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खदानों की मौतें निर्मिति हैं

बादल सरोज
1 फरवरी की सुबह की पाली में करीब डेढ़ बजे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर अनूपपुर जिले में स्थित बहेराबांध की भूमिगत कोयला खदान धँस गयी और तीन कोयला श्रमिक सहदेव, बिसाहू और रामभरोसे उसके बोझ के नीचे दब कर मर गए. चौथा श्रमिक घायल है और खतरे से बाहर बताया जाता है. खदान एसईसीएल की थी और हसदेव एरिया में आती है. मरने वाले मजदूर हैं इसलिए उनके नाम कभी पूरे नहीं बताये जाते – उन्हें “मर गए” कहा जाता है – शहीद नहीं माना जाता जाता !!

ये चारों – 3 ड्रिलर और एक ड्रेसर – आगे की खुदाई के लिए खदान की ऊपरी सतह, छत को दुरुस्त करने में जुटे थे. पिछली कई दिनों से इस ऊबड़खाबड़ छत से पानी का रिसाव हो रहा था. पानी रोकने और छत समतल करने, दोनों ही काम के लिए ब्लास्टिंग जरूरी थी. ब्लास्टिंग के लिए होल किये जा रहे थे कि धंसक कर टनों कोयला इन चारों पर आ गिरा.

क्या यह एक सामान्य दुर्घटना है ? क्या यह इन चारों की नियति है ? तथ्यों और आंकड़ों पर जाएँ तो उत्तर एक ही है: नहीं. यह नियति नहीं, निर्मिति है. आमन्त्रित की गयी आफत है.

हर साल के 2 महीने, फरवरी और मार्च में खासतौर से कोयला खदाने मजदूरों के लिए मौत का कुआं बन जाती हैं. कोयला प्रबंधन अपने उत्पादन लक्ष्य को पूरा करने और उसे लांघने की बेतहाशा हड़बड़ी में होता है. ज़िंदगियाँ हमेशा मुनाफे और उत्पादन की विलोमानुपाती होती हैं. मुनाफे की देवी इंसानों की बलि मांगती है. कोई भी तटस्थ व्यक्ति किसी भी बैलेंस शीट में तेजी पकड़ते प्रोडक्शन पैटर्न को देखकर हादसा मौतों का या इससे उलट मौतों की संख्या गिनकर उत्पादन की विपुलता का प्रोजेक्शन कर सकता है.

ऐसा नहीं कि कोयले में सेफ्टी के नियम क़ानून प्रावधान नहीं हैं. ढेर सारे हैं. इनके लिए सचमुच में करोड़ों रूपये खर्च करके बाकायदा सप्ताह और पखवाड़े मनाये मनवाये जाते हैं. एक भरापूरा महकमा है जिसे डीजीएमएस कहते हैं. इसकी ड्यूटी ही यह है कि वह बिना पर्याप्त सुरक्षा के किसी भी खदान को न चलने दे. खदान मुहाड़े की पिट सेफ्टी कमेटी से लेकर, एरिया, कम्पनी और कोल इंडिया तक द्विपक्षीय-त्रिपक्षीय सेफ्टी कमेटियां हैं. इनकी वैधानिक और बाध्यकारी हैसियतें हैं. मगर क्या ये सब मिलकर कुछ कर पाती हैं ? एक वरिष्ठ एग्जीक्यूटिव के मुताबिक़ नियमों के लायक न साजोसामान है, न उन उपकरणों को खरीदने के लिए फण्ड का आवंटन. इसलिए अगर सेफ्टी नियमों से चले तो एक टन कोयला पैदा नहीं कर सकते !! तो ? तो जरूरत किस बात की है ? सेफ्टी चाकचौबंद करने की या लाशों के ढेर पर उत्पादन लक्ष्यों की उपलब्धियों के पहाड़ खड़े करने की !!

