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कुछ लोग अभी हैं जो आग बुझाना नहीं भूले !

श्रवण गर्ग
मध्यप्रदेश का इंदौर शहर इन दिनों काफ़ी चर्चा में है. हक़ भी बनता है ! कोरोना संकट के पहले तक कोई तीस लाख की आबादी वाला यह ‘मिनी बम्बई’ सफ़ाई में चौथी बार देश में नम्बर वन आने की तैयारियों में जुटा था. कोरोना ने एक ही झटके में इंदौर के चेहरे से उस हिजाब को हटा दिया, जहाँ हक़ीक़त में कोई भी हाथ नहीं लगा पा रहा था. उजागर हुआ कि जिन इलाक़ों में सफ़ाई हो रही थी, वहाँ सबसे कम गंदगी थी और जहाँ सबसे ज़्यादा कचरा है, वहाँ कोई भी हुकूमत गलियों के अंदर तक कभी पहुँची ही नहीं.

शहर के एक इलाक़े (टाटपट्टी बाखल) में कोरोना संक्रमितों की जाँच के लिए पहुँची मेडिकल टीम पर कुछ रहवासियों द्वारा किए गए हमले ने स्वच्छ इंदौर की भीतर से गली हुई परतों को बेपरदा कर दिया. अमीर खाँ साहब, लता मंगेशकर, महादेवी वर्मा, एम एफ हुसैन, कैप्टन मुश्ताक़ अली, सी के नायडू, बेंद्रे, राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी, आदि का शानदार शहर अचानक ही कुछ ऐसे कारणों से चर्चा में आ गया, जो उसके चरित्र और स्वभाव से मेल नहीं खाता था.

उसे अब महामारी के संक्रमण के साथ-साथ शर्मिंदगी का बोझ भी अपने कंधों पर ढोना पड़ रहा है. पर यहाँ चर्चा उस घटनाक्रम पर है जो इस सब के बाद हुआ है.

टाटपट्टी बाखल कांड के बाद शहर में रहनेवाले और विभिन्न व्यवसायों तथा संस्थाओं से जुड़े मुस्लिम समाज के कोई बीस प्रमुख लोगों ने’माफ़ीनामे और गुज़ारिश’ की शक्ल में आधे पृष्ठ का विज्ञापन एक स्थानीय अख़बार में प्रकाशित करवाया है. विज्ञापन में कहा गया है- ’हमारे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं जिससे हम आपसे माफ़ी माँग सकें, यक़ीनन हम शर्मसार हैं उस अप्रिय घटना के लिए जो जाने-अनजाने अफ़वाहों में आकर हुई.’ यह भी कहा गया है कि जो हो गया है उसे तो सुधार नहीं सकते पर भविष्य में समाज की हर कमी को ख़त्म करने की कोशिश करेंगे.

कहना मुश्किल है कि इस माफ़ीनामे ने शहर की तंग बस्तियों में रहने वाली कोई चार लाख की उस मुस्लिम आबादी पर कोई असर छोड़ा हो जो अपने ही शहर क़ाज़ी की सलाह भी क़ुबूल करने को तैयार नहीं थी. पर इस माफ़ीनामे ने जो और भी बड़ा सवाल पैदा कर दिया है वह यह कि:दिल्ली में तबलीगी जमात के किए के लिए क्या मुस्लिम समाज के राष्ट्रीय स्तर के कुछ प्रमुख लोगों को भी ऐसे ही माफ़ी मांगना चाहिए ?

अब तो जमात के लोगों को पूरे देश में संक्रमण फैलाने का गुनाहगार ठहराया जा रहा है. कुछ लोग अगर ऐसी हिम्मत जुटाते भी हैं तो क्या उसका कोई असर उस जमात पर होगा जो न तो उनके कहे में है और न ही वह उन्हें अपना आधिकारिक प्रवक्ता मानती है ? ऐसे लोगों को शायद मुस्लिम समाज में भी वैसा ही तथाकथित सेक्युलर माना जाता होगा जैसी कि स्थिति बहुसंख्यक समाज में है.

दिल्ली के निज़ामुद्दीन में तबलीगी जमात का जमावड़ा हो या इंदौर के कुछ इलाक़ों में अग्रिम पंक्ति पर तैनात चिकित्सा अथवा पुलिसकर्मियों पर हुई हमलों की घटना, वृहत मुस्लिम समाज के संदर्भों में आगे के लिए जो परिवर्तन नज़र आता है, वह यह है कि तनाव के समीकरण दो धार्मिक समाजों के बीच से मुक्त होकर अब राज्य और एक समाज के बीच केंद्रित हो गए हैं.

एक राष्ट्रीय संकट की घड़ी में अल्पसंख्यक समाज के कुछ लोगों के अनपेक्षित आचरण ने अब उसे दोहरा तनाव बर्दाश्त करने की स्थिति में डाल दिया है. जो राज्य अभी तक उनके घरों के दरवाज़ों पर औपचारिक दस्तकें देकर ही लौटता रहा है, उसे अब उन घरों को अंदर से भी स्वच्छ करने का नैतिक अधिकार प्राप्त हो गया है. पर ऐसी परिस्थितियों में भी अगर कुछ लोग सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगने का साहस दिखा रहे हैं, तो एक ताली तो उनके लिए भी बनती है.

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