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मंगलेश के प्रतिकार में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं रही

व्योमेश शुक्ल | फेसबुक

इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि आज की हिंदी कविता के केंद्रीय महत्त्व के वास्तुकार कवि-गद्य-लेखक मंगलेश डबराल अब हमारे बीच नहीं हैं……

एक बड़े अर्थ में मंगलेश डबराल हिंदी में 1990 के बाद सामने आई युवा लेखकों की उस पीढ़ी के ‘रघुवीर सहाय’ ही थे, जिसने रघुवीर सहाय को नहीं देखा है. कविता, आलोचना, रिपोर्ताज़, यात्रा-संस्मरण, डायरी और संपादकीय जैसे लेखन के अनेक मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहने के अलावा उन्होंने विज़नरी और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की उस कड़ी को बाज़ारवाद, उन्मादी राजनीति और नैतिक अधःपतन की तेज़ झोंक में टूटने से बचाए रखा, जिसका एक सिरा रघुवीर सहाय के पास था. इस सिलसिले में उन्होंने युवा कवियों और पत्रकारों के एक बड़े समूह का निर्माण किया.

शोक और सूनेपन की इस घड़ी में मुख़्तलिफ़ सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर उमड़ी श्रद्धांजलियों से यह बात भी साफ़ है कि आनेवाले समय में भी हिंदी के बहुत-से लेखक-पाठक मंगलेश डबराल के बग़ैर दृश्य की कल्पना नहीं कर पाएँगे. ग़ौरतलब है कि यह सिर्फ़ साहित्यिक मुद्दा नहीं है, बल्कि जीवन, संघर्ष और सुंदरता का एक वृहत्तर दृश्य है, जिसमें उनके व्यक्तित्व को रोज़ याद करते रहने की ज़रूरत बनी रहेगी.

बेशक, उनकी कविता भी रोज़ याद करने की चीज़ है. भारत की साधारणता की ख़ूबसूरती और कोमलता और उसके रास्ते में आनेवाले अवरोध जितनी प्रामाणिकता और भरोसे के साथ उनकी कविता में गुँथे हुए हैं, उसकी मिसाल ढूँढ़ना मुश्किल है. आज की तारीख़ में अगर धर्मनिरपेक्षता समकालीन कविता के सबसे बड़े मुद्दों में-से एक है, तो इतने सीधे और तल्ख़ बिंदु तक ले आने में उनकी मशहूर कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ की केंद्रीय भूमिका है. 1992 और 2002 की घटनाओं से गुज़र चुके भारत में यह कविता कविकर्म का घोषणापत्र है.

यह धर्मनिरपेक्षता उन्हें हिंदी की पूर्ववर्ती कविता से विरासत या उपहार में नहीं मिली, बल्कि अपने साथी कवियों के साथ मिलकर उन्होंने इसे निर्मित किया था. यह प्रोएक्टिव, ग़ैरतात्कालिक, ग़ैरसमझौतापरस्त धर्मनिरपेक्षता अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी दुर्घटना या तबाही का इंतज़ार नहीं करती और स्थापित कलात्मक मूल्यों से अपने लिए किसी रियायत या छूट की माँग भी नहीं करती. इस बात के लिए आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास हमेशा उनका शुक्रगुज़ार रहेगा.

इसी तरह पूरे संकोच के साथ वह हिंदी कविता को बदलते और बढ़ाते रहे. उनके प्रतिकार में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं रही, बल्कि एक नैतिक ज़िद से हमारा सामना होता था, जो अपनी मौलिकता और सादगी से हमें अभिभूत भी कर लेती थी.

मंगलेश डबराल हिंदी साहित्य के ईको सिस्टम से बहुत गहरे जुड़े हुए थे और उसमें किसी चोर दरवाज़े से घुसती चली आ रही कारोबारी मानसिकता और पाखण्ड के प्रदर्शन से बहुत चिंतित रहते थे. दरअसल, वह कभी भी कविता या साहित्य को विज्ञापन या प्रचार की वस्तु मानने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

एक जगह वह लिखते हैं : ‘एक बुलेटिन में आठ या नौ लोकार्पणों की तस्वीरें छपी हैं. एक जैसी मुद्रा में, हाथों में किताबें थामे, उन्हें सीने से सटाये हुए विचार-मुद्रा में खड़े प्रतिष्ठित लोग. फ़िलहाल इसे हिंदी का पेज थ्री भी कहा जा सकता है. अभी वह रंगीन नहीं हुआ है. ऐसे समारोहों में पुस्तकों के रचनाकार प्रायः कुछ नहीं कहते, कुर्सी पर प्रतिमा की तरह बैठे रहते हैं और इस तरह कर्मकांड संपन्न हो जाता है. हिंदी साहित्य में यह कौन-सा युग है ? लोकार्पण युग ?’

