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वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

बसंतपुर के तुलना में दिग्विजय कॉलेज के दिन और भी बेहतर थे. मित्रों के साथ साहित्यिक चर्चाओं का सिलसिला तेज हो गया था. दूसरे शहरों से आने वालों में प्रमुख थे शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई, आग्नेश्का कोलावस्का सोनी व विजय सोनी. प्राय: रोज आने वालों में ये प्रमुख थे- डा. पार्थ सारथी, अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक. कॉलेज में एकमात्र वे ही थे जिनसे प्राय: अंग्रेजी में वैचारिक बहस हुआ करती थी. डा. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी व उनका परिवार भी पास ही में रहता था पर वे शायद ही कभी आए. अलबत्ता पिताजी कभी-कभी उनके यहाँ जाया करते थे. वे भी हिन्दी पढ़ाते थे. शरद कोठारी, रमेश याग्निक, जसराज जैन, विनोद कुमार शुक्ल, निरंजन महावर, कन्हैयालाल अग्रवाल, अटल बिहारी दुबे, कॉमरेड किस्म के कुछ और लोग, जिनके नाम याद नहीं, आया जाया करते थे. कॉलेज के प्रिंसीपल किशोरीलाल शुक्ल भी घर आते थे. महफिल जमती थी, बातें खूब होती थी. प्राय: शाम के बाद. पिताजी धार्मिक कर्मकांड पर कितना विश्वास रखते थे, मुझे नहीं मालूम. उन्हें मंदिर जाते न मैंने देखा न सुना. अलबत्ता दादाजी की गैरहाजिरी में या अस्वस्थ होने पर वे घर में पूजा जरुर करते थे, पूरे मंत्रोच्चार के साथ. होलिका दहन के दिन होली घर के बाहर सजाकर होली पूजा भी वे करते थे, बाकायदा धवल वस्त्र यानी धोती पहनकर. इसलिए वे नास्तिक तो नहीं थे, कितने आस्तिक वह थे, यह अब कौन तय कर सकता है? इतना जरुर कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा से सहमत होने का अर्थ नास्तिक होना नहीं है. ईश्वर में आस्था सबकी होती है, भले ही कोई कुछ भी कहे.

बहरहाल राजनांदगाँव में जितना समय भी बीता था, सुखद था, बहुत सुखद. अभावग्रस्तता कभी इतनी विकट नहीं थी कि फाके करने की नौबत आए. वरन यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि राजनांदगाँव में अर्थाभाव चिंतात्मक नहीं था. काम चल रहा था, मजे से चल रहा था. पिताजी खुश थे और हम सभी भी. छोटे थे, पढ़ते थे, खेलते-कूदते थे. सारा दिन खुशी-खुशी बीत जाता था. हमारे घर के आजू-बाजू में दो बड़े तालाब थे, हैं, जो अब और भी खुबसूरत हो गए हैं. पिताजी हमें सुबह तालाब में नहाने-तैरने ले जाते थे. तैरना हमने उन्हीं से सीखा. खुद अच्छे तैराक थे, दूर तक जाते थे. लौटने के बाद एक-एक करके हम भाई-बहनों को तैरना सीखाते थे. कभी-कभी साथ में माँ भी हुआ करती थी. घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था.
चाय और बीड़ी के बाद पिताजी को भोजन में यदि सबसे अधिक प्रिय कोई चीज थी तो वह थी दाल. तुवर दाल. दाल के बिना उनका भोजन पूर्ण नहीं होता था. वे दाल खूब खाते थे. अंडे को कच्चे निगल लेते थे क्योंकि सवाल दूध की उपलब्धता का था.

