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लालू यादव, तेजस्वी और दिल्ली वाले भइया

निराला बिदेसिया | फेसबुक पर
अभी लालूजी ने अपने हाथ में राजद की मूल कमान को रखा है, इसलिए कल की रैली से लेकर उनकी पार्टी में वैरिएशन और रेंज देखने को मिल भी रहा है. अगर अभी, आज की स्थिति में यह कमान और जिम्मा पूरी तरह से तेजस्वी के हाथ में आ जाये तो ‘बरबादी कजरवा’ से लेकर ‘रहा न कोई रोवनहारा’ वाला गीत गाने की स्थिति आ जाएगी. दिक्कत या मुश्किल तेजस्वी की नहीं. तेजस्वी हों या तेजप्रताप, उतनी पोलिटिकल ट्रेनिंग तो होश संभालने के बाद से घर में ही मिली है या कि देखते-देखते जान-समझ गये होंगे कि वे राजनीति में एक बेहतर और चुस्त खिलाड़ी बन सकें.

दिक्कत तेजस्वी के आसपास जो लोग हैं, उनकी है. तेजस्वी ने अपने पीआर के लिए जिस टीम को हायर किया है, जो टीम शरद यादव का भी पीआर देखती है और इसके पहले उत्तरप्रदेश में मायावतीजी का काम देख रही थी, उस टीम का जिम्मा दिल्लीवाले भइया के पास है और दिल्लीवाले भइया हैं कि बहुत कनफ्यूज्ड रहते हैं. चुनावी राजनीति उनके बस की बात नहीं. उनकी शुरुआत सवर्ण-ब्राह्मण को गाली देने से होती है और रात में सोने के वक्त तक आखिरी पोस्ट वही होता है.

जिस दल में शिवानंद तिवारी पिता-पुत्र सक्रिय रूप से हों, मनोज झा आफत-सुलतानी-हरण -यंत्र की तरह हों, जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे राजपूत नेता हों, उस दल के तासीर को समझना होगा. एक समय में तो उमाशंकर सिंह, प्रभुनाथ सिंह, जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे चार-चार बड़े राजपूत नेता लालूजी के साथ ही थे. क्यों? दिल्लीवाले भइया के ध्यानार्थ बात यह कि उसका फायदा मिलता रहा है लालूजी को. बहुत कुछ बैलेंस करते हैं लालू यादव.

वे जानते हैं कि ​सवर्ण उन्हें वोट नहीं देंगे लेकिन वे यह भी जानते हैं कि जहां भूमिहार मजबूत होगा, जब भूमिहार एग्रेसिव पोलिटिक्स करेंगे तो वहां के राजपूत आसानी से भूमिहार के पक्ष में नहीं जायेंगे. भूमिहारों और राजपूतों के बीच राजनीतिक रिश्ता इतना आसान-सहज नहीं होता. लालू प्रसाद देखे हैं अपने समय में कि सिवान जैसे इलाके में दलितों-वंचितों-अतिपिछड़ों के खिलाफ यादव-मुसलमान-सवर्ण वर्षों तक दांतीकोटीरोटी राजनीतिक रिश्ता निभाकर माले को हटाने के लिए शहाबुद्रदीन को विजयश्री दिलाते रहे हैं.

उस जमाने में, जिस जमाने में लालू यादव के साथ भूराबाल साफ करो वाला नारा चस्पां कर दिया गया था. लालू यादव जानते हैं कि बक्सर और दरभंगा में, जहां कि ब्राह्मणों का वर्चस्व रहता है, वहां ब्राह्मणों के साथ सभी सवर्ण भी आंख बंद कर नहीं जाते. वे ब्राह्मण के वर्यस्व को और अहंकार को तोड़ने के लिए पिछड़े नेता का भी साथ देते हैं. लालू प्रसाद मधेपुरा से भी राजनीति किये हैं, राघोपुर को भी देखे हैं और छपरा को भी. मौका देख यादव भी साथ छोड़ देते हैं और यादवी राजनीति के सबसे बड़े सिंबॉल लालूजी का साथ छोड़ आयातीत यादव शरद के साथ हो लेते हैं.

लालू यादव जानते हैं कि बनिया भाजपा के साथ जाते हैं लेकिन उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे को बना रखा है, प्रेमचंद गुप्ता को साथ रखते रहे हैं. लालूजी शुरू से अगर अपने को यादवों, मुसलमानों, पिछड़े, दलितों, वंचितो के नेता के तौर पर स्थापित करते रहे हैं, करवाते रहे हैं तो भी इन सबको क्यों अपने साथ रखते भी रहे हैं?

लालूजी को तो कब का घोषित कर देना चाहिए था कि उनके दल में कोई सवर्ण नहीं रहेगा. लालूजी गणेशजी को दूध पिलाने पर हमेशा प्रहार करते हैं, हिंदुत्व की ठेकेदारी करनेवाले संगठन संघ के सबसे बड़े दुश्मन की तरह सामने रहते हैं लेकिन लालूजी अपने धार्मिक चेहरे को, अपने पूजा-पाठ को, अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन भी बार-बार करते करवाते रहे हैं? क्यों? कोई वजह तो होगी.

लालूजी को पता है कि उनका जो कोर वोटर है न यादव, वह बुनियादी तौर पर धार्मिक होता है. दिल्लीवाले भइया बहुत झोल है जमीनी स्तर पर, सोशल मीडिया की दुनिया को ही सर्वस्व मानते हैं आप और बार-बार उसके जरिये ही सबकुछ बदल देने का दावा-वादा हर कुछ दिनों पर करते हैं. धरातल पर समीकरण अलग होते हैं. लालूजी जानते हैं कि हर चुनाव में समीकरण बदलता है. सियासी गोलबंदी छोटे-छोटे स्तर पर बदलती है और उस गोलबंदी में यह प्रति0कात्मक चेहरे गिलहरी भूमिका निभाते हैं.

लालूजी से यह सब तेजस्वी भी सीखे ही होंगे. यह जानते ही होंगे कि तरकश में बहुत सारे तीर रखे जाते हैं, सबका अपना उपयोग होता है, समय के हिसाब से. इसलिए लंबा पोस्ट लिखा कि दिल्लीवाले भइया की जो मंडली अपने हिसाब से तेजस्वी का मेंटरिंग करने में लगी हुई है, उससे तेजस्वी का नुकसान ही होगा. तेजस्वी को तो थोड़ा लालूजी वाला हिस्सा लेना होगा, थोड़ा नीतीश कुमार वाला, थोड़ा वामपंथियोंवाला और बाकि युवा हैं तो आधा से अधिक हिस्सा अपना, अपने तरीके का.

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