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कैंसर और एचआईवी मरीज़ों के लिये काल बना लॉकडाउन

सुनील शर्मा | रायपुर : कोरबा निवासी 30 वर्षीय अन्नपूर्णा वस्त्रकार को मई 2019 में ओवरियन कैंसर का पता चला. उनका ऑपरेशन रायपुर में हुआ और उनका इलाज चल रहा था. मार्च में लॉकडाउन लगा तो वह चेकअप के लिए रायपुर नहीं जा सकीं और नतीजा ये हुआ कि उनका इंफेक्शन बढ़ गया.

वह बताती हैं कि समय पर नहीं जा पाने के कारण उन्हें बाद में कीमो करवाना पड़ा. लॉकडाउन के कारण उन्हें दवा भी समय पर नहीं मिल पाई. दवा के लिए उन्हें खूब चक्कर लगाना पड़ा. एक फार्मेसी की दवा खाने से उन्हें साइड इफेक्ट भी हुआ. दरअसल जो टेबलेट उन्हें लेना था वह रायपुर में ही मिल रही थी. ऐसे में एक एनजीओ की मदद से किसी तरह उन्हें दवा मिल पाई.

वह बताती है कि रायपुर के मेकाहारा हास्पिटल में कीमो की मशीन भी कई दिनों खराब रही, इस कारण भी कई लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ा. खासतौर पर कैंसर पीड़ित महिलाओं को दिक्कत हुई. जो किसी तरह रायपुर चले भी गए तो वहां रहने, खाने सहित अन्य तरह की समस्याओं का भी सामना करना पड़ा.

कोरबा की ही एक दूसरी कैंसर पीड़ित महिला भी समय पर नहीं जा सकीं और इसका असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ा.

बिलासपुर निवासी योग गुरु अनिता दुआ बताती हैं कि उन्हें 2017 में ब्रेस्ट कैंसर हुआ. उसका इलाज चला. वह ठीक हुआ तो पता चला कि कालर बोन में कैंसर है. वह थोड़ी घबरा गईं क्योंकि तब वाहन बंद थे. शुक्र है कि मुंबई के लिए फ्लाइट चालू थी. लेकिन वहां कोरोना का संक्रमण सबसे ज्यादा था. फिर भी वे किसी तरह वहां गई और वहां ट्रीटमेंट कराया.

उनका कहना है कि कोरोना कल में लॉकडाउन और लॉकडाउन के बाद भी कई कैंसर पीड़ित महिलाओं को परेशानियों का सामना करना पड़ा.

अपोलो हॉस्पिटल की काउंसलर और खुद कैंसर पीड़ित अराधना त्रिपाठी बताती हैं कि वह ऐसी कई महिलाओं को जानती हैं जो कैंसर पीड़ित हैं और लॉकडाउन के दौरान उनका समय पर हॉस्पिटल में इलाज नहीं हो पाया. कुछ डॉक्टर तो कोविड 19 टेस्ट के बिना मरीज का चेकअप करने तैयार नहीं थे और ऑनलाइन चेकअप में महिलाएं न भरोसा कर पा रही थी और न ही वे संतुष्ट हो रही थीं.

कुछ महिलाओं को उनके घर के लोग अस्पताल नहीं जाने दे रहे थे, उन्हें संक्रमण का खतरा महसूस हो रहा था. डर व भय का माहौल का बना हुआ था.

वह बताती हैं कि औसत रोज एक ऐसी महिला का उन्हें फोन आता था जो कैंसर पीड़ित हैं और अपना इलाज नहीं करवा पा रही हैं. खूब समझाने पर किसी तरह वे इलाज के लिए जा रही थी पर यह नहीं कह सकती कि सभी ने ऐसा किया हो. वाहनों की आवाजाही पर रोक होने के कारण भी उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ा.

स्पंदन नामक स्वयं सेवी संगठन चलाने वाली अराधना बताती हैं कि वह चेकअप कराने में खुद एक दिन का भी देर नहीं करती थी लेकिन कई-कई दिनों बाद चेकअप करा पाईं. दरअसल ऑपरेशन होने पर 6 माह तक लगातार ट्रीटमेंट की जरूरत पड़ती है, जिसमें कुछ मरीज़ों को 6 बार कीमो, रेडियेशन आदि शामिल हैं.

अराधना का कहना है कि ये कैंसर पीड़ित महिलाओं के लिए बड़े तकलीफ भरे दिन थे. वह ऐसे पांच लोगों को जानती हैं, जिन्हें कैंसर था और उनकी मौत भी हुई. इसके पीछे एक बड़ा कारण तो यही था कि उन्हें समय पर इलाज नहीं मिला.

राज्य के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना काल में पीड़ितों की कहानियों की भरमार है. सबके हिस्से अपनी-अपनी परेशानियां रहीं. इन्हें लॉकडाउन ने प्रभावित ही नहीं किया, बल्कि उन्हें पहले से कहीं अधिक बीमार बनाया.

