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सरकार चलाना आता है, रमन—शिवराज को..

रायपुर | सुरेश महापात्र: छत्तीसगढ़ में नान घोटाले की आंच से रमन सिंह बेदाग बाहर निकलते दिख रहे हैं. छत्तीसगढ़ में जीरो टालरेंस वाली सरकार की कवायद चल रही है. भ्रष्टाचार मुक्त शासन और प्रशासन के संकल्प के साथ आगामी 13 अप्रैल से ‘लोक सुराज अभियान’ का ऐलान हो चुका है. यह बात और है कि प्रदेश में भ्रष्टाचार ही है जिससे जनता को भारी परेशानी हो रही है. गरीबों के हक की बात छोड़िए कोई ऐसा सेक्टर नहीं है जहां बगैर लेन—देन के सीधे काम हो जाता हो. पर शिकायत भी कोई नहीं करता. करे भी तो किससे? कांग्रेस लाख चिल्ला ले, इसे झुठलाना उसके बस में नहीं है कि उसके भीतर ही ‘फांक—फांक’ राजनीति है, वह एकजुट हो नहीं सकती. जनता को भाजपा सरकार के खिलाफ विश्वास दिला नहीं सकती. यही प्रदेश में भाजपा के ‘गुड गर्वनेंस’ का राज भी है.

एक प्रकार से देखा जाए तो सत्ता के मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से कम से कम दो बरस के सीनियर हैं. पर पारी के हिसाब से दोनों अपनी तीसरी पारी खेल रहे हैं. दोनों ने अपने—अपने प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा होने का मौका नहीं दिया. कई मुद्दे उठाए गए, भ्रष्टाचार के आरोप लगे, भाई—भतीजावाद का आरोप लगा, कोयला घोटाले में नाम घसीटने की कोशिशें की गईं पर सारे हमले विफल हो गए. इन दिनों भाजपा के इन दो दिग्गज मुख्यमं​त्रियों को लेकर विवाद की स्थिति है. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह व्यापम घोटाले में और डा. रमन सिंह नागरिक आपूर्ति निगम के भ्रष्टाचार मामले में घिरे दिखे. दोनों प्रदेशों में कांग्रेस इन दो मुद्दों पर भाजपा के अब वरिष्ठ हो चुके मुख्यमंत्रियों को निशाना बनाने की कोशिश कर रही है. दोनों प्रदेश में ‘डायरी’ गले का फांस बनी हुई है. बावजूद इसके कांग्रेस की सारी विपक्षी रणनीति इन दो मुख्यमंत्रियों का कुछ भी शायद ही बिगाड़ सके? इसका मतलब साफ है कि इन दो मुख्यमंत्रियों को सरकार चलाना आता है.

यह सही है कि भाजपा शासित प्रदेशों में गुजरात के बाद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का नाम सबसे उपर आता है. इन दोनों प्रदेशों में रमन सिंह और शिवराज सिंह सत्ता चला रहे हैं. मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह ने विरोधियों को खत्म नहीं किया बल्कि उन्हें समर्थक बना लिया है. यही वजह है कि वहां कांग्रेस के लाख प्रयासों के बाद भी सत्ता से दूर रहना पड़ रहा है. यानी एक समय अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी. कांग्रेस ने अपनी सत्ता में क्षत्रप तैयार किए और अब यही क्षत्रप कांग्रेस के बुरे दिनों के कारण साबित हो रहे हैं.

छत्तीसगढ़ बना तो यहां भी कांग्रेस पहले ही दिन से फांकों में तब्दील दिखी. पं. विद्याचरण शुक्ल के फार्म हाउस में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ जो कुछ हुआ उसे शायद ही कोई भूला हो. अजित जोगी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में उधार की कांग्रेस सरकार बनीं. उसके बाद महज तीन बरस में जनता का कांग्रेस के प्रति जो मोह भंग हुआ वह अभी तक बना हुआ है. वहीं मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने 2003 में अपना दूसरा और अंतिम कार्यकाल पूरा किया. इसके बाद मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस सत्ता पाने के लिए तरस रही है. जनता के भीतर कांग्रेस के खिलाफ बना माहौल पक्ष में अभी तक नहीं बन पाया है.

इसकी वजहें तो कई हो सकती हैं. मध्यप्रदेश में दिग्विजय के विजय रथ को रोकने में साध्वी उमा भारती का प्रयास कोई नहीं भूल सकता. राजनीतिक उठा—पटक के बीच बाबूलाल गौर को सत्ता सौंपकर वनवास जाना पड़ा. उसके बाद सत्ता में वापसी नहीं हो पाई. बाबूलाल गौर के बाद शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की बागडोर संभाली और अब तक संभाल रहे हैं. यानी भाजपा की पहली पारी में पांच साल में तीन सीएम का दंश झेलने वाली भाजपा अपने तीसरे सीएम शिवराज सिंह के सहारे विजय रथ पर सवार है.

