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भूख का आंकड़ा क्यों बढ़ा?

देविंदर शर्मा
ऐसे समय में, जब वैश्विक खाद्य भंडार 72.05 करोड़ टन के साथ रिकॉर्ड तेजी से बढ़ रहा है, एक परेशान करने वाली खबर आई है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन का आकलन है कि पिछले 15 वर्षों में पहली बार भूख का आंकड़ा बढ़ा है. 2015 में जहां दुनिया भर में 77.7 करोड़ लोग भूख के शिकार थे, वहीं 2016 में यह संख्या बढ़कर 81.5 करोड़ पहुंच गई. आज विश्व खाद्य दिवस है, मगर घरेलू मोर्चों पर भी हमें कोई उत्साहित करने वाली तस्वीर नहीं दिख रही.

इस वर्ष के वैश्विक भूख सूचकांक पर एक निगाह डाल लीजिए. इसमें भारत तीन पायदान नीचे आया है और हम उत्तर कोरिया से भी पिछड़ गए हैं. 119 देशों के आंकड़ों को मिलाकर तैयार इस सूचकांक में भारत सौवें स्थान पर है और इसे ‘गंभीर श्रेणी’ में रखा गया है. रिपोर्ट कहती है कि ‘चूंकि दक्षिण एशिया की तीन-चौथाई आबादी भारत में रहती है, इसलिए इस देश में भूख के हालात दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय सफलता पर व्यापक असर डालते हैं.’

जाहिर है, भूख से लड़ने के मामले में भारत की इस शर्मनाक तस्वीर ने दक्षिण एशिया को इस मोर्चे पर पीछे धकेल दिया है. हालांकि पाकिस्तान को छोड़कर दक्षिण एशिया के तमाम देशों का प्रदर्शन इसमें अच्छा दिख रहा है. सूचकांक में पाकिस्तान जहां 106वें पायदान पर है, तो चीन 29वें, नेपाल 72वें, म्यांमार 77वें, श्रीलंका 84वें और बांग्लादेश 88वें स्थान पर.

एक साल पहले भी भारत इस सूची में 97वें स्थान पर था. तब 118 विकासशील देशों को मिलाकर यह सूचकांक तैयार किया गया था और हम हमेशा की तरह पाकिस्तान को छोड़कर अपने तमाम पड़ोसियों से पीछे थे. 12 साल पहले 2006 में जब पहली बार यह सूची बनी थी, तब भी हमारा स्थान 119 देशों में 97वां था. जाहिर है, 12 साल बाद भी हम जहां थे, वहीं पर खड़े हैं. इस साल जीडीपी विकास दर के कुछ नीचे जाने के दावे किए जा रहे हैं, जिसे सरकार महज तात्कालिक गिरावट बता रही है, मगर इन 12 वर्षों में भारत का जीडीपी औसतन आठ फीसदी रहा है, फिर भी देश में भूख की समस्या बढ़ी है. साफ है, तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद देश में भूख की प्रवृत्ति लगातार बनी हुई है.

ज्यादा भूख का मतलब है, ज्यादा कुपोषण. देश में कुपोषण की दर क्या है, इसका अगर अंदाज लगाना हो, तो लंबाई के हिसाब से बच्चों के वजन का आंकड़ा देख लेना चाहिए. आज देश में 21 फीसदी से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. दुनिया भर में ऐसे महज तीन देश जिबूती, श्रीलंका और दक्षिण सूडान हैं, जहां 20 फीसदी से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. जब किसी देश का 21 फीसदी बचपन कुपोषण से जूझ रहा है, तो किस बुनियाद पर उसके महान आर्थिक भविष्य का दावा किया जा रहा है, यह सोचने का विषय है?

