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कुछ बच्चे फूल से कालीनों पर लोटपोट

सुनील कुमार
ब्रिटेन में शाही परिवार को लेकर बावले लोगों में एक तस्वीर तैर रही है कि किस तरह राजघराने के सबसे नए बच्चे एक साथ हैं, और एक-दो बरस का राजकुमार, एक-दो महीने की राजकुमारी को चूम रहा है. एक भाई और बहन की ऐसी तस्वीर जाहिर है कि देखने वालों को छू जाती है. लेकिन यह तस्वीर देखते ही एक दूसरी तस्वीर दिमाग में आती है जिसमें वियतनाम में काम पर गए मजदूरों के दो बहुत छोटे बच्चे घर पर हैं, और दो-तीन बरस का भाई अपनी डरी-सहमी रोती हुई एक-दो बरस की बहन को लिपटाकर उसे चुप करा रहा है, उसे हौसला दे रहा है.

लेकिन इसके साथ-साथ मुझको एक दूसरी तस्वीर भी याद पड़ती है जिसमें कुछ बरस पहले इराक की एक तस्वीर है जिसमें वहां की सड़क पर बिखरे हुए खून के बीच एक बच्ची दहशत में भरी हुई चीख रही है, क्योंकि कार में उसके बीमार भाई को अस्पताल ले जाकर वापिस लाते मां-बाप को अमरीकी सैनिकों ने कार रोककर गोलियां मार दी थीं, और मां-बाप के लहू के बीच, उस लहू से सनी हुई वह बच्ची जोरों से चीख रही है.

बच्ची तो बच्ची है. फिर वह चाहे अपने राजकुमार भाई की गोद में ब्रिटिश राजघराने की बच्ची हो, या फिर अमरीकी हमले में एक पूरी पीढ़ी खोने वाले वियतनाम के मजदूर मां-बाप की अकेली बच्ची हो, या फिर इराक में अमरीकी गोलियों में मां-बाप को खोकर अकेले बीमार भाई के साथ बची हुई लहू से सनी हुई बच्ची हो. और दुनिया की बच्चियों के बीच, उनकी खुशियों और उनकी तकलीफों के बीच का यह फासला दुनिया की हमलावर राजनीति का तय किया हुआ है.

वियतनाम की एक पूरी पीढ़ी को अमरीकी फौजी हमले ने खत्म कर दिया, और इतिहास में वियतनाम की उस बच्ची की तस्वीर इस जंग के पोस्टर की तरह दर्ज है जिसमें नापाम बम की आग से बचकर भागती हुई वह वियतनामी बच्ची बिना कपड़ों के ही सड़क पर दहशत में दौड़ी जा रही है. ऐसे बच्चे अमरीकी हमलों और उसके गिरोह के देशों के हमलों से दुनिया भर में लहूलुहान हैं.

आज इस पर लिखने का मौका इसलिए है कि इराक से आई एक रिपोर्ट में 2005 की उस खून भरी रात वाली बच्ची की नई तस्वीर है, अब वह 15 बरस की है, और उसने 2011 तक अपनी वह तस्वीर नहीं देखी थी जिसने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था (शायद अमरीकी गिरोह को छोड़कर). समर नाम की यह बच्ची उस रात पांच बरस की थी, और कुछ बरस पहले उसने अपनी वह तस्वीर देखी जिसमें वह अमरीकी सैनिकों के बीच खड़ी हुई, अपने मां-बाप के लहू से सनी हुई, चीख रही है. यह तस्वीर जिस युद्ध-फोटोग्राफर ने खींची थी वह भी अभी कुछ समय पहले लीबिया में युद्ध की तस्वीरें खींचते हुए मारा गया है. लेकिन समर की यह तस्वीर एक ऐतिहासिक तस्वीर बन गई है, जिसके देश में लाखों लोग अमरीकी हमले के बाद शारीरिक और मानसिक सदमों के शिकार होकर पड़े हैं.

अभी-अभी अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दफ्तर से राष्ट्रपति निवास व्हाईट हाउस से निकली कुछ तस्वीरें सामने आई हैं, जिनमें ओबामा वहां पहुंचे बहुत छोटे बच्चों के साथ बच्चे बनकर खेल रहे हैं, या बच्चे उनके आसपास जिद में कालीन पर लेटे हुए हैं. कुछ बरस पहले का बराक ओबामा का वह बयान भी याद करने लायक है जिसमें उन्होंने अपनी बेटियों के बारे में कहा था कि इराक जैसी तस्वीरों को वे अपने बेटियों को दिखाने का हौसला नहीं कर सकते.

जिस दुनिया से इस सदी में सरहदों से परे कई मामलों में एक होने की उम्मीद की जाती है, जहां पर लोगों की आवाजाही बढ़ती जा रही है, कारोबार बढ़ते जा रहा है, वहां पर अगर एक देश के बच्चे मां-बाप के लहू से भीगे हुए बड़े होंगे, और दूसरे देशों में बच्चों को फूलों की तरह हथेलियों पर रखा जाएगा, तो यह फासला क्या दुनिया में कभी अमन-चैन आने देगा? और खासकर तब जब ये हमले किसी देश या गिरोह द्वारा धर्म के आधार पर किए जाएं, तेल के कुओं पर कब्जे के लिए किए जाएं, किसी दूसरे देश को अपनी बराबरी के हथियार बनाने से रोकने के लिए किए जाएं, किसी दूसरे देश में वहां के मुखिया को मारने के लिए किए जाएं, वहां की खदानों के लिए किए जाएं, वहां पर अपने किस्म का एक तथाकथित लोकतंत्र कायम करने के लिए किए जाएं, तो फिर वहां की आने वाली पीढिय़ां किस तरह इससे उबर पाएंगी?

