चुनाव विशेष

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर

कनक तिवारी
यह छोटा सा विवरण छत्तीसगढ़ की अतीत के बहुत से राजनीतिक हस्ताक्षरों को याद करता हुआ उन इने गिने चरित्रवान, ईमानदार और निस्पृह नेताओं को नमन करने की नई दुनिया रचना चाहता है, जिन्हें मतलब परस्त नई दुनिया ने इस तरह नकार दिया है जो शायद कभी संदर्भ के लायक भी नहीं बचें.

छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं. कोई छह महीने बाद लोकसभा चुनाव का शोर मतदाताओं के सर चढ़कर बोलेगा. अधिकांश उम्मीदवार करोड़पति हैं. कुछ के खिलाफ अपराधिक मुकदमे भी चल रहे हैं. एक तिहाई लोकसभा अपराधियों से भरी पड़ी है. विधानसभाओं के भी ऐसे ही हाल हैं. पहले भी चुनाव होते थे. तब का माहौल और लोग शायद अलग मिट्टी के बने थे-उम्मीदवार भी और मतदाता भी.

अब तो एक बड़ी पार्टी के सबसे बड़े बनाए जा रहे नेता बोलते नहीं हुंकार भरते हैं. मानो चुनाव नहीं वन-आखेट हो रहा है. दूसरी पार्टी के युवा नेता भी अचानक चीख चीखकर बोलने लगे हैं. मानो जनता बहरी हो गई है. उत्तरप्रदेश को प्रश्नप्रदेश बनाने वाली पार्टी के मसीहा बोलते क्या हैं. अपने ही शब्दों की जुगाली करते रहते हैं. वहीं की बहनजी पश्चिमी उत्तरप्रदेश के उच्चारण में लिखे भाषण को चबा चबाकर पढ़ती हैं. बंगाल की दीदी शेरनी की तरह दहाड़ती हैं. जो धीरे धीरे या अटक अटककर बोलते हैं, उनको मीडिया प्रचार का भाव नहीं देता, हालांकि वे बड़े नेता होते हैं. सोनिया गांधी, नवीन पटनायक, अशोक गहलोत और विजय बहुगुणा आदि इसी श्रेणी के नेता हैं.

राजनीति के नक्कारखाने में छत्तीसगढ़ की कुछ तूतियों की आवाज़ें दफ्न हो गई हैं, या कुछ की फिलहाल किसी को सुनाई नहीं पड़तीं. पहले आम चुनाव के वक्त अविभाजित दुर्ग के मोहनलाल बाकलीवाल, केशवलाल गुमाश्ता, विश्वनाथ यादव तामस्कर, रत्नाकर झा, घनश्याम सिंह गुप्त, देवीप्रसाद शुक्ल, राजकुमार शुक्ल, धन्नालाल जैन आदि कहीं न कहीं दस्तक देते सुनाई पड़ते थे. उसके बाद मदन तिवारी, जे.पी.एल. फ्रांसिस, वी.वाई. राजिम वाले, प्रकाश राय, गंगा चैबे, उदयराम, केजूराम, देवीप्रसाद चैबे, डॉ. पाटणकर, लक्ष्मण प्रसाद वैद्य, हीरालाल सोनबोइर, वासुदेव चंद्राकर वगैरह राजनीति के मैदान में आए. नामों की लंबी फेहरिश्त में असरदार तरीके से धर्मपाल सिंह गुप्त, झुमुकलाल भेड़िया, डॉ. टुमनलाल, शिवकुमार शास्त्री, हरिप्रसाद शुक्ल, लालश्याम शाह, गणेशमल भंडारी वगैरह ने भी सार्थक हस्तक्षेप किया. अपनी अनोखी प्रकृति के शिवेन्द्र बहादुर सिंह, वरिष्ठ राजनयिक किशोरीलाल शुक्ल, लगातार सक्रिय मोतीलाल वोरा, पत्रकार राजनेता चंदूलाल चंद्राकर, रानी पद्मावती देवी, रश्मि सिंह वगैरह ने तो केंद्रीय राजनीति के रसूखदारों के बीच घुसपैठ कर ली थी. धर्मपाल सिंह गुप्त, वासुदेव चंद्राकर, भाजपा के सांसद प्रदीप गांधी वगैरह के खिलाफ आर्थिक घोटालों की शिकायतें भी खूब हुईं.

राजनीति के चखचख बाजार में कुछ बहुत भद्र आवाज़ें अपनी नैतिकता के सहारे इतनी वाचाल तो ज़रूर रहीं कि लोग उन्हें सुन सके. जब लोकतंत्र ही भीड़ में बदल जाए और बातचीत नारों में, तब अपना घर भर लेने को राजनेता अपनी सियासत का उत्कर्ष मानने लगते हैं. चरित्रवानों को हाशिए पर डाल दिया जाता है. उन्हें सामाजिक जीवन की अतिरिक्तता बना दिया जाता है. उनका उपहास भी किया जाता है. फिर भी वक्त उनकी अच्छाई का तिरस्कार कभी नहीं करता. वे चाहते तो करोड़पति बन सकते थे, लेकिन मोहनलाल बाकलीवाल ने गुरबत ओढ़ी. खाते पीते परिवार की माली हालत को उनकी राजनीति के कारण खस्ता होना पड़ा.

