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जिम्मेवारी की ज़रुरत

दिवाकर मुक्तिबोध
बिलासपुर के पेंडारी नसबंदी शिविर में ऑपरेशन के बाद 11 महिलाओं की मौत की हृदयग्राही घटना के बाद क्या राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देंगे? या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह उन्हें इस्तीफा देने की हिदायत देंगे अथवा स्वास्थ्य मंत्रालय उनसे छीनने का राजनीतिक साहस दिखाएंगे?

ये सवाल घटना की गंभीरता को देखते हुए सहज स्वाभाविक है और इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सख्त मिजाज है और सरकारी कामकाज में किसी भी किस्म की लापरवाही को बर्दाश्त करने के पक्ष में नहीं है. इसका उदाहरण इस बात से भी मिलता है कि घटना के फौरन बाद केन्द्र ने 5 सदस्यीय विशेष टीम का गठन किया जो घटनास्थल का दौरा करके सही-सही आंकलन करेगी.

जाहिर है केन्द्र ने कानन पेण्डारी नसबंदी शिविर में हुई मौतों के मामलों को बेहद गंभीरता से लिया है तथा राज्य सरकार को स्पष्ट संकेत दिया है कि उसे इस मामले में कठोर कदम उठाने की जरुरत है. राजनीतिक दृष्टि से भले ही मंत्री पर गाज न गिरे किन्तु देर-सबेर उनका विभाग बदल जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इस संदर्भ में हाल ही में केन्द्रीय मंत्रिमंडल के पुनर्गठन एवं विस्तार का उदाहरण देना बाकी होगा. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन मंत्रियों के विभाग बदल दिए जो वांछित नतीजे देने में नाकाम थे. इसमें पेशे से चिकित्सक डॉ. हर्षवर्धन भी शामिल है जिनके पास स्वास्थ्य मंत्रालय था. राज्य में अमर अग्रवाल एक दशक से स्वास्थ्य मंत्री हैं और उनका विभाग अपनी कारगुजारियों के कारण खासी चर्चा में रहा है.

दरअसल छत्तीसगढ़ सरकार के स्वास्थ्य विभाग के लिए राष्ट्रीय एवं राज्यीय योजनाओं के क्रियान्वयन में घनघोर लापरवाही बरतने की घटनाएं कोई नई नहीं हैं . परिवार नियोजन जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्यक्रम में ऐसी घटनाएं पलीता लगाने का काम करती हैं. राज्य में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं पर आश्चर्य का विषय है कि विभाग इससे सबक लेने तैयार नहीं हैं. विशेषकर पिछले तीन वर्षों के भीतर इतना कुछ भीषण घटित हुआ है कि देखकर न केवल हैरानी होती है बल्कि प्रशासन की बेपरवाही पर, उसकी उदासीनता पर लोगों को गुस्सा आता है. राज्य की जनता को यह अच्छी तरह याद है कि बालोद, बागबाहरा एवं कवर्धा नेत्र कांड तथा गर्भाशय कांड में विभागीय लापरवाही की कितनी कीमत आम आदमियों को चुकानी पड़ी, कितने जीवन तबाह हो गए किन्तु किसी सरकारी अधिकारी का बाल भी बांका नहीं हुआ.

26, 27 एवं 28 सितंबर 2011 को बालोद के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में मोतियाबिंद के आॅपरेशन के लिए शिविर आयोजित किए गए थे. इस शिविर में 170 महिलाओं एवं पुरुषों की आंखों का कुछ इस तरह ऑपरेशन किया गया कि 49 लोगों की आंखों चली गई. उनके जीवन में स्थाई अंधेरा छा गया. घटना चूंकि बेहद गंभीर थी इसलिए राज्य सरकार ने जांच तो बैठाई, एक चिकित्सक सहित 4 अधिकारियों को निलंबित भी किया किन्तु किसी की बर्खास्तगी की जरुरत नहीं समझी गई और आज स्थिति यह है कि सारे आरोपी फिर सेवा में बहाल हो गए. और तो और कुछ की पदस्थापना पुन: उसी जगह बालोद में हो गई. इससे समझा जा सकता है कि सरकार बड़ी से बड़ी दुर्घटना का किस तरह सरलीकरण कर देती है.