सत्तर के दशक की शुरुआत में उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफ़लपानी गाँव से चलकर इलाहाबाद, लखनऊ और भोपाल होते हुए मंगलेश जी दिल्ली पहुँचे ; बचपन, पहाड़ों, नदियों और अतीत के तमाम अनुभवों को अपने सीने में रखकर आजीविका और जज़्बे की ख़ातिर पत्रकारिता में आए और आख़िरी साँस तक एक कवि के साथ-साथ पत्रकार भी बने रहे.

उनकी ज़िन्दगी से यह बात भी सीखी जा सकती है कि लेखक होने के लिए और कुछ नहीं, सिर्फ़ संवेदना और सचाई की ज़रूरत है. वे लोग जो लेखक बनने के सपने में छलाँग लगाना चाहते हैं, उन्हें मंगलेश डबराल की ज़िन्दगी – उनकी मूल्यनिष्ठा, जिज्ञासा, आत्मसजगता, कोमल और अथक हठ और जज़्बे से बहुत-कुछ सीखने और अपनाने को मिल सकता है.

मंगलेश डबराल मोहभंग और परिवर्तन की बेचैनी जैसी ज़िंदा और हिम्मती चीज़ों से बनकर आए थे. लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का एकमात्र पहलू नहीं है. एक नागरिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पराजयों से उनकी आत्मवत्ता लगातार टकराती रही. इस संघर्ष के बरअक्स उन्होंने अपने गद्य लेखन से पॉप्युलर कल्चर की आलोचना और संगीत, यात्रा, भूमंडल, शहरों, आंदोलनों और कविता की समझदारी को मज़बूत और ईमानदार बनाने का काम किया.

उनकी रेंज और जिज्ञासाओं का कोई अंत नहीं था और वह लगातार सीखने की प्रक्रिया में रहते थे. आम तौर पर उनके पाये के लेखक अपनी मान्यताओं और आदर्शों में स्थिर हो जाते हैं, लेकिन उनका मन एक बच्चे की तरह तरल और कोमल था और किसी भी नए ख़याल और प्रयोग के लिए उसमें जगह बाक़ी रहती थी.

मंगलेश डबराल ने अकेलेपन की बजाय सामूहिकता को चुना था. इसलिए उनके मित्रों-परिचितों, पाठकों और प्रशंसकों का संसार बहुत बड़ा है. उसकी थाह लगाना लगभग असंभव है, लेकिन यही बात उन मूल्यों के बारे में नहीं कही जा सकती, जिनके लिए हमने उन्हें जीते-मरते देखा है.

उनके जैसे विचारक–कवि की मृत्यु के बाद जो अप्रत्याशित ख़ालीपन हिंदी कविता की मुख्यधारा में आनेवाला है ; उसे मूल्यों के समर में उतरे बिना भरा नहीं जा सकता. यों उन्मादी राजनीति, भोगवादी सभ्यता और नैतिक पतन का जैसा रचनात्मक और टिकाऊ क्रिटीक उनकी शख़्सियत की मौजूदगी से ही संभव हुआ था, उसकी भरपाई अभी तो क्या, कुछ समय बीत जाने पर भी होती नहीं दिखती.

हिंदी की दुनिया पर अभी बुराई का क़ब्ज़ा नहीं हुआ है; लेकिन अब सच-झूठ के घालमेल, प्रदर्शनपरकता और सत्तात्मक पारस्परिकता से पहले से आक्रांत साहित्य के परिसर में अच्छाई और बुराई के बीच तनी हुई शक्ति-संतुलन की वह नाज़ुक डोर टूट भी जा सकती है; हिंदी के अनोखे कवि-गद्यकार मंगलेश डबराल ने जिसे अपनी कविता और कविता जैसे गद्य से सँभाला था.

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