में घायल जवानों के बयान से साफ लग रहा है कि माओवादियों की रणनीति सफल रही. जिसने भांपने में फोर्स नाकाम रही. ऐसा साफ दिख रहा है कि माओवादियों ने सर्चिंग पर निकली पार्टी की हर मुव्हमेंट पर नजर रखने के बाद हमले को अंजाम दिया. साथ ही यह भी जताया है कि उसे अपने ठिकाने पर फोर्स कमजोर ना आंके.

इस हमले के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद बयान दे दिया है. उन्होंने नक्सल समस्या से निपटने के लिए प्रतिबद्धता दर्शाई है. संसद में गृहमंत्री के दिए गए बयान से निकले कुछ सवालों के जवाब किससे मांगा जाए? मसलन क्या वे भी यूपीए टू के गृहमंत्री के तरह ही केवल थोथी धमकियां देते रहेंगे? या मैदान में कुछ दिखाई भी देगा. पहला सवाल यह है कि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के महानिदेशक दिलीप त्रिवेदी ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सल समस्या समाप्त करने को लेकर गंभीर नहीं है. यानी इस मामले में प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह सीधे निशाने पर रहे. प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस बयान को कालर में लगे धूल की तरह झाड़ दिया और कहा कि सीआरपीएफ के महानिदेशक अपनी सेवानिवृत्ति से पहले सुर्खियां बटोरना चाह रहे हैं. इस मामले में गृहमंत्री ने कुछ भी नहीं कहा है. आखिर सीआरपीएफ किसके अधीन है. अगर त्रिवेदी गलत थे तो और सही थे दोनो ही स्थितियों में जवाब के हालात तो थे ही! ऐसा यहां लग भी रहा है कि माओवादी समस्या की आड़ में केंद्र के पैसे का बड़ा खेल चल रहा है. बीआरजीएफ, आईएपी जैसी योजनाओं से मिले बेहिसाब पैसे का हिसाब नहीं मांगा जा रहा है. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बहुधा कागजों में हो रहे विकास कार्यों के लिए कोई मानिटरिंग सिस्टम नहीं है. एक ही काम के लिए कई नामों से मिल रहे शासकीय आबंटन का उपयोग और दुरूपयोग हमेशा से चर्चा में रहा है. शायद यही सवाल सीआरपीएफ के पूर्व डीजी ने उठाने की कोशिश की थी.

उनके बयान के ठीक दो दिन बाद ही छत्तीसगढ़ के कासलपाड़ में सीआरपीएफ माओवादी मोर्चे पर मात खाती है. जिसकी सूचना राज्य सरकार को दिल्ली से मिलती है. छत्तीसगढ़ में जिस जिले में यह एनकाउंटर हुआ, वहां के पुलिस अधीक्षक शाम 6 बजे तक इस प्रकार की किसी सूचना से इंकार करते रहे. इसके बाद ही प्रदेश के एडीजी नक्सल ऑपरेशन आरके विज ने मीडिया के सामने हमले और शहीद जवानों के बारे में जानकारी दी. इसका मतलब नक्सल मोर्चे पर लड़ रही फोर्स और सरकार के बीच कुछ तो गड़बड़ है. जिसे छिपाया जाना निश्चित तौर पर युद्ध के मैदान में घातक साबित हो सकता है.
बड़ी बात यह है कि शाम पांच बजे दिल्ली में मीडिया के पास यह खबर पहुंच चुकी थी कि छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के चिंतागुफा इलाके में नक्सलियों से मुठभेड़ में सीआरपीएफ के दो अधिकारी समेत 13 जवान मारे गए हैं. इस खबर की विस्तृत जानकारी के लिए दिल्ली से पत्रकारों ने फोन खडख़ड़ाया तब यहां जानकारी बाहर आ सकी. जिस समय यह सूचना दक्षिण बस्तर पहुंची तब सुकमा और कोंटा में जानकारी ही नहीं थी. यानी इस घटना के बारे में पूरा सच गृहमंत्री के संसद में दिए बयान से ही सामने आ सका.

गृहमंत्री ने लोकसभा में जो बयान दिया है उसमें मुठभेड़ सुबह साढ़े 10 बजे की बताई गई है. संसद में दिए गए बयान के मुताबिक करीब तीन घंटे तक मुठभेड़ हुई इसमें 14 जवान शहीद हो गए और 14 घायल हुए. यानी दोपहर डेढ़ बजे तक सब कुछ हो चुका था. अगर यह तथ्य सही है तो इसकी सूचना छत्तीसगढ़ सरकार और पुलिस को क्यों नहीं मिली? समय रहते घायल जवानों को लेने के लिए हेलिकाप्टर क्यों नहीं पहुंचा? एसपी को दोपहर दो बजे मुठभेड़ की सूचना मिली? उसमें भी पूरी जानकारी नहीं थी. इसमें सच्चाई क्या है? अगर प्रदेश के मुख्यमंत्री को शाम तक इस मुठभेड़ की सूचना नहीं थी तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? अगर समय रहते सूचना मिल गई थी तो उन्होंने इस हालात से निपटने के लिए पुलिस अफसरों को क्या निर्देश दिए? इन सवालों का जवाब तो लेना ही होगा. आखिर मौतों की गिनती के लिए ही जंगल में फोर्स नहीं बिठाई गई है. बस्तर में होने वाले प्रत्येक माओवादी हमले के बाद केंद्र और राज्य सरकार के बयान हास्यास्पद से लगने लगे हैं. मैदानी हकीकत से दूर राजनीति का आवरण ओढ़े बयानों से ना तो नक्सलवाद खत्म होगा और ना ही कभी सरकार की जीत होगी. सरकार जिस रणनीति पर काम करती दिख रही है उसमें माओवादी हिंसा प्रभावित क्षेत्र के नाम पर ज्यादा से ज्यादा पैसे लाकर विकास करवाना ही रहा है. पर करोड़ों रूपए आबंटन के बाद भी विकास क्यों नहीं हो पा रहा है? इसका जवाब किससे मांगा जाए?

हाल के दिनों में पुलिस ने जिस तरह से माओवादी मोर्चे पर सफलता के लिए दबाव की रणनीति तैयार की है. उसमें भी कई तरह के सुधार की दरकार है. आंख बंद कर चलाए जा रहे आत्म समर्पण अभियान पुलिस को और राज्य सरकार को आत्म मुग्ध तो कर सकते हैं पर समस्या से निजात नहीं दिला सकते. आईजी स्तर से शुरू किए गए समर्पण अभियान की दिशा थानेदार तक पहुंच चुकी है. यह बेहद गंभीर स्थिति है. किस संगठन के किस व्यक्ति को किस आधार पर माओवादी बताकर आत्मसमर्पण के योग्य माना जा रहा है. शायद ही राज्य सरकार ने इसकी तह तक जाने की कोशिश की हो. हमले दर हमले और मौतों के आंकड़ों को गिनते हुए एक और हादसे का नाम माओवादियों की हिंसा में जुड़ गया है. कासलपाड़ हमले से निकले सवाल और कभी प्रदेश के सुरक्षा सलाहकार रहे केपीएसल गिल के बयान के बीच कुछ तो है जो सरकार छिपा रही है. जिसका जवाब हर हाल में मिलना चाहिए. जवाब कौन दे? यही सवाल है.

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