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तिरंगे झंडे की संवैधानिक इबारत!

कनक तिवारी | फेसबुक
राजनीतिज्ञों के रंग ढंग ठीक नहीं हैं. बेचारे रंगों ने भी उनका क्या बिगाड़ा है? जीवन में रंग, रस, स्वाद ज़रूरी हैं. सूर्य से सात रंग (वैज्ञानिक दृष्टि से पुष्ट), मनुष्य को सांस्कृतिक भी बनाते हैं. रंगों को लेकर देश में कभी चित्रकारों, रंगरेजों या प्राकृतिक वैज्ञानिकों के सम्मेलन नहीं हुए जिनमें रंगों के विन्यास, प्रेषणीयता, सामाजिक व्यवहार आदि को लेकर कुछ तय किया जाता. राजनीतिक आंदोलनों में रंग संविधान सभा की बहसों में परवान चढ़े थे. वह राष्ट्रध्वज की तिरंगी बानगी का एक अनिवार्य, संवैधानिक और राष्ट्रीय तादात्म्य इतिहास में अपनी पहचान सुरक्षित कर चुका.

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा में राष्ट्रध्वज संबंधी प्रस्ताव पेश करते जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के तिरंगे झंडे को राष्ट्रध्वज बनाए जाने को लेकर भी सचेत थे. धर्मनिरपेक्ष नेहरू को झंडे के रंगों को लेकर भूमिका बांधनी पड़ी कि राष्ट्रध्वज में स्वाधीनता आंदोलन के अर्थात गहरा केसरिया, सफेद और गहरा हरा रंग है. नेहरू ने कहा कि अमुक रंग अमुक संप्रदाय का द्योतक कहना बिलकुल गलत है.

जब झंडे का रूप सोचा गया था, तब सांप्रदायिक विचार कहीं नहीं था. गांधी जी द्वारा दिए गए चरखे के प्रतीक की जगह अशोक चक्र को अंकित किया जाता, क्योंकि अशोक पहला शासक था जिसके शासन काल में भारत के राजदूत सुदूर विदेशों में शांति सदाचरण और शुभकामना का संदेश लेकर गए थे. कांग्रेस के सेठ गोविन्ददास ने धर्मनिरपेक्षता के मामले में नेहरू की तरह वामपंथी नहीं होने पर भी उन्हें दो बातें कहीं कि भगवा रंग केवल हिन्दुओं का नहीं है.

दूसरी यह कि हरा रंग केवल मुसलमानों का नहीं है, 1857 के स्वतंत्रता युद्ध के झंडे का रंग था. पेशवाओं और राजपूतों के युद्ध में केसरिया बाना और केसरिया झंडा रहा है. महाभारत के युद्ध में अर्जुन और कर्ण के रथों की पताका का कोई रंग नहीं था. हरिविष्णु कामथ ने सुझाव दिया था कि सफेद पट्टी के केन्द्र में चक्र के अंदर स्वस्तिक का निशान अंकित हो, जो प्राचीन भारत में ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्‘ का प्रतीक है.

मौलवी सैय्यद मोहम्मद सादुल्ला ने समर्थन में कहा केसरिया रंग हिन्दुओं और मुसलमानों का अर्थात् साधुओं, संन्यासियों, पीरों और पंडितों का है जो आध्यात्मिक त्यागी जीवन बिताते हैं. हरा रंग स्वतंत्रता आन्दोलन में बहादुरशाह द्वारा लोकप्रिय किया गया. अलबत्ता मुसलमान मोहम्मद पैगंबर के वक्त से हरे रंग के झंडे के नीचे रहे हैं.

ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास के एच. जे. खांडेकर ने भगवा रंग का सामाजिक, राजनीतिक प्रयोग शिवाजी के झंडे में देखा. उस झंडे के नीचे दलितों ने लाखों की तादाद में कुर्बानियां कीं. ओडिशा के लक्ष्मीनारायण साहू को तिरंगे झंडे में पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ का नीला, बलराम का सफेद और सुभद्रा देवी का पीला रंग याद आया. असांप्रदायिकता के तर्कों को सुनने के बावजूद मद्रास के एस. नागप्पा ने तीनों रंगों को हिन्दू, मुसलमान और ईसाई धर्मों के प्रतीकों के रूप में ढूंढ़ा. अब यह कांग्रेस का झंडा नहीं कहलाएगा.

पंडित गोविन्द मालवीय ने रंगों को लेकर इतिहास बोध में डूबने की कोशिश की. ऐसा लगता है गोविन्द मालवीय की वक्तृता आज भी जीवित है. उन्होंने कहा कि सुनाई पड़ता है कि तिरंगे झंडे में हिन्दू धर्म ऊपर की पट्टी पर है. मालवीय के अनुसार झंडे का रंग अरुण होना चाहिए.