इसी तरह गंभीर बीमारियों में एक एचआईवी के संक्रमितों को भी कोरोना ने तोड़कर रख दिया.

अपना घर की एचआईवी पीड़ितों को दवा नहीं

बिलासपुर के ‘अपना घर’ में कवर्धा, रायपुर, बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले की कुल 14 एचआईवी संक्रमित नाबालिग लड़कियां रह रही थी. 17 अगस्त को कलेक्टर के आदेश पर इन्हें वहां से बल प्रयोग कर निकाला गया और राज्य सरकार द्वारा संचालित एक आश्रय स्थल पर उनके रहने की व्यवस्था की गई.

संकट ये हुआ कि राज्य सरकार के अधिकारियों ने इन एचआईवी संक्रमित लड़कियों को सुविधापूर्ण माहौल से आनन-फानन में निकाल कर सरकारी आश्रय स्थल में तो रख दिया लेकिन बार-बार के अनुरोध के बाद भी इन बच्चियों की स्वास्थ्य सुविधाओं की ओर ध्यान नहीं दिया. यहां तक कि इन एचआईवी पीड़िच बच्चियों को दस दिनों तक कोई दवा ही नहीं दी गई.

‘अपना घर’ में रहने वाली रेखा (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि संक्रमित होने के बाद से ही दवा ले रही हैं लेकिन लॉकडाउन हटने के बाद भी दस दिनों तक उनके साथ ही 13 अन्य लड़कियों को जो कि नाबालिग हैं, उन्हें दवा नहीं मिली. एआरटी सेंटर में दवा थी लेकिन कार्ड नहीं होने के कारण उन्हें दवा नहीं मिली.

एचआईवी संक्रमितों को कोरोना काल में घर पहुंचाकर दवा देने का दावा प्रदेश के सभी 5 एआरटी सेंटर करते हैं लेकिन रेखा की ही तरह कई महिलाओं को दवा मिलने में देर हुई. दवा खाने में गैप हुआ.

बिलासपुर में एचआईवी संक्रमितों के लिए जागरूकता अभियान चलाने वाली रिंकी अरोरा बताती हैं कि लॉकडाउन लगा और वाहन चलने बंद हुए तो ग्रामीण इलाकों के संक्रमित व्यक्ति शहर दवा लेने नहीं आ सके. खासतौर पर महिलाओं को इसमें दिक्कत हुई. ऐसे में हमने पास बनवाकर अपनी टीम को उन तक भेजा. फिर भी उन्हें परेशानियां तो हुई.

जिन्हें इलाज के लिए राज्य से बाहर जाना था, कई नहीं जा पाए

भारती शर्मा, स्व-प्रतिरक्षित विकार टाकायासू आर्टराइटिस (ऑटोइम्यून डिसऑर्डर) से प्रभावित हैं. उनका इलाज संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एसजीपीजीआई), लखनऊ से चल रहा है. वहां डॉ. अमिता अग्रवाल की टीम उनकी बीमारी का उपचार करती है. उन्हें लखनऊ जाना था, लेकिन कोरोना लॉकडाउन के कारण बंद ट्रेन और परिस्थिति की वजह से वे अंतिम बार जनवरी 2020 में जांच के लिए लखनऊ गई थी.

ऑटोइम्यून डिसऑर्डर से प्रभावित होने के कारण इनकी प्रतिरोध क्षमता पहले ही चिकित्सकों ने दवा के माध्यम से कम कर दिया है. इसलिए कोरोना से बचने और उसके डर से वे कहीं भी सफर करने से बच रही हैं. भारती की ही तरह अन्य महिलाओं के साथ भी ये हुआ है. भारती बताती हैं कि पुरुष जिस तरह आसानी से कहीं आ जा सकते हैं, महिलाओं के लिए यह संभव नहीं है.

अधिकांश निजी अस्पतालों ने गर्भवती महिलाओं का प्रसव नहीं कराया

छत्तीसगढ़ की प्रसुताओं को कोरोना काल के दौरान निजी अस्पतालों ने सहयोग नहीं किया. उनका प्रसव कराने से इनकार कर दिया.

हद तो ये कि जिन महिलाओं का ट्रीटमेंट प्राइवेट हॉस्पिटल में चल रहा था, उन्होंने भी ऐन वक्त में अपना हाथ खींच लिया. कोरोना संक्रमण के भय से उन्होंने प्रसव नहीं कराया.

पांडातराई की प्रियंका तिवारी बताती हैं कि वह निजी अस्पताल में प्रसव कराना चाहती थीं लेकिन कोरोना के कारण सरकारी अस्पताल में जाना पड़ा. इसी तरह बिलासपुर की पायल साहू बताती हैं कि जिस निजी अस्पताल में उनका पहला बच्चा हुआ, उसने दूसरे बच्चे के लिए अपने अस्पताल के दरवाजे बंद कर दिए. ऐसा कई महिलाओं के साथ हुआ.