वैश्य कुल में जन्म लेकर भी दुर्ग के सांसद मोहनलाल बाकलीवाल धन को लेकर वीतराग बने रहे. उनका सुयश विस्मृति के तहखाने में कहीं कुलबुलाता होगा. आपातकाल में जनता पार्टी के सांसद बन गए मोहन लाल जैन उर्फ मोहन भैया दूसरे ऐसे सांसद दुर्ग से रहे, जो आज सेवानिवृत्त हालत में हाशिए पर हैं. उनसे ज़्यादा लोग मिलते भी नहीं हैंं. उनका सार्वजनिक साक्षात्कार भी नहीं होता है. अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के प्रति ईमानदार और धुन के पक्के मोहन भैया की छबि स्मृति के उन पत्थरों की इबारत है जिन्हें कुचलकर मतलबी भीड़ आगे बढ़ रही है.

राजनांदगांव के असली शेर मदन तिवारी गुमनामी की अंधेरी गलियों में कहीं खो गए से लगते हैं. विधायकी और सांसदी दोनों मंज़िलों के लिए संघर्षशील उनका व्यक्तित्व उस आम आदमी की ज़िंदगी की सरगनिसेनी की तरह है, जो सांसारिक अर्थों में कहीं नहीं पहुंचकर भी इंसानियत की सबसे ऊंची चोटी तक पहुंचने की कूबत रखता है. यह शख्स किसी अलग दुनिया से आया सा लगता है. आज भले उसकी प्रासंगिकता नहीं बची हो. उनके साथी पूर्व विधायक जे.पी.एल. फ्रांसिस भी निम्न मध्यवर्गीय परिवार के कीर्तिध्वज की तरह साधारण आदमी होने का असाधारण अहसास बनते रहे. जमीन की सतह से उठकर आसमान की ओर चलने की दिशा का नाम यदि राजनीति है तो ऐसे हस्ताक्षरों को इतिहास में कहीं न कहीं जगह तो मिलनी चाहिए.

कम्युनिस्ट पार्टी के कॉमरेड प्रकाश राय एक प्रतिबद्ध सिपाही रहे हैं, जिनके जीवन का मकसद अवाम और सर्वहारा के लिए व्यवस्था से सैद्धांतिक आधारों पर मैदानी लड़ाई लड़ने का रहा है. उनके आह्वान पर राजनांदगांव का कम्युनिस्ट आंदोलन अटल बिहारी दुबे, रोहिणी चैबे, कन्हैयालाल अग्रवाल, नंदूलाल चोटिया, बाजीराव शेण्डे, रमेश याज्ञिक तथा शरद कोठारी आदि नामों से लबरेज़ रहा है. छात्र जीवन में वामपंथी नेता रहे कस्तूरचंद जैन को पारिवारिक परिस्थितियों ने मज़बूर किया कि वे नौकरी कर लें. अन्यथा वे एक कद्दावर कम्युनिस्ट नेता बनने की कूबत रखते थे. राजनांदगांव के कांग्रेसी जमावड़े में लोटनसिंह ठाकुर, घनश्याम भाई याज्ञिक, एकनाथ मारुति राव, नत्थूलाल त्रिपाठी, राजूलाल शर्मा, रतनलाल अग्रवाल जैसे पुराने दिग्गजों का युग आज के मुकाबले बिल्कुल अलग तरह का था.

दुर्ग के कांग्रेसी संगठन की राजनीति के केन्द्र में उदयराम अर्थात मंत्री जी नब्ज़ की तरह रहे हैं. उनसे बार बार बगावत करते कभी कांग्रेस छोड़ते कभी उसमें शामिल होते पाटन के केजूराम दिलचस्प व्यक्तित्व थे जो विरोधियों के फन को कुचलने की महारत रखते थे. आज़ादी के आंदोलन के सूरमा गोवर्धनलाल शर्मा तथा रामकुमार और रघुनंदन सिंगरौल बंधु सत्तानशीनी के नशे से बहुत दूर साधारण कार्यकर्ता बने रहे. तब भी समाजवादी पार्टी में कस्तूरचंद पुरोहित, खूबीराम कश्यप और रामनारायण तिरहुति जैसे लोग अपनी पार्टी की ढफली हार हारकर बजाते रहे. इनके परिश्रम के परिणाम से उठकर ही मोतीलाल वोरा कांग्रेस की राजनीति में आकर आज उसकी केन्द्रीय समिति में हैं.

आज़ादी के युद्ध के दौरान तो बालोद के नरसिंह प्रसाद अग्रवाल का अपना अनोखा योगदान रहा है. वह बाद में उनकी वंशज पीढ़ी के लिए पद नहीं कबाड़ पाया. एक वक्त था जब राजनीति की सुबह कांग्रेस की प्रभातफेरी के साथ होती थी. वह शाम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बौद्धिक में पनाह लेती थी. बीच बीच में सड़कों पर लाल झंडे का जुलूस कॉमरेड रुइकर की अगुवाई में निकलता था. उसमें राजनांदगांव की बी.एन.सी. मिल्स के कामगारों के साथ विदर्भ के वसंत साठे दिखाई पड़ते थे, जो धूमकेतु की तरह कांग्रेस की संसदीय राजनीति के हस्ताक्षर बने. ठाकुर प्यारेलाल सिंह इसी ज़िले के रहने वाले थे. उनके साहस और त्याग के सामने आज़ादी के बाद मुख्यमंत्री तक चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.

छत्तीसगढ़ के गांधी कहलाते ठाकुर साहब तत्कालीन सी.पी. और बरार की विधानसभा में प्रतिपक्ष के यशस्वी नेता थे. सहकारी आंदोलन में जो कुछ उन्होंने योगदान किया, बाद में कुछ छुटभैयों ने उस पर इस तरह जबरिया कब्ज़ा कर लिया कि कानून और शासक टुकुर टुकुर देखते रहे.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!