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कोरोना काल से उबरने का रास्ता

देविंदर शर्मा
कोरोना महामारी की शुरुआत में विश्व आर्थिक मंच ने एक अध्ययन को ट्वीटर पर साझा किया था. यह रिपोर्ट एक जर्मन ऑनलाइन पोर्टल ‘स्टेटिस्टा’ द्वारा तैयार किया गया था. इसमें उन प्रमुख दस देशों की सूची थी, जहां के लोगों का पूंजीवाद से भरोसा उठ रहा है.

इन देशों में इस बात की सहमति दिख रही है कि वर्तमान समय में पूंजीवाद बहुत नुकसान पहुंचा रहा है. रोचक बात यह है कि भारत, 74 प्रतिशत लोगों की सहमति के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है. जबकि अन्य देश फ्रांस 69, चाइना 63, ब्राजील 57, जर्मनी 55, कनाडा 53 और अमरिका 47 प्रतिशत के साथ भारत से पीछे हैं.

पूंजीवाद में घटता विश्वास का यह सर्वेक्षण ऐसे समय में सामने आया है, जब जनवरी में स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक मंच की सलाना बैठक होने वाली थी. इस बैठक के ठीक कुछ दिन पहले ‘ऑक्सफैम इंटरनेशनल’ ने अपनी वार्षिक प्रस्तुति में आय असमानता पर चौंकाने वाली रिपोर्ट पेश की थी. इसके अनुसार भारत में ऊपर के एक प्रतिशत अमीरों के पास निचले तबके के 70 प्रतिशत लोगों के कुल धन से चार गुना ज्यादा संपत्तियां है.

जबकि वैश्विक स्तर पर रिपोर्ट बताती है कि संसार के 2153 अरबपतियों के पास विश्व की कुल आबादी का 60 प्रतिशत से अधिक धन है. विडंबना यह है कि फिर अमीरों का यही वर्ग कोरोना महामारी के नाम पर आर्थिक राहत पैकेज की मांग कर रहा है.

ऐसे समय में भी इस प्रकार के आर्थिक पैकेज से व्यापक अवधारणा को बल मिला है कि वास्तव में वैश्विक आर्थिक नीतियां कॉर्पोरेट के लिए समाजवाद, गरीबों के लिए पूंजीवाद हैं. बिगड़ती आय असानता, जो तेजी से सवालों के घेरे में आ रही है, पूंजीवाद के साथ असंतोष को हवा देने के लिए काफी है.

अब काफी संख्या में नौकरियों का जाना, सुरक्षित रहने की चुनौती के साथ परिवार के लिए भोजन जुटाने का संघर्ष जैसे मुद्दों ने महामारी में सामाजिक और आर्थिक खाई को और चौड़ा कर दिया है. बीते चार दशकों में बाजार सुधारों को आक्रामक तरीके से बढ़ाने के बावजूद सामाजिक और आर्थिक असमानता और बढ़ी है.

इसे सही तरीके से समझने के लिए बढ़ती खाद्य असुरक्षा की भावना का गहराई से विश्लेषण करने की जरूरत है. खाद्य भंडारों के पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद खाद्य असुरक्षा की भावना, समय के साथ तेज़ी से बढ़ी है. न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लिखते हुए पेट्रिसिया कोहेन ने 1930 में आई महामंदी से तुलना करते हुए लिखा है कि उस वक्त भी अमरीका में भोजन के लिए लोगों की लंबी लाइनें लगी थीं.

आज 2020 की महामारी के दौर में भी फूड बैंकों के सामने कारों के लंबे काफिले दूर तक खड़े दिखाई देते हैं. 80 से 90 साल के अंतर को दर्शाते हुए मार्गरेट बार्क वाइट ने एक यादगार तस्वीर खींची. इसमें साइनबोर्ड के नीचे राहत की प्रतीक्षा कर रहे गरीब नागरिकों की एक लंबी लाइन दिखती है, जिसमें कार में एक खुशहाल परिवार दिखाया गया है. बैनर में दावा किया गया है: ‘दुनिया का सबसे ऊंचा जीवन स्तर’. तब और अब में अधिक कुछ बदला नहीं है.

विकास के आर्थिक मॉडल ने अमीर को अमीर बनाया है जबकि गरीबों को दीवार की दूसरी ओर ढकेल दिया है. वैसा देश जिसे दुनिया के सबसे समृद्ध देश के रूप में पहचान हासिल है, वहां भी भोजन के लिए फूड बैंकों के बाहर औसतन दो मील तक कारों की कतारें दिखते हैं. यह दिखाता है कि मौजूदा वैश्विक आर्थिक प्रणाली में लंबे समय से गंभीर समस्याएं उपस्थित हैं.