अथर्ववेद में लिखा भी है ‘‘अरुणाहः संतु केतवः.‘‘ अरुण अर्थात लाल रंग हिन्दुओं के झंडे का रंग है. वह सूर्य और अग्नि का रंग है. सफेद रंग चंद्रमा का और हरा रंग बुध नक्षत्र का रंग है. यही बुध हिन्दू भावनाओं के अनुसार गणेश माने जाते हैं. मालवीय ने कहा हरे रंग को मुसलमान दोस्त भी अपना रंग मान लें. वह समाज की समृद्धि और सम्पत्ति का द्योतक है.

सबसे अलग हटकर मोहम्मद षरीफ ने कहा कि सफेद, केसरिया और हरे रंग क्रमश: गैरमतलबपरस्ती, पवित्रता और त्याग के प्रतीक हैं. इन रंगों का हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी और सभी आदर करते हैं.

रंग बिरंगी बहस वाली संविधान सभा में बार बार ऐसे भावुक मसले को लेकर सदस्य सरोजिनी नायडू के भाषण को सुनने की यह कहकर जिद करते रहे कि हम अपनी वृद्धा माता का भाषण सुनना चाहते हैं और यह कि हम बुलबुले हिंद का भाषण सुनना चाहते हैं. अध्यक्ष की आसंदी पर बैठे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भी चुटकियां लेते हुए कहा वे उनको सबके अंत में बुलाएंगे क्योंकि उनका बड़ा मधुर भाषण होगा. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने यह भी कहा कि हमें पुरानी प्रथा के अनुसार मीठे से ही अंत करना चाहिए.

सदस्यों की अपेक्षा के अनुसार सदैव की तरह सरोजिनी नायडू ने दुर्लभ भाषण देते कहा वे स्त्री और कवि होते हुए भी गद्य में पूछ रही हैं कि क्या इस्लाम भारत में भाईचारे के आदर्श नहीं लाया? क्या पारसी अपने अग्नि देवालय से दृढ़ साहस नहीं लाए? क्या ईसाईयों ने गरीबों और दलितों की सेवा करने का सबक सबको नहीं सिखाया? क्या सनातन हिन्दू धर्म ने मनुष्य मात्र को संपूर्ण प्रेम करना नहीं सिखाया?

उन्होंने बताया कुछ माह पहले ही बर्लिन की अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस में 42 राष्ट्रों ने अपनी सदस्यों को भेजा. वहां वे एक दिन राष्ट्रीय झंडों की परेड करने की योजना बना रही थीं. भारत का कोई सरकारी झंडा नहीं था. मेरे सुझाव पर भारतीय सदस्यों ने अपनी साड़ियों में से पट्टियां फाड़ीं और वे सारी रात तिरंगा झंडा बनाने में लगी रहीं, जिससे कि राष्ट्रीय झंडे की अनुपस्थिति में हमारे देश का अपमान न होने पाये……

भौतिक विज्ञान की दृष्टि से सांस्कृतिक या वैज्ञानिक इंद्रधनुष के मूल रंग होते हैं बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल (अरुण). रंगों के संप्रेषण में लाल रंग पर हिन्दू को ऐतिहासिक गर्व है. वही रंग दुनिया में कम्युनिस्ट क्रांतियों का भी है. मसलन कट्टर हिन्दूवाद और नक्सलवाद के संघर्ष में क्या दोनों ओर लाल झंडा ही होना चाहिए?

आज़ादी के आंदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ में प्राथमिक पाठशाला के एक अज्ञात शिक्षक ने सत्याग्रहियों के लिए मार्मिक गीत लिखा था. उसका शीर्षक था ‘‘रणभेरी बज उठी वीरवर, पहनो केसरिया बाना.‘‘ इस गीत को सुनकर रायपुर में रविशंकर शुक्ल की अगुआई में कांग्रेस का आंदोलन अपने क्वथनांक तक पहुंच गया था. भगतसिंह के लिए जो बासंती चोला प्रचारित है, उसे भी कुर्बानी का केसरिया बाना समझा गया. बकौल डॉ. राधाकृष्णन लाल, नारंगी और केशरिया रंग तो त्याग की भावना प्रदर्शित करते हैं. रंगों का गलत, नीयतन और प्रचारात्मक प्रयोग जीवन की समझ को बदरंग बना सकता है.

गेरुआ, भगवा और केसरिया तीनों शब्द एक ही रंग के प्रचारित नाम हैं. एक अरसे से ये शब्द विचारधाराओं के रंगरेज बनाए गए हैं. हरा रंग पारंपरिक रूप से मुसलमानों ने हथिया लिया है. बेचारे रंग जुदा जुदा विचारधाराओं के प्रिय बने रहने का इतिहास ढोए चल रहे हैं. इनसे दिलचस्प सियासी अर्थ भी निकलने लगते हैं. राजनीति तो गिरगिट की तरह रंग बदलती है. इन तीनों रंगों का पुण्य राजनीतिक हैसियत में भी तब्दील हो जाता है.

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