यह केवल एक उदाहरण नहीं है रायपुर सहित राज्य के 11 जिलों में गर्भाशय कांड की भी इसी तरह गूंज हुई थी जिसमें चंद रुपयों के खातिर सैकड़ों महिलाओं को जबरिया गर्भाशय निकाल दिए गए. प्रारंभ में सरकार ने जिम्मेदार निजी अस्पतालों एवं डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई का दम तो दिखाया लेकिन चिकित्सकों के संगठनों के दबाव के चलते मामले के शांत होने में देर नहीं लगी लेकिन ये दोनों घटनाएं दु:स्वप्न की तरह आम जनता के जेहन में है और लगातार उनका पीछा करती है.

लेकिन इस बार सरकार सन्नाटे में है. बिलासपुर के कानन पेंडारी सहित विभिन्न स्थानों पर जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत आयोजित नसबंदी शिविरों में आपरेशन के बाद अब तक 11 महिलाओं की मृत्यु हो चुकी है. तथा दर्जनों मौत से जूझ रही हैं. स्वास्थ्य शिविरों में बरती गई लापरवाही का यह अप्रतिम और वीभत्स उदाहरण है. सरकार ने स्वास्थ्य संचालक को हटा दिया है, 4 डॉक्टरों को निलंबित किया तथा एक के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है लेकिन क्या यह कार्रवाई काफी है, फौरी कार्रवाई के रुप में निलंबन और चंद महीनों बाद बहाली के दर्जनों उदाहरण विभिन्न प्रकरणों में देखने मिल जाएंगे. क्या किसी को उपयुक्त सजा मिल पाती है? क्या पीड़ितों अथवा उनके परिजनों के प्रति न्याय हो पाता है? क्या 11 महिलाओं की मौतों की घटना को मुआवजा देकर भुलाया जा सकता है? यकीनन नहीं.

घावों पर तभी मरहम लगेगा, वे तभी वह सूखेंगे जब घटना के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी. कार्रवाई बर्खास्तगी से कम नहीं होनी चाहिए तथा आपराधिक मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए. जब सरकार ऐसी सख्ती दिखाएगी तब वह नजीर बनेगी और शायद तब लापरवाहियों पर अकुंश लगेगा और जन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं होगा. क्या राज्य सरकार ऐसा करेगी?

दरअसल राज्य का स्वास्थ्य विभाग जनस्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने के बावजूद कार्यशैली एवं अनुशासन के मामले शायद सबसे गरीब है. भ्रष्टाचार, खरीदी में करोड़ों का गोलमाल, उपचार के घटिया उपकरण, सरकारी अस्पतालों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की दुर्दशा, दवाइयों एवं डॉक्टरों का अभाव आदि तो विभाग के स्थायी भाव है. उपर से जागरुकता एवं जनस्वास्थ्य की रक्षा के नाम पर समय-समय पर लगने वाले विभिन्न अस्त-व्यस्त शिविर. यह तथ्य है कि आंकड़ों की बाजीगरी के लिए शिविर आयोजित किए जाते है ताकि लक्ष्य पूरे किए जा सके.

जब ऐसी मानसिकता हो तो जाहिर है, शिविरों में व्यवस्थाएं किस तरह की होंगी. नसबंदी शिविरों में मौत की घटनाओं के पीछे जो भी तथ्य होंगे, वे जांच में सामने आएंगे ही पर प्रथम दृष्टया यह साफ-साफ लापरवाही एवं गैर जिम्मेदारी का मामला है. भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचने के लिए जरुरी है स्वास्थ्य शिविरों की व्यवस्था सुधरे एवं निगरानी दस्ते बने. यदि जवाबदेही तय होगी तो व्यवस्थाएं सुधरेंगी और तब शिविर जानलेवा नहीं जीवनदायी साबित होंगे.

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