बड़ी बात यह है कि इन दोनों ने उसी कांग्रेस से सरकार चलाना ​सीखा है जो फिलहाल नेपथ्य में है. मेरे एक पत्रकार मित्र ने बताया कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र रिटायर होने के बाद उनके शिष्य अर्जुन सिंह ने मध्यप्रदेश की सत्ता संभाली. अर्जुन सिंह शपथ लेने के बाद आशीर्वाद लेने के लिए द्वारका प्रसाद मिश्र के पास पहुंचे और सरकार चलाने का गुरूमंत्र मांगा. गुरू ने शिक्षा दी कि पहला — प्रदेश में गृहमंत्री सबसे कमजोर नेता को बनाना, दूसरा — इंटेलिजेंस सीधे सीएम को रिपोर्ट करे. यह ध्यान रखना. तब से लेकर अब तक दोनों प्रदेशों में यही हो रहा है. कांग्रेस के अहंकार से चौपट हुई सत्ता के बाद, दोनों राज्यों में सत्ता के शिखर पर काबिज मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और शिवराज सिंह बेहद मजबूत और मुकम्मल मुख्यमंत्री साबित हुए हैं.

व्यापम घोटाले की आंच से सुलग रही राजनीति में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को कई बार सफाई देनी पड़ चुकी है. प्रदेश के शिक्षा मंत्री जेल में हैं. राज्यपाल रामनरेश यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो चुकी है. मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कांग्रेस में हल्लाबोल है. बावजूद इसके मध्य प्रदेश के किसी नेता में यह दम नहीं है कि अपने बूते शिवराज की सत्ता को चुनौती दे सके. दूसरी ओर पहले इंदिरा प्रियदर्शनी सहकारी बैंक के नारको टेस्ट का सीडी कांड जिसके साए में चुनाव हुए और डा. रमन तीसरी बार कुशल मैनेजर की तरह मुस्कुराते विजय हासिल किया. कांग्रेस ने काफी हल्ला मचाया. हुआ कुछ भी नहीं. उल्टे कांग्रेसी आपस में ही उलझे दिखे. अब लग रहा है कि कांग्रेस ने नारकोटेस्ट सीडी कांड को वाइंडअप कर दिया है. डा. रमन के हर कार्यकाल में नक्सलियों ने कई बड़ी वारदातें कीं. पहले कार्यकाल में सलवा जुड़ूम का दंश, हजारों आदिवासियों की खानाबदोशी की कहानियां, सैकड़ों नागरिंकों की हत्याओं की कहानी, जुड़ूम के खिलाफ नक्सलियों का बड़ा हमला एर्राबोर शिविर में आगजनी, कई बड़े हमले, रानीबोदली में 55 जवानों समेत पहले कार्यकाल में सैकड़ों जवानों की शहादत के बाद भी 2008 में भाजपा सत्ता में रिपीट हुई.

2008 से 2013 के दूसरे कार्यकाल में ताड़मेटला में नक्सलियों के सबसे बड़े हमले में 76 जवानों की शहादत, एन चुनाव से पहले विपक्षी कांग्रेस के कुनबे पर नक्सलियों का झीरम घाट पर कातिलाना हमला जिसमें जेड प्लस सुरक्षा प्राप्त महेंद्र कर्मा, पूर्व केंद्रीय मंत्री पं. वीसी शुक्ल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल समेत 32 लोगों की जान गई. बैंक घोटाले के भ्रष्टाचार के मामले में सीडी कांड का हल्ला मचा बावजूद इसके 2013 में डा. रमन सिंह रिपीट हुए. अब डा. रमन सिंह अपनी तीसरी पारी खेल रहे हैं. इस पारी में एक बड़ा बदलाव हुआ है. केंद्र में भाजपा की सत्ता है. वह भी इनके सीनियर मुख्यमंत्री रहे गुजरात के नरेंद्र मोदी के हाथों में. इसके बाद से ‘सबका साथ—सबका विकास’ के जुमले के साथ जीरो टालरेंस वाली सरकार चलाने की कोशिश की जा रही है.

पर बड़ा सवाल यह है कि इतना कुछ होने के बाद भी प्रदेश में सत्ता के खिलाफ कुछ हुआ क्यों नहीं? वजह साफ है क्यों कि जिन नेताओं को अपने लिए हल्ला करना या करवाना है उनकी इंटेलिजेंस रिपोर्ट भी तो सीएम के पास ही होगी? यानी मध्यप्रदेश प्रदेश के राजनीतिक गुरू द्वारिका प्रसाद मिश्र की वह युक्ति ही सत्ता को बचाए रखे है. इसे हम चाहे यह कहें कि रमन—शिवराज को सरकार चलाना आता है. या प्रदेश में दूसरा कोई नेतृत्व शेष नहीं है जिस पर सत्ता का भरोसा भाजपा कर ​सके. देखिये अब सरकार के हिसाब से सब कुछ होने भी लगा है. व्यापम मामले में शिवराज पर कांग्रेस का वार मंद पड़ता दिख रहा है.

जबकि सच्चाई यही है कि प्रदेश में सरकार, नेता नहीं अफसर चला रहे हैं. अफसरों की भूमिका सत्ता को उतनी ही जानकारी देना है जितने से काम चल जाए. यानी भरोसे की भाजपा सरकार से फिलहाल मुक्ति संभव नहीं है. केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का जाने के बाद भाजपा में मोदी युग का प्रारब्ध हुआ. इसके साथ ही यह कयास भी लगाए जा रहे थे कि अब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन होगा. सरकार की शिफ्टिंग के कयासों के बीच दिल्ली में भाजपा का विजय रथ रूका. हो सकता है दिल्ली के दंश से बेहाल भाजपा फिलहाल ‘सबका साथ—सबका विकास’ फार्मुले पर ही कायम है. सो रमन की जय, शिवराज की जय….

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