राष्ट्र

इरोम के अनशन के 13 साल

मालोम | एजेंसी: AFSPA कानून के विरोध में इरोम का अनशन 13 साल से जारी है. रविवार के दिन इरोम के अनशन के 13 वर्ष पूरे हो गये हैं. उसके बाद भी अनशन कर रही इरोम को अब लौह महिला कहा जाने लगा है. उल्लेखनीय है कि मणिपुर के मालोम के एक बसअड्डे पर 10 लोगों की हत्या असम राइफल्स के जवानों से होने के विरोध में अनवरत अनशन करते हुए ‘लौह महिला’ इरोम चानू शर्मिला ने रविवार को भूख हड़ताल के 13 साल पूरे कर लिए.

मणिपुर की राजधानी इंफाल से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित मालोम बसअड्डे पर बना ‘मालोम हत्याकांड’ स्मारक 13 साल से सूना और उपेक्षित पड़ा है. वहां पर अब लंबी-लंबी घास और पेड़ उग आए हैं.

हादसे वाले दिन 10 लोग बस का इंतजार कर रहे थे, तभी एक प्रतिबंधित संगठन के लोगों द्वारा जवानों पर घात लगाकर किए गए हमले के जवाब में असम राइफल्स के जवानों ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं. इस घटना में बस का इंतजार कर रहे 10 लोग नाहक मारे गए.

इसी घटना के बाद से शर्मिला चानू की विरोध यात्रा शुरू होती है. वह आज भी अनशन पर हैं और 1958 में बने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम, अफस्पा को मणिपुर से हटाने की मांग कर रही हैं.

मानवाधिकार के लिए संघर्षरत शर्मिला अब एक प्रतिष्ठित महिला हैं. उन्हें भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया से समर्थन मिल रहा है.

लेकिन सरकार की मंशा मणिपुर और अन्य उत्तरपूर्वी राज्यों से अफस्पा हटाने की नहीं दिख रही है, और इसीलिए शर्मिला अपना विरोध जारी रखे हुई हैं.

शर्मिला ने बताया कि उनके अनवरत अनशन का उद्देश्य स्वयं को मारने का बिल्कुल नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से वह अपनी मांग की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं.

उन्होंने बताया कि अफस्पा एक कठोर कानून है और इससे दोषी लोगों से ज्यादा आम नागरिक प्रभावित होते हैं.

उन्होंने कहा, “मुझे जीना है. क्या मैंने कभी अपनी जान लेने की कोशिश की? मुझे ऐसा करना चाहिए?”

शर्मिला पर हालांकि अपनी ही जान लेने का आरोप है. वह बार-बार गिरफ्तार हुई हैं और जैसी ही वह जेल से बाहर आती हैं, फिर से अनशन शुरू कर देती हैं. हालत बिगड़ती है तो फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है खुद को खत्म करने के प्रयास के जुर्म में.

अगस्त में इंफाल की अदालत ने कहा कि इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है जो यह साबित कर दे कि शर्मिला अपने आप को खत्म करने के लिए अनशन कर रही हैं.

इस साहसी महिला ने कानून का सामना करने की हिम्मत कर ली है. वह कहती हैं, “मैं अपनी दलीलें खुद पेश करने के लिए तैयार हूं. अफस्पा को यहां से हटाने के लिए मैं आवाज उठाती रहूंगी. कभी न कभी कोई तो सुनेगा”

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस कानून के माध्यम से सस्शत्र बलों को विशेषाधिकार मिल जाता है.इस कानून के तहत सैन्‍य बलों को किसी व्‍यक्ति को बिना वारंट के तलाशी या गिरफ्तार करने का अधिकार हासिल है. यदि वह व्‍यक्ति गिरफ्तारी के लिए राजी नहीं होता है तो सेना उस व्‍यक्ति को जबरन गिरफ्तार कर सकती है. सेना के अधिकारी संदेह के आधार पर होने वाली ऐसी गिरफ्तारियों के दौरान जबरन उस व्‍यक्ति के घर में भी घुस सकते हैं जिसे गिरफ्तार किया जाना है. इस विशेष कानून के तहत सेना के अधिकारियों को कानून तोड़ने वालों पर फायरिंग करने का अधिकार हासिल है. चाहें इस घटना में किसी की जान ही क्‍यों न चली जाए. ऐसा करने वाले अधिकारियों को किसी तरह की जवाबदेही से छूट दी गई है. यानि ऐसी गिरफ्तारी या फायरिंग का आदेश देने वाले सैन्‍य अधिकारियों के खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है.

यह कानून 1958 में संसद द्वारा पारित किया गया था. अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा के ‘अशांत इलाकों’ में तैनात सैन्‍य बलों को शुरू में इस कानून के तहत विशेष अधिकार हासिल थे. मणिपुर सरकार ने केंद्र की इच्‍छा के विपरीत अगस्‍त 2004 में राज्‍य के कई हिस्‍सों से यह कानून हटा दिया था.

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