ताज़ा खबरविविध

जेल की सलाखों के पीछे आजादी

मुंबई के भायखला जेल में 24 जून को एक 38 वर्षीय महिला की मौत हमें भारत के जेलों की हालत और उनमें लैंगिक आधार पर महिला कैदियों के प्रति की जा रही बर्बरता की याद दिलाता है.जेल कर्मचारियों की संख्या कम होने की वजह से इस जेल में बंद मंजुला शेट्टी को वार्डन का काम दिया गया था. लेकिन जब उन्होंने जेल की एक महिला कर्मचारी से यह शिकायत की कि उनके बैरक के लिए जो अंडे और ब्रेड दिए गए हैं, वे पर्याप्त नहीं हैं तो पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी गई.

जेजे अस्पताल से जो पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई, उसमें बताया गया कि मौत चोट लगने से हुई और शरीर पर चोट के कई निशान थे. प्राथमिकी में एक प्रत्यक्षदर्शी महिला कैदी का बयान दर्ज है. इसमें बताया गया है कि न सिर्फ शेट्ठी को पीटा गया बल्कि तीन महिला जेल कर्मचारियों ने उनका यौन उत्पीड़न भी किया. छह जेल कर्मचारियों की इस मामले में पहचान की गई है लेकिन इसके बावजूद अब तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है.

जेल में बंद महिलाओं को कई तरह के पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों का शिकार होना पड़ता है. ये पूर्वाग्रह समाज, खुद के परिवार और जेल कर्मचारियों के होते हैं. अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि भारतीय परिवारों में यह देखा गया है कि वे महिला कैदियों के प्रति अधिक कठोर हैं. इस वजह से उनसे जेल में मिलने जाने वालों की संख्या कम होती है. साथ ही उनकी कानूनी मदद करने के लिए भी परिवार कम पैसे खर्च करता है. इनमें से अधिकांश महिलाएं आर्थिक लिहाज से समाज के निचले तबके से होती हैं. इसका मतलब यह हुआ कि उनके लिए अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठा पाना संभव नहीं होता और वे पूरी तरह से जेल कर्मचारियों के रहमोकरम पर निर्भर करती हैं.

देश की अधिकांश जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं. साफ-सफाई का बुरा हाल और अधपके खाने से ही काम चलाना पड़ता है. इसमें भी महिला कैदियों को सबसे अधिक झेलना पड़ता है. राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2014 में भारत में महिला कैदियों की संख्या 16,951 थी. कुल 1,394 जेलों में से 20 सिर्फ महिलाओं के लिए हैं. इनमें से 11,000 से थोड़ी अधिक संख्या अंडरट्रायल की है. अधिकांश महिलाएं 18 से 50 साल आयु वर्ग की हैं.

जेल सुधारों के बारे में कई समितियों की सिफारिशों के बावजूद इन सुधारों का पूरा जोर पुरुष कैदियों पर ही रहा है. महिलाओं की भी कुछ जरूरतें हैं, इस पर पर्याप्त ध्यान ही नहीं दिया गया. उदाहरण के तौर पर महिला कैदियों को माहवारी के वक्त विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए. ऐसे ही गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चे की मां की जरूरतें अलग हैं. इन समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया. जब महिला कैदी बीमार पड़ जाती है तो दवाओं के लिए भी उन्हें अपने परिजनों या मित्रों पर निर्भर रहना पड़ता है. कई महिला कैदी अपने बच्चे को छह साल की उम्र तक अपने साथ रख सकती हैं. लेकिन बच्चे के पोषण और शिक्षा की जो सुविधाएं उपलब्ध हैं, वे जेल के अंदर की स्थिति को बद से बदतर बनाने वाली ही हैं.

सामान्य जेलों में पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग रखा जाता है. पुस्तकालय और अन्य सुविधाओं तक महिला कैदियों की पहुंच नहीं होती. एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि महिला कैदियों की संख्या के मुकाबले महिला जेल कर्मचारियों की संख्या 25 फीसदी से भी कम है. 1988 में महिला कैदियों की स्थिति पर भारत सरकार द्वारा गठित न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यन समिति ने यह सिफारिश की थी कि अधिक महिलाओं को पुलिस में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि महिला और बाल अपराधियों से संबंधित मामलों में उनकी अहम भूमिका होती है.

इसके बावजूद शेट्टी का मामला ऐसा है जहां वे एक महिला जेल में थीं और उनकी हत्या करने का आरोप जिन जेल कर्मचारियों पर हैं, वे भी महिलाएं ही हैं. इससे पता चलता है कि जेल कर्मचारी का पुरुष या महिला होना उतना अहम नहीं है जितना उनका प्रशिक्षण और संवेदनशीलता. यह बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि उनकी जवाबदेही तय करने की क्या व्यवस्था है. महाराष्ट्र में दो महिला जेल हैं और इस राज्य में महिलाओं के लिए देश का पहला ओपन जेल बना है. इस तरह की प्रगतिशील छवि के बावजूद यहां पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों की संख्या दूसरे राज्यों के मुकाबले ‘थोड़ी अधिक है. यह जानकारी केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने 21 मार्च को लोकसभा में दी. इससे पता चलता है कि जवाबदेही तय होने की कोई व्यवस्था नहीं होना ही इसके लिए जिम्मेदार है.

जेल सुधार और उसमें भी महिला कैदियों के लिए कोई सुधार हो, यह किसी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है. जेलों में कर्मचारियों की संख्या हमेशा कम रहती है और कैदियों के कल्याण के जो कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं, उनकी संख्या भी कम होती है. शिकायतों को निपटाने के लिए गैर सरकारी संगठनों की सहभागिता वाले आगंतुक बोर्ड की नियमित बैठकें नहीं होती क्योंकि जेल कर्मचारियों में किसी अनुशासनात्मक कार्रवाई का कोई डर नहीं है. जेलों में इतनी समस्याओं के बावजूद बहुत कम मामले ऐसे आते हैं जहां किसी जेल कर्मचारी या पुलिसकर्मी के खिलाफ कोई जांच चल रही हो.

शेट्टी की हत्या की जांच होनी चाहिए और दोषियों को सजा मिलनी चाहिए. यह मीडिया, सिविल सोसाइटी और न्यायपालिका के लिए जरूरी है कि कानून का क्रियान्वयन करने वालों की भी जवाबदेही तय की जाए. न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने 1978 के अपने फैसले में कहा था, ‘सलाखों के पीछे आजादी हमारा संवैधानिक अधिकार है. अगर युद्ध इतने अहम हैं कि उन्हें जनरल पर छोड़ दिया जाए तो यकीनन कैदियों का अधिकारी जेलर के हाथों में सौंपे जाने के लिहाज से बेहद बेशकीमती है.’

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!