अमरीका में ही नहीं बल्कि भारत में भी प्रवासी मजदूर गोद में बच्चों के साथ, परिजनों और सिर पर लदे सामान को लेकर अपने घर तक पहुंचने के लिए कई सौ किलोमीटर की दूरी पैदल ही नाप रहे हैं. इस प्रकार के कष्टदायक दृश्य लंबे समय तक एक देश को आघात पहुंचाते रहेंगे.

मानव विकास के केंद्र में समानता और न्याय लाने में आर्थिक प्रणाली को मौलिक रूप से सुधारने के लिए एक गंभीर पुनर्विचार की आवश्यकता है. बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है. पिछले चार दशकों के नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था ने पर्यावरण को भी व्यापक नुकसान पहुंचाया है. तापमान के बढ़ने, बर्फ के ग्लेशियर पिघलने और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की बढ़ोत्तरी जैसी समस्याएं वास्तविकता से अधिक दूर नहीं हैं.

कई लोगों का मानना है कि प्रमुख प्राकृतिक संसाधनों, जंगल और जैव-विविधता के हॉट स्पॉट केंद्रों के नष्ट होने से घातक बीमारियां पैदा हो रही हैं. औद्योगिक खेती, कारखाने और बेतरतीब बाजार के बीच उलझे रिश्तों के जाल, टूटी हुई खाद्य प्रणाली को तत्काल ठीक करने की मांग करते हैं ताकि भविष्य में अगली किसी महामारी से बचा जा सके. चाहे पर्यावरणीय विनाश हो या भारी आर्थिक असमानता, कोरोना संकट के इस दौर में सरकार को मजबूत आर्थिक व्यवस्था बनाने की ओर तत्काल आगे बढ़ना चाहिए, जहां बहुसंख्य आबादी बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित न हो.

आर्थिक विकास पर जोर दिया जाए और जहां गांधी का नारा विकास का नया मंत्र बने. हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वैश्विक संकट को अवसर के रूप में देखते हुए आत्मनिर्भरता पर जोर दिया. हालांकि कई अखबारों के संपादकीय और लेखों ने विश्व के उच्च विकास दर की जरूरत पर बल देते हुए आत्मनिर्भरता के कदम के खिलाफ सरकार को चेताया भी है.

लेकिन मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ने बिल्कुल वही कहा है जिसकी देश की जरूरत है. न केवल गांवों को आत्मनिर्भर बनाया जाए बल्कि कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था को फिर से संगठित करने का आधार बनाया जाए. नीतियों को अनिवार्य तौर पर सकल कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढांचे के विकास की ओर घुमाने की जरूरत है ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सके.

इसके लिए विशेष रूप से एमएसएमई क्षेत्र को पुनर्जीवित करके मेक इन इंडिया कार्यक्रम पर नए सिरे से जोर देना होगा, क्योंकि अब वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं पर बहुत अधिक निर्भरता ठीक नहीं है. आत्मनिर्भरता का सिद्धांत श्रम की गरिमा और प्रकृति के साथ सद्भाव पर आधारित है. आर्थिक कल्याण के लिए ये दो अंतर्निहित सिद्धांत पारंपरिक अर्थशास्त्र के साथ सीधे टकराव में आते हैं जो आक्रामक बाजार सुधार के कारण उत्पादकता और विकास को नुकसान पहुंचा रहे हैं.

आगे सड़क थोड़ी उबड़-खाबड़ वाली होगी लेकिन फिर भी नीति की दिशा बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए, जिसमें सबसे पहले अकुशल और साथ ही कुशल औद्योगिक श्रमिकों के लिए एक उदार सामाजिक सुरक्षा का तानाबाना तैयार किया जा सके. दूसरी बात और महत्वपूर्ण है कि आर्थिक विकास की चाह में प्रकृति को नष्ट करने से ध्यान हटाना होगा. कई सप्ताह से घरों में रहने के बाद लोगों को प्रकृति संरक्षण और सुरक्षा के महत्व का एहसास हो गया है. अब ऐसी नीतियों की जरूरत है जो इसे साकार करती हों. आर्थिक कल्याण एक विचार है जिसका समय आ गया है.

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