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पश्चिम बंगाल का सांप्रदायिक तनाव

पश्चिम बंगाल के बसिरहट के बदुरिया में हुई सांप्रदायिक हिंसा राज्य में बढ़ रहे सांप्रदायिक धु्रवीकरण का एक उदाहरण है.हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य को मजबूत करने के लिए इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी की चुनावी महत्वकांक्षाएं काफी हद तक जिम्मेदार हैं. मतदाताओं का एक वर्ग भाजपा की ओर क्यों जा रहा है, इसे समझने के लिए इस क्षेत्र में सांप्रदायिकता के इतिहास को समझना होगा. इससे यह पता चलता है कि यहां पहले से ही ऐसी स्थितियां रही हैं जो अब भाजपा के सक्रिय होने से सतह पर आ रही हैं.

हालिया घटना में स्थिति तब बिगड़नी शुरू हुई जब 17 साल के एक लड़के ने फेसबुक पर कथित तौर से पैगंबर और काबा के बारे में कुछ आपत्तिजनक बातें लिखीं. माना जा रहा है कि इससे मुस्लिम समाज के लोग भड़क गए. उनकी मांग यह थी कि दोषी को फांसी दे दी जाए. हिंदू समाज के लोगों ने इसका विरोध किया और हिंसा कई दिनों तक चलती रही. यह बात भी सामने आई कि भाजपा सदस्यों ने गलत खबरें प्रसारित कीं. इस वजह से सांप्रदायिक तनाव और बढ़ा. राज्य की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस इस स्थिति के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रही है तो भाजपा यहां राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रही है. एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने से पश्चिम बंगाल के सामाजिक ताने-बाने की वह कमजोरी नहीं छिपी रह सकती जिसे भाजपा ने और बढ़ा दिया है.

बंगाल में हिंदू-मुस्लिम हिंसा की शुरुआत 20वीं सदी की शुरुआत से ही हो गई थी. समय के साथ यह और बढ़ती गई. अंग्रेजों की नीतियों ने इसे और बढ़ाया. 1930 के दशक के मध्य में जब प्रांतीय चुनाव अंग्रेज सरकार ने कराए तो सूबे में मुस्लिम राजनीतिक पार्टी का शासन हो गया. क्योंकि उस वक्त राज्य का जो ढांचा था उसमें हिंदू अल्पसंख्यक थे. आजादी के पहले कई सालों तक इस राज्य पर मुस्लिम लीग का शासन रहा है. इस तथ्य को लोग अक्सर भूल जाते हैं. यह भी भूला दिया गया है कि इस वजह से राज्य में मुसलमानों के खिलाफ गुस्से का माहौल रहा है. बंटवारे को लेकर बंगाल में हत्याओं का दौर अगस्त, 1946 में ही शुरू हो गया था. इसमें कोई संदेह नहीं है कि लीग ने यहां सांप्रदायिकता को हवा दी लेकिन बंटवारे के बाद के पश्चिम बंगाल में हिंदू सांप्रदायिकता की जड़ें मजबूत रहीं.

आजादी की पूर्वसंध्या पर अभी की भाजपा की पूर्ववर्ती हिंदू महासभा यहां राजनीतिक तौर पर मजबूत थी. लेकिन गांधी की हत्या में इसकी भूमिका की वजह से और अन्य कई कारणों से यह कमजोर होती गई और वामपंथी दलों को यहां मजबूती मिलती गई. लेकिन हिंदू सांप्रदायिकता खत्म करने का काम न तो कांग्रेस सरकार ने किया और न ही वामपंथी सरकार ने.

वाम दलों ने शरणार्थियों के हितों की बात करके खुद को मजबूत किया. शुरुआत में जो शरणार्थी आए उनमें अधिकांश अगड़ी जातियों के संपन्न हिंदू थे. इस वजह से वाम दलों ने मुस्लिमों के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाया. इसलिए 70 के दशक में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करके सत्ता पर काबिज हुए वाम दलों के प्रमुख नेता भद्रलोक के ही थे.

पश्चिम बंगाल में मुसलमानें की स्थिति का अंदाज तब तक ठीक से नहीं हुआ जब तक 2006 की सच्चर समिति की रिपोर्ट नहीं आई. इससे पता चलता कि गरीबपरस्त होने का दावा करने वाली वामपंथी सरकार के कार्यकाल में राज्य के मुस्लिमों का कुछ भला नहीं हुआ. कांग्रेस की तरह ही वाम दलों ने भी मुसलमानों को अपने साथ लाने की कोशिश नहीं की. बंटवारे के बाद मुस्लिमों में एक साथ रहने की प्रवृत्ति बढ़ी लेकिन इसे दूर करने या इन्हें अपने साथ लाने की कोशिश वाम दलों ने नहीं की.

बाद में आने वाले शरणार्थियों को लेकर वामपंथी सरकार का रवैया प्रतिकूल था. क्योंकि इनमें से अधिकांश निचली जातियों के खेतीहर थे. वाम सरकार ने इन्हें राज्य के संसाधनों पर बोझ माना. जमीन बंटावारे के सफल प्रयोग के बावजूद बाद में सरकार ने बड़ी संख्या में गरीब किसानों को जमीन से दूर रखा. इस वजह से सतही तौर पर स्थिरता दिखने के बावजूद इसका समर्थक वर्ग इससे खिसकता गया. तृणमूल कांग्रेस ने इसका फायदा उठाया और 2011 में सत्ता में आ गई. लेकिन इसने भी उन्हीं रास्तों को अपनाया जो पहले से प्रचलन में थीं.

तृणमूल ने रूढ़ीवादी मुस्लिम नेतृत्व को उभारा. बसिरहट से पार्टी सांसद इदरिस अली पर 2007 में दंगे भड़काने का आरोप है. उन्होंने बांगलादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकालने की मांग की थी.

तृणमूल ने ऐसा कर दिया कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में धार्मिक मुद्दों पर सार्वजनिक चर्चाएं होने लगीं. ममता बनर्जी ने कुछ ऐसे काम किए जिससे लगा कि वे मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ बनाए रखना चाहती हैं लेकिन इससे आम मुस्लिमों का खास भला नहीं हुआ. इस वजह से हिंदू समाज के ममता समर्थकों में गुस्सा बढ़ता गया और रूढ़ीवादी मुस्लिम नेतृत्व मजबूत होता गया. भाजपा इसी स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है.

संभव है कि इस रणनीति पर चलकर भाजपा आने वाले कुछ सालों में पश्चिम बंगाल में सत्ता में आ जाए. लेकिन इतिहास हमें बताता है कि किसी भी पार्टी को बंगाल में सांप्रदायिक का आयात करने की जरूरत नहीं है. यह तो वहां सालों से है और इसे वहां की अलग-अलग सरकारों ने मजबूत करने का ही काम किया है.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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