उन्हें जब कभी समय मिलता, लिखने बैठ जाते थे. एक बैठक के बाद जब वे उठते थे, नीचे फर्श पर कटे-पिटे कागजों का ढेर पड़ा रहता था जिन्हें वे सहेजकर रद्दी की टोकरी में डाल देते थे. मेरी लिखावट कुछ बेहतर थी इसलिए कई बार अपनी कविताओं की कॉपी करने देते थे. लंबी-लंबी कविताएँ. कार्बन काफी तैयार की जा सकती थी लेकिन इसके लिए पैसे की जरुरत होती है. लिहाजा पत्र-पत्रिकाओं को हस्तलिखित कविताएँ भेजने के बाद शायद कोई दूसरा ड्राफ्ट नहीं रहता होगा. यह भी संभव है प्रकाशन के लिए स्वीकार न किए जाने की स्थिति में कविताएँ लौटकर न आती हों. प्रकाशक ने वापस न भेजी हों. नागपुर में उनके एक मात्र उपन्यास का ड्राफ्ट, जैसा कि मैने सुना, खोने का संभवत: यह भी एक कारण रहा होगा.

बहरहाल उन्हीं दिनों 1962-63 में मुझे दमे की शिकायत हो गई. पिताजी के सामने नई चिंता. मेरा इलाज शुरु हो गया. पिताजी की आदत थी, जब कभी उन्हें जोर-शोर से अपनी कविताओं का पाठ करना होता था, वे हम में से किसी एक को गोद में बैठा लेते थे. चूंकि मैं बीमार रहता था अत: वे प्राय: मुझे गोद में लिटाकर कविताएं पढ़ते थे. आगे पीछे डोलते हुए. हमें नींद लग जाती थी, उठते थे तो देखते थे- हम बिस्तर पर हैं.

चूंकि घर के आजू-बाजू तालाब था-रानी सागर और बूढ़ासागर. लिहाजा ठंड के दिनों में ठंडी हवाएं खूब चलती थी. वातावरण में हमेशा आद्र्रता रहती थी. यह समझा गया कि मेरे दमे की एक वजह हवा में पसरी हुई ठंडक हो सकती है. फलत: शहर से दूर जैन स्कूल में मेरे रहने का प्रबंध किया गया. गर्मी के दिन थे, स्कूल में छुट्टियां थी. मैं कुछ दिन माँ के साथ वहीं रहा. बाद में लेबर कॉलोनी में मेरे लिए अलग से छोटा सा मकान किराये पर लिया गया जहाँ मैं और बड़े भैय्या रहने लगे. कॉलेज छूटने के बाद पिताजी रोज अपने किसी न किसी मित्र को लेकर मुझे देखने आते थे. धीरे-धीरे मेरी तबीयत ठीक होती गई और शायद जनवरी 1964 में मैं फिर से कॉलेज वाले घर में आ गया. लेकिन पिताजी बीमार पड़ गए. उन पर अकस्मात पैरालिसिस का अटैक हुआ. शायद कॉलेज से लौटते हुए वे गिर गए. उनका आधा शरीर निर्जीव हो गया, अलबत्ता चेहरा अछूता था. लेकिन शब्द टूटने लगे थे. बहुत धीमे बोल पाते थे.

वे बीमार पड़ गए. मैं ठीक होता गया. इतिहास का वह किस्सा मुझे याद आने लगा कि कैसे बादशाह बाबर ने अपने बीमार बेटे हुमायूं की जिंदगी बचाने के लिए प्रार्थनाएं की जो कबूल हुई. हुमायूं ठीक हो गए. बादशाह बीमार पड़ गए और अंतत: चल बसे.

क्या मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था? यह बात तर्क संगत यह भले न लगे पर मैं इतिहास के उस किस्से को अपने साथ जोड़ ही सकता हूं. दरअसल एक दिन मैं घर की बड़ी सी खिड़की पर बैठा हुआ था. घर की खिड़कियां कमरे के भीतर से इतनी चौड़ी रहती थी कि कोई भी उस पर आराम से बैठ सकता था. रात हो चली थी, पिताजी आए. वे अपने साथ पासपोर्ट साइज की जैकेट से वाली तस्वीर लेकर आए थे. फोटो उन्होंने कब और किससे खिंचवायी थी मुझे याद नहीं. वह फोटो उन्होंने मुझे देखने के लिए दी. किन्तु उनका फोटो देखकर न जाने क्यों मेरा मन रुआंसा हो गया. क्या यह कोई संकेत था?

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