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कड़वी दवा

दवा के पुर्जों और इसके इस्तेमाल के नियमन के बगैर दवा बेचने वाला ई-प्लेटफॉर्म नहीं काम कर सकता.सरकार ने दवाओं की बिक्री पर नए नियमों को प्रस्तावित किया है. इसमें दवाओं की आॅनलाइन बिक्री भी शामिल है. इसका दवाओं के खुदरा विक्रेताओं ने विरोध किया है और उन्होंने एक दिन की हड़ताल भी की है. अगर दवाएं आॅनलाइन बिक रही हैं तो क्या उन्हें रोका जाना चाहिए या फिर उनका सही ढंग से नियमन करना चाहिए? अगर हम नियमन की बात को मान लें तो क्या स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का प्रस्तावित ई-प्लेटफॉर्म इसमें कोई मदद करेगा या फिर समस्याएं ही पैदा करेगा?

16 मार्च, 2017 को मंत्रालय ने एक पब्लिक नोटिस में दवाओं की बिक्री पर नियमन को लेकर एक प्रस्ताव रखा. इसमें एक ऐसे ई-प्लेटफॉर्म बनाने की बात कही गई है जो दवाओं के उत्पादन से थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं और अंत में उपभोक्ताओं तक इसके पहुंचने की पूरी प्रक्रिया पर नजर रख सके. जो दवा विक्रेता इस प्लेटफॉर्म पर पंजीकृत नहीं होंगे, वे दवा नहीं बेच पाएंगे. दवा बनाने वालों, इसके थोक विक्रेता और इसके खुदरा विक्रेता, इन सभी को इस पर पंजीकरण कराना होगा. सभी दवा विक्रेताओं को इस वेबसाइट पर हर बेची जाने वाली दवा और किस उपभोक्ता को बेची जा रही है, यह जानकारी दर्ज करानी होगी.

किस डॉक्टर ने दवा लिखी है, यह भी इसमें दर्ज कराना होगा. इस प्लेटफॉर्म को चलाने में जो खर्चा आएगा, उसमें भी दवा विक्रेताओं को योगदान देना होगा. आॅनलाइन दवा बेचने का विरोध करने वाले दवा विक्रेताओं ने इस प्रस्तावित ई-प्लेटफॉर्म को लेकर कड़ा विरोध दर्ज कराया है और कहा कि निकट भविष्य में वे अनिश्चितकाल के लिए हड़ताल पर जा सकते हैं. दवा विक्रेताओं की आपत्तियों के अलावा एक बात का और ध्यान रखना जरूरी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी किसी चीज के लिए बुनियादी ढांचा अभी नहीं है.

ऑनलाइन दवा बेचने वालों के नियमन का विवाद नया नहीं है. 2015 में इस संदर्भ में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक उपसमिति का गठन किया था. सितंबर, 2016 में उपसमिति ने रिपोर्ट सौंपी. इसमें एक सुझाव यह था कि राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा पोर्टल हो जिसके जरिए दवा के पुर्जों को इससे जोड़ा जा सके. इसमें इलैक्ट्रानिक तौर पर ही दवा का पर्चा लिखने की बात की गई थी और यह कहा गया था कि एक ऐसा पोर्टल हो जिसके जरिए इस पर्चे को दवा विक्रेता और मरीज दोनों देख पाएं. इसके जरिए सरकार दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की आशा कर रही है.

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हालिया पब्लिक नोटिस में यह कहा गया है. हालांकि, यह पब्लिक नोटिस उपसमिति की रिपोर्ट का काटा-छांटा हुआ संस्करण है. जिस ई-प्लेटफॉर्म की बात इसमें की गई है, वह दवाओं की बिक्री की निगरानी तक सीमित है.

इस नोटिस में कई चीजें अस्पष्ट हैं. इसमें कहा गया है कि शिड्यूल एच, एच1 और एक्स के अलावा बाकी सभी दवाएं पंजीकृत डॉक्टर के पर्चे के आधार पर ही दी जाएंगी. यहां यह स्पष्ट नहीं है कि उन दवाओं का क्या होगा जिनके लिए पर्चे की जरूरत नहीं थी. ऐसी दवाओं के लिए हमारे यहां नियमन की कोई व्यवस्था नहीं है. नवंबर, 2016 में इस मसले पर एक समिति का गठन किया गया था. इस समिति को ऐसी दवाओं के वर्गीकरण और जेनरिक दवाओं के विकल्प सुझाने के बारे में सिफारिश करने को कहा गया था.

इन मसलों पर स्पष्टता के बगैर ई-प्लेटफॉर्म के प्रस्ताव पर फिर से विचार किया जाना चाहिए. 2015 की उपसमिति की सिफारिशों पर और गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. अभी ही जो नियम हैं, वे ठीक से लागू नहीं हो पा रहे हैं. दवा विक्रेता पहले भी किसी तरह के नियमन का विरोध करते आए हैं. यह हर कोई जानता है कि भारत में वैसी दवाएं भी बगैर किसी डाॅक्टर के पर्चे के मिल जाती हैं, जिनके लिए डाॅक्टर का पर्चा अनिवार्य है.

इसके अलावा डाॅक्टरों द्वारा अनावश्यक तरीके से दवा लिखने के मसले को भी देखना जरूरी है. यह मांग वाजिब है कि दवाओं की आॅनलाइन बिक्री बगैर नियमन के नहीं होनी चाहिए लेकिन यह भी उतना ही जरूरी है कि दवा विक्रेता मौजूदा नियमों का पालन करें.

अगर प्रस्तावित ई-प्लेटफॉर्म को सही कदम भी माना जाए तो भी इस बात पर विचार करना जरूरी है कि इसे कब से लागू किया जाए. क्योंकि न तो बुनियादी ढांचा दुरुस्त है और न ही कानूनी स्पष्टता है. न ही मौजूदा नियम ठीक से लागू हो पा रहे हैं. दवा विक्रेताओं के संगठन ने सही ही कहा कि दवाओं की बिक्री दूसरी चीजों की बिक्री की तरह नहीं है, क्योंकि इसमें डॉक्टरों और दवा बेचने वालों की भूमिका है और दुरुपयोग का काफी आशंका है. अंततः यह समझना होगा कि उपभोक्ता की जिंदगी और उसका स्वास्थ्य दांव पर है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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