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मुक्तिबोध बिके नहीं, कभी झुके नहीं!

राजनांदगांव | डॉ.चन्द्रकुमार जैन: राजनांदगांव में मुक्तिबोध के असर पर कोठारी जी की नज़र. यह महज़ संयोग नहीं है कि 13 नवम्बर 1917 को तत्कालीन ग्वालियर स्टेट के श्योपुर, जिला मुरैना में जन्में हिन्दी की नई कविता के सर्वाधिक समर्थ कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने दुनिया को अलविदा कहते तक,अपने सृजन-कर्म का सबसे अधिक ऊर्जावान समय राजनांदगांव में व्यतीत किया. इसी तरह यह भी सच है कि दैनिक सबेरा संकेत के प्रधान संपादक और मुक्तिबोध जी के अभिन्न मित्र स्मृति शेष श्रद्धेय शरद कोठारी जी, बाबूजी ने मुक्तिबोध को संस्कारधानी में आमंत्रित कर हिन्दी कविता की बीती सदी के अवदान में अपने शहर का नाम स्थायी रूप से दर्ज़ करवा दिया. अंतहीन दौड़-धूप, आशंका, अनिश्चय और जाने-अनजाने में पैदा होने वाले संघर्ष के बीच मुक्तिबोध जी उज्जैन, इंदौर, बड़नगर, शुजालपुर, कलकत्ता, बंबई, बंगलौर, जबलपुर, बनारस और नागपुर जैसे कई शहरों में अपनी कलमगोई के लिए मुकम्मल जगह की तलाश करते हुए अंततः राजनांदगांव पहुंचे थे.

रास आ गई संस्कारधानी
इतिहास में कभी-कभी ऐसे संयोग घटित होते हैं जिनकी यादें अपने समय की धड़कनों की अमूल्य धरोहर बन जाती हैं. शायद यही वज़ह है कि मुक्तिबोध जी के ज्येष्ठ सुपुत्र रमेश मुक्तिबोध ने 23 अक्टूबर 1970 को मोतीराम वर्मा से हुई एक भेंट में नम्र भावपूर्वक स्वीकार किया था कि जून 1958 में राजनांदगांव से शरद कोठारी आए और उन्होंने दिग्विजय कालेज की स्थिति बतलाते हुए उन्हें लेक्चररशिप के लिए ऑफर किया. मुद्दतों के बाद यह अवसर आया, जिसे वे चाहते थे. एकदम राज़ी हो गए. उनके जीवन का सबसे अच्छा समय, हर दृष्टि से राजनांदगांव का ही रहा. इस छोटी सी जगह से ,यहां के लोगों से और घर के आसपास के वातावरण से उन्हें विशेष मोह हो गया. यूं कहिये कि उन्होंने इन सबसे अपनत्व कर लिया था.

दिग्विजय कालेज के अवैतनिक संस्थापक प्राचार्य रहे पंडित किशोरीलाल शुक्ल जी के शब्दों में भी कालेज में मुक्तिबोध की नियुक्ति के पूर्व शरद कोठारी ने उनकी सिफारिश की थी. उन्होंने कालेज के गार्डन में उनका इंटरव्यू लिया था. शुक्ल जी ने यह भी कहा है कि अध्यापक के रूप में मुक्तिबोध बहुत ईमानदार थे. होमवर्क तक वे बड़े मनोयोग से करते थे. विश्व विद्यालय की कापियां देखते-देखते जब एक बार बहुत व्यस्त थे, तो एक साथी ने मज़ाक कर दिया था कि एक घंटे के काम में एक दिन क्यों लगाते हो ? इस पर वह बिगड़ गए थे – मैं बेईमानी का खाना नहीं चाहता हूँ. याद रहे यह वह दौर था जब मुक्तिबोध जी पर भारी क़र्ज़ था. बावजूद इसके उनकी ईमानदारी एक मिसाल ही कही जा सकती है.

बाबूजी ने बुलाया – मुक्तिबोध आए
तो बात ऎसी है कि सृजन से लेकर जीवन तक ईमानदारी के प्रबल समर्थक रहे मुक्तिबोध के राजनांदगांव और राजनांदगांव में मुक्तिबोध की साझी की दास्तान, हिन्दी कविता और प्रखर बौद्धिकता के साँचे में एकबारगी अपने शहर के ढलने और संवरने वाले दिनों की लाज़वाब यादगार है. बाबूजी की डायरी भी जो इन दिनों सबेरा संकेत में हर हफ्ते नुमायां हो रही है, गवाह है कि उनके भीतर दुनिया में चीज़ों, लोगों और घटनाओं को एक तरफ बेहद संजीदा और सजग विचारक की तरह तो दूरी ओर कवि जैसी कोमल संवेदना के साथ देखने वाली चेतना हमेशा जीवित रही. लगता है, यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के अध्यापन और राजनांदगांव में कालेज के लिए उन्हें गजानन माधव मुक्तिबोध से ज्यादा काबिल व्यक्ति कोई और नज़र नहीं आया. स्मरण रहे इसके पूर्व ये दोनों धुरंधर नागपुर में मिले थे. जी हाँ ! वह ‘नया खून’ का दौर था.

