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महाधिवक्ता विवाद पहुंचा दिल्ली

रायपुर | संवाददाता: छत्तीसगढ़ में महाधिवक्ता कनक तिवारी का विवाद अब दिल्ली पहुंच गया है. आने वाले कुछ दिनों में केंद्र सरकार इस मामले में रिपोर्ट तलब कर सकती है. सूत्रों का कहना है कि राज्य के भाजपा नेता भी इस मसले को हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं.

इधर वकील और जनता कांग्रेस के अध्यक्ष अमित जोगी ने भी देश के प्रमुख लोगों को चिट्ठी लिख कर मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की है.

उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भी विस्तार के एक पत्र लिखा है. इस पत्र के साथ उन्होंने कनक तिवारी को हटा कर नये महाधिवक्ता बनाये गये सतीश चंद्र वर्मा के सोशल मीडिया के उन पोस्ट के स्क्रीन शॉट भी भेजे हैं, जिसमें उन्होंने कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी के खिलाफ गंभीर टिप्पणियां की हैं.

हालांकि सतीशचंद्र वर्मा ने अपने खिलाफ लगाये गये सभी आरोपों का खंडन किया है

इस बीच रविवार को कनक तिवारी ने राज्यपाल आनंदी बेन से मुलाकात की. कहा जा रहा है कि उन्होंने विस्तार से उनसे चर्चा की और सारे दस्तावेज़ भी उन्हें सौंपे हैं.

राज्यपाल से हुई मुलाकात के बाद कनक तिवारी ने टिप्पणी की है कि संविधान के प्रावधानों के अनुसार महाधिवक्ता एडवोकेट जनरल का यदि कोई त्यागपत्र होता है. तो उसे राज्यपाल द्वारा ही स्वीकार किया जा सकता है अन्य किसी द्वारा नहीं. इसलिए आज मैं छत्तीसगढ़ की महामहिम राज्यपाल आनंदीबेन पटेल जी से मिला और मैंने उन्हें ज्ञापन दिया है.
श्री तिवारी के अनुसार उसमें संक्षेप में वे सारी बातें बताई हैं कि किस तरह मेरा त्याग पत्र हुआ ही नहीं. लिखा ही नहीं गया. फिर भी कथित हवाला देकर कि मुझे काम करने की अनिच्छा है, एक आदेश करवा दिया गया, जिसमें मुझे महाधिवक्ता ना समझते हुए मेरी जगह अन्य महाधिवक्ता की नियुक्ति कर दी गई. दोनों एक ही अधिसूचना में.

कनक तिवारी के अनुसार उन्होंने राज्यपाल को कई नियुक्ति पत्र दिखाए. किसी हाईकोर्ट के एडवोकेट जनरल के संबंध में जब एक पद खाली होता है, तब दूसरे की नियुक्ति की जाती है. एक साथ दो नामों की नियुक्ति नहीं की जा सकती. उन्होंने इस बात को ध्यान से सुना समझा और मुझे उम्मीद है कि इस संबंध में आगे मुनासिब कार्रवाई होगी.

श्री तिवारी ने टिप्पणी करते हुये कहा कि मुझे कतई राजनीति या दलगत राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है. महाधिवक्ता पद की संवैधानिकता और उसकी गरिमा के साथ यदि ऐसा कोई आचरण शासन द्वारा भी किया जाएगा, जो संविधान की भावना के प्रतिकूल है, तो मैं उससे सहमत नहीं हो सकता.

महाधिवक्ता सतीश चंद्र वर्मा का नाम लिये बिना उन्होंने कहा कि जितने बरस मैंने वकालत की है, उतने बरस की उम्र के एक युवा अधिवक्ता को महाधिवक्ता बनाया गया है. मुझे उनसे कोई नाराजगी नहीं है. मुझे बहुत कुछ तो नहीं आता लेकिन उम्र और अनुभव तो मेरे साथ हैं. महाधिवक्ता का पद मुगल बादशाहत नहीं है, जिसमें एक बुजुर्ग को अपमानित करके और युवा को पदस्थ किया जाए.

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अभी ग्रीष्मकालीन अवकाश चल रहा है. ऐसे समय में राज्य सरकार ने रातोंरात महाधिवक्ता कनक तिवारी को हटा कर उनकी जगह सतीशचंद्र वर्मा को नया महाधिवक्ता नियुक्त किया है. इधर कनक तिवारी का दावा है कि उन्होंने इस्तीफ़ा दिया ही नहीं है. ऐसे में राज्य में संवैधानिक संकट पैदा हो गया है.

विवाद

कनक तिवारी की नियुक्ति के साथ ही विवादों की शुरुआत हो गई थी. कांग्रेस पार्टी का एक खेमा शुरु से सतीशचंद्र वर्मा को महाधिवक्ता बनाने के पक्ष में था.

इसके लिये पूर्व महापौर किरणमयी नायक समेत कुछ कांग्रेसियों ने मुख्यमंत्री से मुलाकात भी की थी.

लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने नाम सुने बिना ही कह दिया था कि इस पद के लिये नाम तय कर लिया गया है.

इसके बाद जब कनक तिवारी को महाधिवक्ता नियुक्त कर दिया गया, तब उम्मीद थी कि विवाद का पटाक्षेप हो गया है लेकिन राजनीतिक गलियारे में हालात ऐसे नहीं थे.

