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राजस्थानी, भोजपुरी विरोधी हिन्दी प्रेम के निहितार्थ

अनिल चमड़िया
केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह जी ने सुनी हिन्दी प्रेमियों की गुहार ! इस शीर्षक से ये लगता है कि हिन्दी की दूर्दशा को लेकर प्रेमियों ने मंत्री के सामने अपनी भावनाएं बताई होगी. सरकारी विभागों में हिन्दी दोयम दर्जे की भाषा के रूप में इस्तेमाल की जाती है. हालात ये हैं कि सरकारी विभाग अंग्रेजी में ही सोचता है और फिर संवैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने की बाध्यता हो तो उसका अनुवाद कराने का जुगाड़ करता है.

मोदी सरकार ने जितने कार्यक्रमों को लोकप्रिय किया है उनका नामकरण अंग्रेजी में मिलता है. भूमंडलीकरण में अंग्रेजी एक छलावा देने की भाषा के रूप में मुफीद साबित हो रही है. सरकार ने जब कर-एक, राष्ट्र एक का नारा देकर जीएसटी लागू किया तो यह करोबार अंग्रेजी में ही किया गया. इन्हीं हिन्दी प्रेमियों ने राजभाषा के सचिव को एक पत्र लिखकर शिकायत की है कि वस्तु एवं सेवा कर संबंधी बेवसाईट, ऑनलाइन सेवाएं, प्रारूप ( फार्म ) मैनुएल, विवरणी (रिटर्न) ऑन लाइन पंजीयन आदि अंग्रेजी में है. इस तरह हिन्दी की राष्ट्रीय भाषा के रूप में हालात को समझा जा सकता है.

यह भाषा वस्तुत: अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है. लेकिन गृहमंत्री से यह मुलाकात यह शिकायत करने के लिए की गई कि संविधान में भोजपुरी, राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने से हिन्दी को नुकसान होने जा रहा है. इस मुलाकात का शीर्षक ये होना चाहिए था कि राजस्थानी और भोजपुरी के खिलाफ हिन्दी प्रेमियों की गृहमंत्री से मुलाकात.

यह कोशिश लंबे समय से की जा रही है कि संस्कृत को सभी भाषाओं के मूलस्रोत के रूप में स्थापित किया जाए और जितनी भाषाएं देश में है, उन्हें हिन्दी की एक बोली के रूप में स्थापित किया जाए. जैसे महात्मा बुद्ध को हिन्दू देवी देवताओं के नए अवतार के रूप में स्थापित करने की कोशिश होती रही है. इस मुलाकात की जरुरत उस समय भी नहीं महसूस की गई जब आकाशवाणी से राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में होने वाले समाचारों के प्रसारण के केन्द्रों को दिल्ली में बंद करने का फैसला किया. इस फैसले का उद्देश्य उन्हें स्थानीय भाषा करार दने की दीर्धकालीन योजना है.

आकाशवाणी के समाचार कक्ष में विभिन्न भारतीय भाषाओं में राष्ट्रीय समाचार देने का एक केन्द्र स्वतंत्रता के बाद विकसित किया गया था और उसका उद्देश्य ये था कि सभी भाषाएं न केवल एक सामान खुद को महसूस करें बल्कि वे एक दूसरे के निकट भी आए. लेकिन जब केन्द्र में पहली बार हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्थान की विचारधारा में विश्वास करने वाली पार्टी की सरकार बनी तो आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण केन्द्र से हिन्दी के अलावा अन्य राष्ट्रीय भाषाओं की विदाई करने का फैसला किया गया. इस सरकार को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन की सरकार के रूप में याद किया जाता है.

हिन्दी प्रेमियों ने भोजपुरी, राजस्थानी को संविधान की अनुसूची में शामिल करने से रोकने की जरुरत के पक्ष में ये तर्क दिया कि “हिन्दी भाषी क्षेत्र की जनता द्विभाषिक होती है. घरों में भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि बोली जाती हैं और लिखने पढ़ने का सारा काम हिन्दी में होता हैं. यहां के लोगों की बुनियादी शिक्षा हिन्दी में होती है, इसलिए भोजपुरी ,राजस्थानी भाषी आदि कहना न्याय संगत नहीं है.”

पहली बात तो बुनियादी शिक्षा हिन्दी में होती है ये कहना शायद तथ्यात्मक रूप से अब सही नहीं है. जिस भूभाग को हिन्दी पट्टी कहा जाता है, वहां अंग्रेजी माध्यमों के विद्यालयों में बच्चे पढ़ने के लिए भेजे जाते हैं. स्नातक स्तर के विद्यार्थी व्याकरण के लिहाज से हिन्दी कतई शुद्ध नहीं लिख पाते हैं. कथित हिन्दी प्रेम की सरकारों ने भी प्रारम्भिक स्तर पर शिक्षा में अंग्रेजी को शामिल करने का फैसला किया है. यदि यहां दो भाषी कहने का ये अर्थ है कि एक तो बोली है जिसमें बातचीत की जाती है और दूसरा कामकाज की भाषा को ही हिन्दी कहते हैं. यानी कामकाज के माध्यम को तो भाषा कहते है और अन्य बोलियां होती है. यदि यह पैमाना है तो फिर ये भी स्वीकार करना चाहिए कि अंग्रेजी इस देश और सरकार की एक मात्र भाषा है क्योंकि सरकार का अधिकांश काम बुनियादी रूप से अंग्रेजी में ही होता है लेकिन वहां बोलने में हिन्दी का इस्तेमाल ज्यादा उसी तरह किया जाता है.