|| इस यक्ष प्रश्न का उत्तर इस बात से तय होगा कि हमारी प्राथमिकता क्या है ? इंसानी ज़िंदगी या मुनाफ़ा ? ||

कुछ ही सप्ताह पहले झारखण्ड की राजनगर की ओपेनकास्ट खदान में एक भीषण दुर्घटना घटी थी. इसमें कोई तीसेक लाशें निकाली गयीं थी. कुल कितने थे ? पता नहीं !! चूंकि आउटसोर्सिंग/ठेकेदारी कम्पनी ने 1952 के माइन्स एक्ट की धारा और 1955 के माइन्स रूल्स के सम्बंधित प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई थीं और मजदूरों का हाजिरी रिकॉर्ड नहीं रखा था, इसलिए यह नहीं पता कि जब हादसा हुआ उस वक़्त कितने मजदूर मौके पर काम पर थे. चूंकि उनमे से अधिकाँश प्रवासी मजदूर थे, इसलिए यह आंकड़ा साबित करना भी मुश्किल है कि कितने मजदूर मलबे ज़िंदा दफ़न हो गए.

यह खदान असुरक्षित और खतरनाक होने की वजह से 2 महीने से बंद पडी थी. डीजीएमएस ने किस आधार पर उसे चलाने की अनुमति दी- नहीं पता. सार्वजनिक उद्यम के प्रबंधन ने उन्हें मौत के कुंए में धकेलने के लिए क्यों हाँ की – नहीं पता. ज्यादा और ज्यादा उत्पादन की चीख मचा रही सरकार ने इसे क्यों नहीं रोका- नहीं पता. जब तक जिम्मेदारियों और दायित्वों की “नहीं पता” गत नही सुधरेगी तब तक मुनाफे के नोट मजदूर के रक्त की स्याही से छपते रहेंगे. डेढ़ सौ साल पहले एक दार्शनिक कह गए थे; पूँजी का पोर पोर खून और गन्दगी में लिथड़ा होता है.

इसके लिए जरूरी है कि जिम्मेदारियां उच्चतम स्तर पर निर्धारित हों. इस तरह की मौतें दुर्घटना मृत्यु मानना बंद किया जाए, इन्हें जानबूझकर की गयी प्रशासनिक लापरवाहियों के चलते हुयी ह्त्या मानकर उच्च प्रबंधन, डीजीएमएस और मुनाफे की हवस में अंधे होकर जैसे भी हो ज्यादा प्रोडक्शन के लिए हर तरह की छूट देने को तत्पर राजनीतिक नेतृत्व- कोयला मंत्री- के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर उन्हें जेल पहुंचाया जाये. अनगिनत दुर्घटनाओं और हजारों मौतों के बाद भी आज तक एक भी बड़े अधिकारी या अफसर के खिलाफ कार्यवाही न होने का शर्मनाक रिकॉर्ड उलटा जाए. एक बार, फ़क़त एक बार ऐसा करके तो देखिये. मौत का कुंआ बनी कोयला खदाने रोशनी देने वाली सुरक्षित मीनार में बदल जायेंगी.

इन पंक्तियों के लेखक को कोई साढ़े तीन दशक तक कोयला मजदूरों के बीच एक कार्यकर्ता के रूप में काम करने का अवसर मिला है. कई एक बार उनके गेस्ट हाउसेस में रुकते वक़्त बोरियों में भरकर महंगी सुरा की खाली बोतलों को बाहर निकाले जाते देखा है. पूछने पर उपस्थित कर्मचारी की व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ जवाब सुना है: “डीजीएमएस का इंस्पेक्शन था सर. ऐसे ही होता है. “बहेराबांध की मौतों से सबक लेना है तो समूचे एसईसीएल में सेफ्टी ऑडिट किया जाना चाहिए. और सेफ्टी इंस्पेक्शन को पर्यटन और विलासिता का उत्सव बनाकर रख देने पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए..

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