प्रसंगवश

पत्रकारिता का ‘ग्राम सुराज’

डॉ.चन्द्रकुमार जैन
पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, गाँव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है. यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है.लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ कहा जाने वाला आज मीडिया महानगरों और शहरों के आसपास ही सिमटा दिखता है. लिहाज़ा पत्रकारिता में भी अब चलो गाँव की ओर जैसे अभियान की सख्त जरूरत महसूस की जा रही है. हमारा मीडिया इस ज़रुरत की खबर लेकर ग्रामीण जीवन की बड़ी ज़रुरत पूरी कर सकता है.

ग्रामीण परिवेश के प्रति भारतीय जनमानस में गहरी संवेदनाएं हैं. लेकिन, कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्रों को छोड़ दें, तो ग्रामीण पत्रकारिता की स्थिति संतोषजनक कतई नहीं है. दरअसल, यह लाइफ स्टाइल पत्रकारिता का दौर है. भारतीय पत्रकारिता भी इससे अछूती नहीं है. सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश की करीब सवा सौ करोड़ आबादी के लिए दो जून की रोटी जुटाने वाले 70 प्रतिशत ग्रामीण लोगों की ‘लाइफ स्टाइल’ हमारे मीडिया की विषय-वस्तु क्यों नहीं हो सकती. वास्तविकता में मीडिया से गांव दूर होता जा रहा है. गांव, गरीब और उनकी समस्याओं को उजागर करने में मीडिया रुचि नही लेता है. ग्रामीण पत्रकारिता उसी तरह उपेक्षित है, जिस तरह शहर के आगे गांव.

गाँवों के देश भारत में, जहाँ लगभग 80% आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, देश की बहुसंख्यक आम जनता को खुशहाल और शक्तिसंपन्न बनाने में पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है. लेकिन विडंबना की बात यह है कि अभी तक पत्रकारिता का मुख्य फोकस सत्ता की उठापठक वाली राजनीति और कारोबार जगत की ऐसी हलचलों की ओर रहा है, जिसका आम जनता के जीवन-स्तर में बेहतरी लाने से कोई वास्तविक सरोकार नहीं होता. पत्रकारिता अभी तक मुख्य रूप से महानगरों और सत्ता के गलियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है.

ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरें समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती हैं जब किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत से लोगों की जानें चली जाती हैं. ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार पत्रों और मीडिया जगत की मानो नींद खुलती है और उन्हें ग्रामीण जनता की सुध आती जान पड़ती है. खासकर बड़े राजनेताओं के दौरों की कवरेज के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है. फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड़ जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं होती कि ग्रामीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदों को कब, कैसे और कौन पूरा करेगा.

आजादी के साढे छह दशकों में पत्रकारिता ने कीर्तिमान स्थापित किये और नवीन आयामों को छुआ. सूचना क्रांति, विज्ञान एवं अनुसंधान ने संपूर्ण पत्रकारिता के स्वरूप को बदलने में महती भूमिका निभाई है. प्रिंट, इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया का विस्तार तीव्र गति से हो रहा है, लेकिन इन सबके मध्य ग्रामीण पत्रकारिता की सूरत और सीरत में मामूली बदलाव ही आया है. अगर ये कहा जाए कि गांव, गांववासियों की भांति ग्रामीण पत्रकारिता की स्थिति भी चिंताजनक है तो यह गलत नहीं होगा.

सोशल मीडिया ने पत्रकारिता और सूचना जगत को हिला रखा है, बावजूद इसके देश की आत्मा और वास्तविक भारत कहे जाने वाले गांव भारी उपेक्षा के शिकार हैं. ग्रामीण क्षेत्रों की इक्का-दुक्का खबरें ही यदा-कदा राष्ट्रीय पटल पर स्थान पाती हैं. मीडिया का ध्यान महानगरों और शहरों में ही केन्द्रित है. पिछले दो दशकों में पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव तकनीक और सुविधाओं के मामले में देखने को मिले हैं. मीडिया ने राष्ट्र विकास, आम आदमी की आवाज को सत्ता तक पहुंचाने, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को सीमा में रहने और दबाव बनाने का बड़ा काम किया है, लेकिन माफ़ कीजिए लगता है कि इन सबमें पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटक गयी है. लेकिन अभी उससे हमारी बड़ी आबादी की उम्मीदें चूक नहीं गईं हैं. ठीक है कि उसने स्वयं को एक सीमित दायरे में बांध लिया है, किन्तु उसकी प्रतिज्ञा पर सवालिया निशान लगाना कतई उचित नहीं है.

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