आमतौर पर महिलाएं व उनके परिजन साफ-सफाई व सुरक्षा के दृष्टिकोण से निजी अस्पतालों में प्रसव की प्लानिंग करते हैं पर यह सुविधा कोरोना ने उनके हाथ से छीन ली. वहीं सेवा का क्षेत्र कहे जाने वाले चिकित्सा व चिकित्सकों की छवि भी खराब हुई.

प्रदेश में 92166 की जगह केवल 1151 नसबंदी, महिलाओं पर पड़ रहा विपरीत असर

परिवार नियोजन के ढेर सारे उपायों में ऑपरेशन (पुरुष/महिला नसबंदी) सबसे कारगर उपाय है. सरकारी अस्पतालों में इसे दो प्रकार से अंजाम दिया जाता है. एक विधि से ऑपरेशन में अस्थाई नसबंदी होती है, दूसरी में स्थाई तौर पर. यही जनसंख्या नियंत्रण का प्रमुख जरिया है. लेकिन कोविड काल में कोरोना ने परिवार नियोजन की योजना को ध्वस्त कर दिया. पूरे प्रदेश में 92166 की जगह 1151 नसबंदियां हुई.

बिलासपुर जिले में अप्रैल से अक्टूबर तक के सात माह में 7063 नसबंदी के ऑपरेशन तय हुए थे, लेकिन हुए एक भी नहीं. जानकारों का कहना है कि इसका सीधा महिलाओं पर पड़ रहा है. अनचाहा गर्भ के साथ ही अन्य तरह की समस्याओं का सामना महिलाओं को करना पड़ रहा है.

सामान्य बीमारियों में भी अस्पताल पहुंच पाने में भी पिछड़ी महिलाएं

कोरोना के कारण निजी के साथ ही सरकारी अस्पतालों में भी दूसरी बीमारियों के मरीज बहुत कम संख्या में पहुंचे. बिलासपुर के मेडिकल कॉलेज में मार्च तक जहां हर माह ओपीडी में 13 हजार लोग चेकअप के लिए आ रहे थे, वहीं उनकी संख्या अब घटकर तीन हजार हो गई है. उनमें भी महिलाओं की संख्या महज 25 फीसदी है.

यह मेडिकल कॉलेजों से लेकर छोटे सरकारी अस्पतालों तक की स्थिति है. सिमगा के छोटे सरकारी अस्पताल में कोरोना काल के पहले की तुलना में अब महज 20 फीसदी महिलाएं ही चेकअप के लिए आ रही हैं.

महिलाओं में बढ़ रहा स्तन कैंसर

‘दि ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिज़ीज़ स्टडी’ (1990-2016) के अनुसार भारत में महिलाओं में सबसे ज़्यादा स्तन कैंसर के मामले सामने आए हैं. स्टडी के अनुसार महिलाओं में स्तन कैंसर के बाद सर्वाइकल कैंसर, पेट का कैंसर, कोलोन एंड रेक्टम और लिप एंड कैविटी कैंसर मामले सबसे ज़्यादा सामने आ रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में पहले स्तन कैंसर आमतौर पर 45-50 साल की उम्र की महिलाओं में होता था लेकिन अव्यवस्थित दिनचर्या के कारण 25 से 30 साल की युवतियों को भी यह हो रहा है. कहीं-कहीं 17-18 वर्ष की लड़कियों में भी यह देखा जा रहा है. एम्स में पहुंच रहे मरीजों का आंकलन पर यह पता चला कि वहां जांच के लिये पहुंचने वाली सात में से एक महिला में स्तन कैंसर पाया गया है.

लॉकडाउन में अस्पताल से जबरिया डिस्चार्ज भी

अमरकंटक की शशि मोंगरे कैंसर का इलाज करवाने आई थीं. वे फरवरी से मेकाहारा हॉस्पिटल रायपुर में भर्ती थी. अप्रैल में उन्हें डिस्चार्ज कर दिया गया. वे बताती हैं कि वह उस वक्त अकेली थी. लॉकडाउन के कारण घर से भी कोई नहीं आ पा रहा था. उनके अलावा भी कई मरीज वार्ड में थे जो घर जाने के लिए किसी न किसी इंतजाम में लगे थे.

शारदा अग्रवाल पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के अमकरंटक में रहती हैं. वह अपनी मां का इलाज कराने मेकाहारा गई थीं. कोरोना के चलते उनकी मां का ऑपरेशन टल गया.

इस बीच लॉकडाउन लग गया तब से अस्पताल में थीं. डॉक्टर ने घर जाने को कह दिया. लेकिन जाने का कोई साधन नहीं मिल रहा था. दूसरे राज्य से होने के कारण किसी तरह वह घर लौट पाईं. इसी तरह गई लोगों को लॉकडाउन में अस्पताल से निकाला गया और जाने के लिए उन्हें साधन नहीं मिल पा रहा था.

(लाडली मीडिया फेलोशिप के तहत किए गए अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट)

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