मुद्दा पैनल लायर्स का

सबसे पहले पैनल लॉयर्स नियुक्त करने को लेकर विवाद की शुरुआत हुई कि महाधिवक्ता ने मनमाने तरीके से पदों पर, बिना किसी की अनुमति के नियुक्ति कर ली है. इनमें कुछ भाजपा समर्थक भी शामिल हैं. इसकी शिकायत सरकार में भी पहुंचाई गई.

लेकिन विधि विभाग से पता चला कि महाधिवक्ता ने विधि मंत्री से इस मामले में लिखित अनुमोदन प्राप्त करने के बाद ही इन पदों पर नियुक्ति की.

इतना ही नहीं, अधिकृत होने के बाद भी महाधिवक्ता ने चारों अतिरिक्त माहधिवक्ताओं और सातों उप महाधिवक्ताओं के साथ बैठकर सबकी सहमति से पैनल लायर्स की पूरी सूची को संशोधित किया.

बाद में कुछ अधिवक्ताओं द्वारा अनिच्छा व्यक्त करने या बिना आवेदन के गैरहाजिर रहने पर उनकी जगह नये पैनल लायर्स की नियुक्ति के लिये विधि मंत्री से अनुमति ले कर नियुक्तियां की गईं. इन सभी नियुक्तियों की सूचना प्रमुख सचिव विधि विभाग को भी दी गई.

लेकिन सचिव ने आज पर्यंत तक इस संबंध में कोई आदेश जारी नहीं किया.

तृप्ति राव की याचिका

आरोप है कि महाधिवक्ता ने 28 फरवरी 2019 को उन 8 पैनल लॉयर्स को अग्रिम आदेश तक काम देना स्थगित करने का आदेश जारी किया, जो कथित रुप से काम को लेकर अनिच्छुक थे.

लेकिन कनक तिवारी का दावा है कि बाद में इन अधिवक्ताओं से सद्भावना के कारण 13 मार्च 2019 को उन्होंने फिर से सभी अधिवक्ताओं को काम देना जारी रखने का आदेश जारी किया.

इनमें से सात अधिवक्ताओं ने काम भी शुरु कर दिया. लेकिन एक अधिवक्ता तृप्ति राव ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर कर दी. इस मामले में महाधिवक्ता की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता श्रीमती फौजिया मिर्जा अदालत में उपस्थित हुईं. हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान आदेश दिया कि संशोधित निरस्त आदेश को प्रस्तुत किया जाये.

कनक तिवारी का दावा है कि अदालत के इस आदेश के बाद अगली तारीख 13 मई को इस संशोधित निरस्त आदेश को प्रस्तुत करने के साथ ही मामले का पटाक्षेप हो जाता. लेकिन ऐसा नहीं किया गया.

13 मई को सुनवाई से पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता सतीशचंद्र वर्मा ने फौज़िया मिर्जा को सूचित किया कि उन्हें विधि विभाग के प्रमुख सचिव रविशंकर शर्मा ने निर्देशित किया है कि सतीश चंद्र वर्मा ही पक्ष समर्थन करेंगे. इसके बाद इस प्रकरण में तिथि बढ़ा दी गई.

ऐसा करना विधि सचिव के कार्य क्षेत्र के पूरी तौर पर बाहर था. एक संवैधानिक अधिकारी महाधिवक्ता के प्रशासनिक निर्णय के संबंध में प्रस्तुत याचिका का निराकरण महाधिवक्ता के स्तर पर ही हो सकता है.

कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप

कनक तिवारी ने इस संबंध में सरकार को एक पत्र भी लिखा कि संवैधानिक अधिकारों के अतिक्रमण का यह इस तरह का पहला उदाहरण है. यह विधि विभाग के प्रमुख सचिव की समझ और हठवादिता के कारण हो रहा है.

पत्र में लिखा गया कि महाधिवक्ता के महत्वपूर्ण संवैधानिक पद और उनके प्रशासकीय निर्णय तथा आचरण को लेकर विधि विभाग के प्रमुख सचिव महाधिवक्ता से परामर्थ और अनुमोदन लिये बिना इस तरह की पैरवी चाहते हैं, जिससे महाधिवक्ता के पद की प्रतिष्ठा और कार्यालय की कार्यशैली की जग हंसाई हो सके.

श्री तिवारी ने पत्र लिखा कि राज्य शासन के प्रकरणों में भी महाधिवक्ता के कार्यालय से ही पक्ष समर्थन किया जाता है, विधि सचिव द्वारा नहीं. विधि सचिव का असंवैधानिक आतरण करना संदेह उत्पन्न करता है.

श्री तिवारी कहते हैं-” पैनल लॉयर्स को शासकीय अधिवक्ताओं की तरह कानूनी अधिकार नहीं होते. उन्हें कभी भी रखा जा सकता है, कभी भी अलग किया जा सकता है. जिसे विवेक के आधार पर रखा हटाया जा सकता है, उनके अधिकारों के लिए अनुच्छेद 226 में कोई याचिका नहीं बनती है. मुद्दा यह भी है कि कभी-कभी काम का बंटवारा इस तरह हो जाता है कि पैनल लायर्स को कभी-कभी, किसी दिन काम नहीं मिलता है. इससे भी उनके अधिकार खंडित नहीं होते हैं.”

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