हम बात कर रहे थे राजनांदगांव में मुक्तिबोध और कोठारी जी के सम्बन्ध में. तो यादगारों की पोटली टटोलते हुए 16 से 18 जून 1970 की अलग-अलग मुलाकातों में वर्मा को जो जानकारी उन्होंने दी वह इतिहास के एक अहम दस्तावेज़ से काम नहीं है. प्रसंगवश उस पर एक नज़र और डाल लें – बाबूजी के अनुसार नागपुर में जब वे मारिस कालेज के विद्यार्थी थे तब वहां जाने से पूर्व मुक्तिबोध के सम्बन्ध में उनकी जानकारी नहीं के बराबर थी. बस नाम सुना था. नागपुर में वह बहुत चर्चित थे. वह सूचना तथा प्रकाशन विभाग में काम करते थे.

आडम्बरी शान से कोफ़्त थी उन्हें
आगे कोठारी जी ने जो कहा उन्हीं के शब्दों में देखें – उन दिनों कामायनी के सम्बन्ध में ‘हंस’ और ‘आलोचना’ में प्रकाशित मुक्तिबोध के आलोचनात्मक निबंध तथा मुद्रित ग्रन्थ साहित्य जगत में बहस का विषय बने हुए थे. ‘ नया खून ‘ क्रांतिकारी और प्रगतिशील विचारों का मंच था, जिसमें मुक्तिबोध के लेख, सर्वविदित था कि वह छद्म नाम से लिखते हैं, विशेष सारगर्भित हुआ करते थे. वे कहते हैं – मुक्तिबोध आदमी को पहचानने में बड़े माहिर थे. कोई चमक-दमक दिखाकर या अतिरिक्त आत्मप्रदर्शन से उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता था. आडम्बरी प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्तियों का उन पर कोई असर नहीं था, न दिल से ना ही दिखावे के लिए वे उन्हें आदर दे सकते थे. यह बात बिलकुल दूसरी है कि जब कोई ऐसा व्यक्ति उनके घर पहुँच जाता था तब उसके साथ वे बहुत विनम्र भाव से मिलते थे, चाय, पानी, सुपारी आदि से उसका सत्कार करते थे, इसलिए कि वह अभिमान में नहीं जीते थे, यद्यपि ऐसों से मिलने में उन्हें एक भीतरी कोफ़्त होती थी. वह प्रायः अपने स्तर से बातें करते थे, जिससे नीचे उतरकर मिलना उनके लिए संभव नहीं था. ऎसी स्थिति में विशिष्ट व्यक्ति ही उनके घनिष्ठ बन सकते थे. मुक्तिबोध को फुसलाकर खरीदना किसी के बूते की बात नहीं थी. वह गरीबी के भाव चले गए, अमीरी के भाव बिके नहीं – कभी झुके नहीं.

सबेरा संकेत को दिलायी प्रतिष्ठा
कोठारी जी के अनुसार मुक्तिबोध नागपुर से राजनांदगांव आने की बात पर बहुत प्रसन्न थे. इस तरह मुक्तिबोध के जीवन का अंतिम अध्याय, चलाचली, राजनांदगांव के साहित्यिक-सांस्कृतिक शांत वातावरण में बीता, उनके सृजन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है. यहाँ आकर उन्होंने सुरक्षा की सांस ली और उन्हें यायावरी जीवनवृत्ति से छुटकारा मिला. उनके भीतर स्थायित्व की भावना का उदय हुआ. बाबूजी कहते हैं – मैं यह सब अपनी जन्म भूमि के प्रति श्रद्धा भाव के कारण नहीं कह रहा हूँ, इसके पीछे मुक्तिबोध के साथ बिताये आत्मीय क्षणों की स्मृति और मेरा व्यक्तिगत अनुभव बोल रहा है. यहां उन्हें विद्यार्थियों, सहयोगियों और मित्रों-हितैषियों का बहुत बहुत आदर-प्यार मिला. अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त उनका प्रायः समय लेखन कार्य में बीतता था. अपनी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं का सुधार और निर्माण उन्होंने यहीं रहकर किया. कोठारी जी ने उदार भाव और मुक्त ह्रदय से स्वीकार किया है कि सबेरा संकेत को आज जो प्रतिष्ठा प्राप्त है उसका सारा श्रेय मुक्तिबोध को है. वही मार्गदर्शक थे.

बकौल बाबूजी मुक्तिबोध जिस प्राकृतिक वातावरण से घिरे थे, उन प्रतीकों को ही वे अपनी कविताओं में बड़ी खूबी से खड़ा कर एक जीता जागता काव्य चित्र बना दिया करते थे. इस आलेख के लेखक मानना है कि मुक्तिबोध के कारण हमारा शहर राजनांदगांव भी एक स्थायी जीता जगता काव्य चित्र ही बन गया है. इसके लिए संस्कारधानी सदैव उनकी ऋणी रहेगी.

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