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वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

दिवाकर मुक्तिबोध

“शिष्य. स्पष्ट कह दूं कि मैं ब्रम्हराक्षस हूँ किंतु फिर भी तुम्हारा गुरु हूँ. मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए. अपने मानव जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला, किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता. इसलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रम्हराक्षस के रुप में यहाँ विराजमान रहा.”

‘नया खून’ में जनवरी 1959 में प्रकाशित कहानी ‘ब्रम्हराक्षस का शिष्य’ मैंने बाबू साहेब से सुनी थी. बाबू साहेब यानी स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध, मेरे पिता जिन्हें हम सभी, दादा-दादी भी बाबू साहेब कहकर पुकारते थे. यह उन दिनों की बात है जब हम राजनांदगाँव में थे- दिग्विजय कॉलेज वाले मकान में. वर्ष शायद 1960. तब हमें बाबू साहेब यह कहानी सुनाते थे पूरे हावभाव के साथ. हमें मालूम नहीं था कि यह उनकी लिखी हुई कहानी हैं. वे बताते भी नहीं थे. कहानी सुनने के दौरान ऐसा प्रभाव पड़ता था कि हम एक अलग दुनिया में खो जाते थे. विस्मित, स्तब्ध और एक तरह से संज्ञा शून्य. अपनी दुनिया में तभी लौटते थे जब कहानी खत्म हो जाती थी और ब्रम्हराक्षस अंतरध्यान हो जाता था.

बचपन की कुछ यादें ऐसी होती हैं जो कभी भुलायी नहीं जा सकती. कितनी भी उम्र हो जाए वे अंत:करण में जिंदा रहती हैं. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है. अक्सर कोई न कोई याद जोर मारने लग जाती है. अतीत को टटोलते हुए मन कुछ पल के लिए ही सही, हवा में उड़ने लगता है. ऐसा पिताजी को लेकर, माँ को लेकर होता है. बाबू साहेब को गुजरे हुए अर्धशती बीत गई. 52 वर्ष हो गए. 11 सितंबर 1964 और माँ शांता मुक्तिबोध 8 जुलाई 2010. हम खुशनसीब हंै कि हम पर माँ का साया लंबे समय तक बना रहा. पिताजी के गुजरने के बाद लगभग 46 वर्षों तक वे हमारे लिए कवच का काम करती रहीं. हमारी शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-चाकरी, शादी-ब्याह, बहू-बेटी, पोते-पोतियों सभी को उन्होंने अपने वात्सल्य से एक सूत्र में बांधे रखा. वात्सल्य का यह धागा अटूट हैं और हम सभी अभी भी साथ-साथ हैं और जिंदगी भर साथ-साथ रहने वाले हैं.

बहरहाल, पिताजी की याद करते हुए मैं कुछ सिलसिलेवार कहने की कोशिश करता हूं इसलिए ताकि कुछ क्रमबद्धता आए. वरना छुट-पुट प्रसंगों को पहले भी शब्दों में पिरोया जा चुका है. कुछ यत्र-तत्र छपा भी हैं.

जहाँ तक मेरी यादें जाती हैं, शुरु करता हूँ नागपुर से. आज से करीब 60 बरस पूर्व, वर्ष शायद 1954-55. नागपुर की नयी शुक्रवारी में हमारा किराये का कच्चा मकान. मिट्टी का. छत कवेलू की. फर्श गोबर से लिपा-पुता. घर में भाई-बहनों में मैं, दिलीप, ऊषा एवं सरोज. हमें नहीं मालूम था हमारा कोई बड़ा भाई भी है जो उज्जैन में दादा-दादी के पास रहता है. एक दिन जब वे नयी शुक्रवारी के घर में आए तो पता चला बड़े भाई हैं – रमेश.

6-7 वर्ष की उम्र में कितनी समझदारी हो सकती है? इसलिए नयी शुक्रवारी के उन दिनों को लेकर मन में कुछ खास नहीं है. अलबत्ता मकान का स्वरुप और कुछ गतिविधियां जरुर ध्यान में आती हैं.

मसलन पिताजी आकाशवाणी में थे. रात में उन्हें घर लौटने में प्राय: विलंब हो जाता था. उनकी प्रतीक्षा में माँ घर के बाहरी दरवाजे पर चौखट पर, घंटों बैठी रहती थी. कुछ टोटके भी करती थी, ताकि वे जल्दी घर लौटे. चुटकीभर नमक चौखट के दोनों सिरे पर बाएँ-दाएँ रखती थी. पता नहीं इस क्रिया में ऐसी क्या शक्ति थी. जाहिर है विश्वास जो उन्हें ताकत देता था. मनोबल बढ़ाता था. पिताजी देर रात लौटते. तब तक हम सो चुके होते. आँखों के सामने एक और दृश्य है – दूर कुएँ से पिताजी रोज सुबह या शाम जब जैसी जरुरत पड़े, पानी भरकर लाते थे. दोनों हाथों में पीतल की दो बड़ी-बड़ी बाल्टियां लिए उनका चेहरा अभी भी आँखों के सामने हैं, पसीने से नहाया हुआ. बाल्टी से छलकता हुआ पानी, पसीने की बूंदे और तेज चाल.

उन दिनों की न भूलने वाली एक और घटना हैं- स्कूलिंग की. स्कूल में दाखिले के वक्त की. स्कूल का पहला दिन प्राय: सभी बच्चों के लिए भारी होता है. उनका जी घबराता है. रोना-धोना शुरु कर देते हैं. माँ-बाप का हाथ नहीं छोड़ते. शिक्षकों को उन्हें चुप कराने, मनाने में पसीना आ जाता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. बल्कि अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही. एक दिन पिताजी मुझे गोदी में उठाकर स्कूल ले गए. कक्षा पहिली में दाखिले के लिए. कक्षा में जब तक वे साथ में थे, मैं दहशत में होने के बावजूद खामोश था. वे मुझे पुचकारते हुए, दिलासा देते रहे और फिर कक्षा के बाहर निकल गए. कुछ पल मैंने इंतजार किया और फिर जोर की रूलाई फूट पड़ी. शिक्षक रोकते, इसके पूर्व ही मैं कक्षा से बाहर. सड़क पर दूर पिताजी जाते हुए दिख पड़े. मैं रोते हुए उनके पीछे. पता नहीं कितना सफर तय हुआ. न जाने किस अहसास से एकाएक वे पलटे और पीछे मुझे देखकर हैरान रह गए. लौटे, मुझे गोद में लिया, पुचकारा, चुप कराया और फिर नीचे उतारकर उंगली पकड़कर मुझे घर ले आए.

स्कूल न जाने का परिणाम यह निकला कि मेरी बड़ी बहन जो उसी स्कूल में कक्षा तीसरी में पढ़ती थी, उसे मेरे साथ पहली में बैठाया गया. आज बड़ी बहन भी दुनिया में नहीं है. पर उसका मासूम त्याग व बालपन की तस्वीर दिलो-दिमाग में जस की तस है.

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