देश की यह बदहाल तस्वीर यहीं नहीं थमती. राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो हमें एक ऐसी कटु सच्चाई से रूबरू कराता है, जिसे हम शायद ही जानना चाहेंगे. ग्रामीण भारत का खान-पान अब उससे भी कम हो गया है, जैसा 40 वर्ष पहले था. रिपोर्ट के अनुसार, 1975-79 की तुलना में आज औसतन ग्रामीण भारतीय को 500 कैलोरी, 13 ग्राम प्रोटीन, पांच मिलीग्राम आयरन, 250 मिलीग्राम कैल्सियम व करीब 500 मिलीग्राम विटामिन-ए कम मिल रहा है. यह वही ग्रामीण भारत है, जहां देश की लगभग 70 फीसदी आबादी बसती है. अगर वहां खाद्य पदार्थों की मात्रा कम हुई है और वे कुपोषण से जूझ रहे हैं, तो यह खतरे की घंटी है. मगर दुखद है कि इस शर्मनाक स्थिति पर कोई बहस करता नहीं दिखता, मीडिया भी नहीं.

इसी तरह, तीन वर्ष से कम उम्र के नौनिहालों को औसतन 80 मिलीलीटर दूध ही रोजाना मिल पाता है, जबकि उन्हें जरूरत 300 मिलीलीटर की है. इन आंकड़ों से अंदाज लगाइए कि आखिर क्यों उस सर्वे में 35 फीसदी ग्रामीण वयस्क कुपोषित पाए गए और 42 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के? क्या यह आधी रात को संसद सत्र बुलाने की ठोस वजह नहीं होनी चाहिए थी?

हालांकि ऐसा कुछ करने की बजाय साल 2015 में इस राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो को ही भंग कर दिया गया, जबकि 1972 में अपने गठन के बाद से यह लगातार काम कर रहा था. अपने यहां जहां हर छह महीने में आर्थिक विकास को मापा जाता है, पोषण संबंधी सर्वे 10 साल में एक बार किए जाते हैं. फिर भी इसके आंकड़े सुखद नहीं आते. ये आंकडे़ आर्थिक विकास की हमारी गाथा को दागदार बनाते हैं. लगता है, कुपोषण के आंकड़े आर्थिक विकास के अंकगणित की चमक-दमक में कहीं छिपा दिए गए हैं.

सही है कि भूख से लड़ना एक जटिल व चुनौतीपूर्ण काम है, मगर यह असंभव भी नहीं है. ऐसा नहीं है कि इसे लेकर सोचा नहीं गया. एक के बाद दूसरे प्रधानमंत्री ने भूख से लड़ने की अपनी नेकनीयती दिखाई है. फिर चाहे वह इंदिरा गांधी हों, जिन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया, या मनमोहन सिंह, जिन्होंने कुपोषण को ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताया, या फिर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने अपनी सरकार को गरीबों के प्रति समर्पित बताया है, फिर भी अब तक उपयुक्त आर्थिक नीति नहीं बन सकी है. हमारे नौकरशाह दुर्भाग्य से उस कॉरपोरेट सोच में उलझ गए हैं, जो ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांत के चश्मे से गरीबी हटाने की बात कहती है. जबकि बड़े औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाकर आर्थिक विकास का सपना देखने वाला यह मॉडल दुनिया भर में विफल माना जाता है.

गरीबी, भूख और कुपोषण से लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती, जब तक कि कृषि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाएगा. एक हालिया अमेरिकी अध्ययन बताता है कि शहरों में इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने पर किए जाने वाले निवेश की तुलना में कृषि में लगाई गई पूंजी गरीबी मिटाने में पांच गुना अधिक प्रभावी होती है. यह वाकई एक उल्लेखनीय नतीजा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि भारतीय अर्थशास्त्री, नीति-निर्माता और नौकरशाह वैचारिक रूप से बाजार के सुधारों के लिए प्रतिबद्ध हैं और कृषि व सामाजिक क्षेत्र में निवेश को जान-बूझकर कम कर रहे हैं. अगर हम चाहते हैं कि 2022 तक देश में कोई भी भूखा न रहे, तो हमें कृषि में सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा देकर खेती-बाड़ी को फिर से जिंदा करना चाहिए. सच भी यही है कि कृषि क्षेत्र ही ‘सबका साथ, सबका विकास’ की संकल्पना साकार कर सकता है.
*लेखक देश के शीर्ष कृषि और खाद्य विशेषज्ञ हैं.

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