ये भी तथ्य याद रखना चाहिए कि घरों का दिमाग अंग्रेजी की तरफ होता है और ये माना जाता है कि अंग्रेजी सिखने से ही भविष्य में आर्थिक व सामाजिक उन्नति हो सकती है. जिस समय देश में बुनियादी शिक्षा के प्रसार प्रसार या साक्षर बनाने के कार्यक्रम देश में चलाए जा रहे थे तब ये तथ्य सामने आया था कि समाज की जिस आबादी को पढ़ने लिखने से अब तक वंचित रखा गया है, उन्हें पढ़ाने लिखाने के लिए जरुरी है कि उनकी भाषा और शब्दों का इस्तेमाल किय़ा जाए.

मध्यप्रदेश में अनूपपुर के आसपास हमने खुद स्कूलों में जाकर ये अध्ययन किया कि वहां बच्चे तभी पढ़ने में अपनी रूची दिखा रहे हैं जब उनकी भाषा को माध्यम बनाया जा रहा है. भोजपुरी व राजस्थानी में साहित्य का स्तर दुनिया की विभिन्न भाषाओं की तरह ही बेहद सम्मानजनक रहा है. भोजपुरी में राहुल सांकृत्यायन और राजस्थानी में विजयदान देथा का उल्लेख यहां किया जा सकता है.

दूसरी बात कि किसी भी ऐसी भाषा को बोलियों में स्थानांतरित किया जा सकता है, जिनमें कारोबार करने पर बाधाएं खड़ी की जाए. हिन्दी शोध की भाषा नहीं है तो इसीलिए कि उसे उस रूप में विकसित नहीं होने दिया गया. हिन्दी विज्ञान, कानून की भाषा नहीं बन सकी. और वह दो स्तरों पर नहीं करने दिया गया. एक तो आर्थिक व राजनीतिक तौर पर वर्चस्व रखने वाले वर्ग ने नहीं होने दिया तो दूसरी तरफ सामाजिक वर्चस्व रखने वाले वर्ग ने बहुसंख्यक आबादी की चेतना व भावनाओं के अनुरूप हिन्दी का ढांचा खड़ा करने से परहेज किया. उसके कारण भी स्पष्ट हैं कि उससे उनके वर्चस्व को चुनौती मिलने का खतरा होता.

हिन्दी प्रेमियों का गुट सरकार पर ये दबाव नहीं दिखाता कि वह हिन्दी और दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं में अपना काम करें. हिन्दी के लिए आंदोलन करना पड़ता है. गैर हिन्दी भाषियों को अपनी भाषाओं के लिए संघर्ष करना पड़ता है. ये संघर्ष अक्सर हिन्दी विरोधी दिखता है जबकि वास्तव में ये राष्ट्रीय भाषाओं के लिए संघर्ष होते हैं. हिन्दी प्रेमियों को शायद ये भी जानकारी देनी चाहिए कि देश में केन्द्र सरकार के अधिकत्तर विश्वविद्यालयों में अभी तक हिन्दी में विश्वविद्यालय के नियम उपलब्ध नहीं है. हिन्दी में ये सूचनाएं भी उपलब्ध नहीं है कि विश्वविद्यालयों में दाखिले से लेकर पाठ्यक्रम पूरा करने की क्या प्रक्रियाएं होती है.

हिन्दी प्रेमी गृहमंत्री से राजस्थानी व भोजपुरी को शामिल नहीं कर आठवीं अनुसूची की यथास्थिति में रखने की मांग कर रहे हैं लेकिन यह वास्तव में भारतीय भाषाओं को यथास्थिति में रखने की गुहार है और इस यथास्थिति का अर्थ यह भी है कि उनका कामकाज और सोचने विचारने के क्षेत्रों से लगातार बेदखली को जारी रखा जाए.

सबसे शर्मनाक तो हिन्दी प्रेमियों का यह कहना है कि राजस्थानी व भोजपुरी को संविधान की अनुसूची में शामिल करने का मतलब हिन्दी का विभाजन है. ये 1947 से पहले देश के विभाजन की भाषा का दोहराव है. राजस्थानी, भोजपुरी या दूसरी ऐसी भाषा को संविधान में शामिल करने के फैसले को विभाजन मानना ठीक उसी भाषा का हिस्सा है, जब सामाजिक व शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े लोगों को सरकारी सेवाओं में विशेष अवसर यानी आरक्षण देने के फैसले को समाज के विभाजन के रूप में पेश किया जाता है. भाषाएं या समाज का वंचित हिस्सा यथास्थिति में रहे तभी उसे वर्चस्वादी वर्ग वाले समाज से जुड़ा माना जाता है? विकेन्द्रकरण विभाजन नहीं होता है.

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