आज दुनिया का मीडिया सिर्फ ताकतवर मुल्कों के कब्जे वाले ताकतवर मालिकों के कब्जे का नहीं रह गया है. सोशल मीडिया के मार्फत किसी तकलीफदेह की, किसी जख्मी की तस्वीरें उतनी ही रफ्तार से फैल सकती हैं जितनी रफ्तार से व्हाईट हाउस के कालीन पर लोटपोट होते बच्चे की, या कि बकिंघम पैलेस के राजकुमार और राजकुमारी के बचपन की. अब दुनिया में बहुत सी हिंसा और बहुत सा आतंक दुनिया के किसी मुल्क की सरकारी हिंसा और सरकारी आतंक के जवाब में होने के खतरे कायम हैं. ये कुछ उसी तरह के हैं कि जिस तरह एक वक्त फूलन के साथ एक दूसरी जाति के गिरोह ने सामूहिक बलात्कार किया था, और फिर उसके जवाब में फूलन ने गिरोह बनाकर दूसरी जाति की महिलाओं के साथ अपने गिरोह के आदमियों से वही कुछ करवाया था.

दुनिया में आज धर्म के आधार पर, रंग के आधार पर, और धर्म के भीतर के समुदायों के आधार पर भी, ईश्वर की उपासना के तौर-तरीकों के आधार पर, अर्थव्यवस्था और कारोबार में एकाधिकार की चाह के आधार पर, ऐसे सौ आधारों पर भेदभाव हिंसा और हमलों की हद तक चल रहा है. ये आधार आने वाली दुनिया में हिंसा और आतंक की बुनियाद से कम कुछ नहीं हैं. आज अलग-अलग देशों के बीच, किसी एक देश में वहां के अलग-अलग तबकों के बीच भेदभाव से जो हिंसा हो रही है, उसकी प्रतिक्रिया में आज, कल, या परसों, जवाबी हिंसा होना तय है. और महज अमरीका को गालियां क्यों दें, हिन्दुस्तान के भीतर ही जिस तरह आज दलितों को पीने के पानी के हक से भी रोका जा रहा है, जहां पर एक दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढऩे पर भी उसका कत्ल होता है, जहां पर दलित महिलाओं को महज बलात्कार का हकदार माना जाता है, वहां पर देशों के भीतर भी बेइंसाफी के खिलाफ हिंसा तय है.

भारत जैसे लोकतंत्र में हम देखते हैं कि बहुत से तबकों के लिए इंसाफ पाने का अकेला जरिया हिंसा है, और ऐसा ही दुनिया के देशों के बीच भी है. एक तरफ कालीनों पर लोग अपने बच्चों को लोटपोट करवाते रहें, और वे ही लोग दूसरे देशों में बच्चों को उन्हीं के बेकसूर मां-बाप के लहू से नहलाते रहें, तो जवाबी हिंसा से ऐसे लोग और ऐसी दुनिया बच नहीं सकते. दुनिया में जैसे-जैसे कानून का राज बढऩे का एक ढकोसला खड़ा किया जा रहा है, बढ़ाया जा रहा है, एक झांसा पैदा किया जा रहा है, वैसे-वैसे हकीकत में भेदभाव और फर्क की हिंसा बढ़ते चल रही है.

लोगों को भूलना नहीं चाहिए कि दुनिया के देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ नाम का एक संगठन खड़ा किया था जिससे उम्मीद की जाती थी कि वह देशों के बीच के झगड़ों को निपटाएगा. लेकिन ताजा इतिहास बताता है कि अभी दस बरस पहले ही तब के अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने संयुक्त राष्ट्र की अपील को खारिज करते हुए झूठे गढ़े हुए एक मामले को दिखाकर, एक साजिश बनाकर इराक पर हमला किया था, और वहां के शासक सद्दाम हुसैन का कत्ल किया था. अभी फिर ताजा खबरें ये आ रही हैं कि ओसामा-बिन-लादेन को मारने के लिए अमरीका ने अपने हत्यारों की जो टोली बनाई थी, उसने दुनिया में घूम-घूमकर कत्ल किए, और बेहथियार लोगों को भी मारा.

लेकिन हम आखिर में शुरू की बात पर लौटते हैं कि जो लोग अपने बच्चों और दूसरे बच्चों के बीच हक का इतना बड़ा फासला हिंसा करके खड़ा करते हैं, वे आगे चलकर कभी न कभी एक जवाबी हिंसा का शिकार होंगे क्योंकि ऐसे जख्मी लोगों के लिए दुनिया में कोई अदालत नहीं है.

* लेखक रायपुर से प्रकाशित शाम के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक हैं.

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