छत्तीसगढ़बस्तर

नक्सली रामन्ना से जीरम पर पूरी बातचीत

अगर सरकार को किसी सार्वजनिक कम्पनी के हितों की इतनी ही चिंता है तो क्यांे न वह बैलाडीला की खदानों से अनमोल लौह अयस्क का दोहन बंद करवाती? वास्तव में भिलाई स्टील प्लांट को खतरा रावघाट परियोजना के नहीं शुरू होने से नहीं, बल्कि निजीकरण, कम्प्यूटरीकरण, ठेकेदारीकरण आदि मजदूर विरोधी नीतियों से है.

प्रश्न – रमनसिंह एजुकेशन हब, पोटा केबिन, गुजर बसर कॉलेज आदि खोलकर आदिवासी क्षेत्रों में विकास की गंगा बहाने का दावा कर रहे हैं. आप इसे किस रूप में देखते हैं?
उत्तर – शिक्षा के क्षेत्र में कार्पोरेट कम्पनियों की घुसपैठ लगातार बढ़ती जा रही है. गरीब और मध्यम तबकों के छात्रों के लिए शिक्षा के अवसर लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं. शिक्षा के प्रसार की जिम्मेदारी से सरकार अपना हाथ खींच रही है. आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की सुविधाओं का घोर अभाव है. हर तरफ शिक्षकों की कमी है. नियमित शिक्षकों की नियुक्ति कब का बंद हो चुकी है. सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था नहीं है. मध्याह्न भोजन के नाम से बच्चों को घटिया खाना खिलाया जाता है. पर्याप्त भवनों का टोटा है. कई शालाएं आज भी किराए के मकानों में चल रही हैं. सरकारी स्कूलों व काॅलेजों की हालत देखने पर साफ समझा जा सकता है कि सरकार की नीतियां किस कदर छात्र-विरोधी और जन-विरोधी हैं. सच्चाई यह है. लेकिन सरकार एजुकेशन हब वगैरह चंद कदमों की आड़ में उपरोक्त तस्वीर को धुंधला बनाने की कोशिश कर रही है. आदिवासी प्रतिभाओं को अपनी जड़ों से काटकर लुटेरों की सेवा में इस्तेमाल में लाना ही ऐसी योजनाओं का मकसद है.

प्रश्न – खाद्य सुरक्षा योजना को लेकर रमनसिंह यह कह रहे हैं कि इसे लागू करने में छत्तीसगढ़ सबसे आगे है. आप इस पर क्या कहेंगे?
उत्तर – छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश में खाद्य सुरक्षा योजना के नाम से सरकारें जनता को बड़े पैमाने पर भरमा रही हैं. सच्चाई यह है कि देशभर में सरकारी गोदामों में लाखों करोड़ टन खाद्यान्न सड़ रहा है और चूहे उसे खाए जा रहे हैं. दूसरी ओर देश के विभिन्न इलाकों में भुखमरी की स्थिति छाई हुई है. इस विडंबना को लेकर कई सालों से देशभर में भारी बहस छिड़ी हुई है. गौरतलब है कि इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च अदालत ने भी एक आदेश में यह कहा था कि गोदामों में सड़ने वाले अनाज को गरीबों में मुफ्त में बांटा जाए. सरकारों ने अपने चुनावी फायदे के मद्देनजर इस योजना को अमलीजामा पहनाना शुरू किया. जाहिर सी बात है कि महीने में 5 या 7 किलो चावल से कोई भी व्यक्ति जिन्दा नहीं रह सकता. इसमें भी भ्रष्टाचार का कितना बोलबाला है इस पर तो मीडिया में भी लगातार खबरें आती रहती हैं. इसलिए रमनसिंह की बहु प्रचारित खाद्य सुरक्षा योजना महज एक लोकलुभावन योजना है. इससे न तो गरीबों की भूख मिट जाएगी न ही किसी को खाद्यान्न की गारंटी मिलेगी.

प्रश्न – और भी कई विकास योजनाएं हैं, जैसे कि मनरेगा आदि. इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर – मनरेगा को लेकर रमन सरकार चाहे जितना भी ढिंढ़ोरा पीट ले, सच तो यह है कि प्रदेश में 45 प्रतिशत से ज्यादा काम नहीं हुआ है. इसमें भी फर्जी हाजिरी भर कर, झूठे हस्ताक्षर कर, पासबुक में हेराफेरियां कर करोड़ों रुपए का गबन किया जा रहा है. सरपंच, पंचायत सचिव से लेकर कलेक्टर, मंत्री तक सभी इस भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. माना कि अगर यह योजना ढंग से चल भी गई, तब भी यह कैसे मुमकिन है कि एक परिवार में एक सदस्य को साल में महज 150 दिनों का काम मिलने से पूरा परिवार साल भर का खाना मिल जाए?

मुख्यमंत्री के नाम से चलने वाली स्मार्ट कार्ड योजना भी ऐसी ही है. यह कार्पोरेट अस्पतालों को फायदा पहुंचाने वाली योजना भर है. इसमें भी जिस बीमारी के इलाज का जितना खर्च निर्धारित किया गया है उतने में वह संभव ही नहीं है. छोटी-मोटी बीमारियों का थोड़ा-बहुत इलाज करके लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर स्वार्थी नर्सिंगहोम मालिक मालामाल हो रहे हैं.

गौरतलब है कि वो ऐसी योजनाएं जनता पर प्रेम से नहीं, बल्कि उनकी नवउदार नीतियों के खिलाफ जनता में बढ़ते असंतोष को ठण्डा करने के लिए ही ला रहे हैं.
प्रश्न – झीरमघाटी में आप लोगों ने कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर हमला क्यों किया? क्या इसे माओवादियों की रणनीति में बदलाव के रूप में देखा जा सकता है?
उत्तर – जैसे कि हमारी कमेटी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में पहले ही बताया गया था, हमने इस हमले को सलवा जुडूम और आपरेशन ग्रीनहंट के खिलाफ प्रतिशोध के तौर पर अंजाम दिया था. दरअसल यह एक कार्यनीतिक जवाबी हमला था जोकि हमारे आत्मरक्षात्मक युद्ध का हिस्सा है. पहले सलवा जुडूम और अब आपरेशन ग्रीनहंट के नाम से जारी फासीवादी दमन अभियानों में सैकड़ों आदिवासियों की निर्मम हत्या की गई. सैकड़ों गांवों को जला दिया गया. भारी तबाही मचाई गई. इन सबका बदला लेने की कार्रवाई के रूप में ही इस हमले को देखा जाना चाहिए. जहां तक रणनीति में बदलाव का सवाल है, ऐसा कुछ भी नहीं है. इसके पहले भी हमने कई बार लुटेरी राजनीतिक पार्टियों के कुछ प्रतिक्रियावादी नेताओं पर हमले किए थे. यह अपनी किस्म की पहली कार्रवाई तो नहीं है. हालांकि यह एक भारी कार्रवाई थी. ऐतिहासिक भी. खासकर महेन्द्र कर्मा का सफाया किया जाना इस हमले की खास उपलब्धि थी.

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