ताज़ा खबरविविध

गुजरात के सबक

गुजरात के चुनावी नतीजों की व्याख्या के काफी समय बाद तक इसका असर दिखेगा. सिर्फ इसलिए नहीं कि नतीजे उम्मीद से परे थे. सच्चाई तो यह है कि नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही रहे. भारतीय जनता पार्टी का जीतना ही था और वह जीती. लेकिन जीत बड़ी नहीं रही. उसने कांग्रेस को हराया जरूर लेकिन जमींदोज नहीं किया. भाजपा को नुकसान हुआ लेकिन उसे रोका नहीं जा सका.

गुजरात के विजय के बाद भारत के 29 राज्यों में से भाजपा के पास 19 राज्य हैं. संसद में तो वह बहुमत में है ही. दो दशक से भी पहले 26 राज्यों में से 16 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी. तो क्या भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा होने को है? लेकिन गुजरात के नतीजे कुछ अलग ही कहानी कह रहे हैं. कहां तो 182 सीटों में से दो-तिहाई जीतने की बात भाजपा कर रही थी और कहां वह 99 सीटों पर सिमट गई. यह बहुमत से सात ही अधिक है. हालांकि, भाजपा का मत प्रतिशत बढ़ा है. भाजपा का समर्थक वर्ग गुजरात में उसके साथ बना हुआ है और न ही कांग्रेस और न ही सत्ता विरोधी लहर इसे प्रभावी तौर पर हिला पाई है.

गुजरात से भविष्य के लिए कई संकेत उभर रहे हैं. पहली बात तो यह कि विकास के जिस गुजरात मॉडल का बखान 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने किया था, वह दोषपूर्ण है. इसमें कुछ शहरी क्षेत्रों की विकास प्रमुख है. बाकी इसकी चकाचैंध में छिपे रहेंगे. गुजरात में शहरी और ग्रामीण अंतर स्पष्ट दिखता है. भाजपा के अधिक सीटें शहरों में मिलती हैं. जबकि ग्रामीण क्षेत्र इस विकास मॉडल में पिछड़ा हुआ है. गुजरात के गांवों ने विपक्षी पार्टी को वोट दिया. इसी तरह की स्थिति राजस्थान में भी दिख रही है. जहां कांग्रेस को सत्ताधारी भाजपा से अधिक वोट स्थानीय चुनावों में मिले हैं.

दूसरी बात यह सामने आ रही है कि भाजपा को हराना नामुमकिन भले न हो लेकिन बेहद मुश्किल है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की टीम किसी चीज को निश्चित मानकर नहीं चलती. कांग्रेस जब जगी उसके काफी पहले से वे तैयारी कर रहे थे. विचारधारा वाली पार्टी सिर्फ रैलियों से चुनाव नहीं जीतती बल्कि उसे अपना मजबूत संगठन चुनाव में जीत दिलाता है. कांग्रेस का कोई संगठन नहीं था. अभी भी राज्य स्तर पर उसके पास कोई नेतृत्व नहीं है. इसलिए कांग्रेस को यह मानकर चुपचाप नहीं बैठ जाना चाहिए कि उसने कड़ी टक्कर दी.

तीसरी बात यह कि अलग-अलग समूहों की नुमाइंदगी करने वाले तीन नौजवानों ने लोगों का और मीडिया का खूब ध्यान खींचा. इसका लाभ कांग्रेस को मिला. लेकिन यह पर्याप्त नहीं था. दलितों की बात करने वाले जिग्नेश मेवाणी, पटेलों की बात करने वाले हार्दिक पटेल और अन्य पिछड़ा वर्ग के एक समूह की बात करने वाले अल्पेश ठाकोर ने चुनावों को रोचक बनाया. लेकिन उस वक्त भी यह दिख रहा था और अब भी दिख रहा है कि ये सभी एक नहीं हो पाए. संभव है कि आने वाले दिनों में ये एक विकल्प के तौर पर उभरें. लेकिन मेवाणी के अलावा दूसरों में व्यापक दृष्टिकोण का अभाव दिखता है और ऐसे में तीनों का एक साथ आकर भाजपा का विरोध करना आसान नहीं है.

चैथी बात यह कि भले ही भाजपा गुजरात में जीत गई हो लेकिन पार्टी बैठक में मोदी के भाषण से स्पष्ट है कि भाजपा चुप नहीं बैठने वाली. हर हारी हुई सीट की व्याख्या होगी और भविष्य में सुधार के लिए जरूरी काम किए जाएंगे. किसानों की समस्या का अंदाज केद्र सरकार को लगा है. ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केद्र सरकार कई निर्णय इस दिशा में ले. विपक्षी दलों को अगर भाजपा का मुकाबला करना है तो भाजपा की तरह प्रतिबद्धता और रणनीतिक क्षमता उन्हें विकसित करनी होगी. गुजरात से हमें यह सबक मिलता है कि सरकार के प्रति नाराजगी होने के बावजूद अगर मजबूत विकल्प नहीं हो तो जनता सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ नहीं जाती.

यह स्पष्ट है कि अच्छे दिन और सबका साथ, सबका विकास की उम्मीदें धुंधली हो रही हैं. लेकिन भाजपा मतदान के जरिए जिस ‘बदले’ की अपील कर रह है, वह कारगर साबित हो रहा है. प्रगतिशील ताकतों के लिए यह चुनौती है कि हिंदुत्व विरोधी राजनीतिक मंच पर मुस्लिम, दलित और वंचितों को लाया जाए. गुजरात में कांग्रेस ने जो किया, वह नाकाम रहा. वहां कांग्रेस भाजपा का नकल करती दिखी. ये बहुत बुरा होगा अगर यही माॅडल भविष्य में भी अपनाया गया. क्योंकि बहुसंख्यकवाद की राजनीति में भाजपा पहले से काफी मजबूत है.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!