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मोदी राज में कोलगेट से बड़ा कोल घोटाला

कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ में 14 कोल ब्लॉक विभिन्न राज्य सरकारों को अलॉटमेंट रूट से आवंटित किये गए हैं, जिनकी कुल रिज़र्व 5.3 बिलियन टन से अधिक है और लगभग यह सभी खदानों के लिए MDO नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है |

पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र में कोल ब्लाक

छत्तीसगढ़ में वर्तमान में दो बड़े कोयला क्षेत्र हैं- हसदेव अरण्य एवं मांड रायगढ़. ये दोनों आदिवासी बाहुल्य, सघन वनक्षेत्र हैं जिसमे समृद्ध जैव विविधता वन्य प्राणियों का आवास और कई महत्वपूर्ण जलाशय और नदियों का केचमेंट हैं. पर्यवार्णीय संवेदनशील इन क्षेत्रों के संरक्षण की प्राथमिकता को नजरंदाज कर सिर्फ कार्पोरेट मुनाफे के लिए कोल ब्लाको का आवंटन किया जा रहा हैं.

यहाँ तक कि अन्य राज्यों को कमर्शियल माइनिंग के लिए कोल ब्लॉक आवंटित किये गए हैं जिनमें अंत-उपयोग को बिलकुल नज़रअंदाज किया गया है, जैसा कि मदनपुर साउथ खदान आंध्र प्रदेश की सरकार को कमर्शियल माइनिंग के लिए दी गयी है.

कोयला आवंटन के MDO मॉडल पर सवाल
कोयला खदानों के अलॉटमेंट रूट से आवंटन और उसके पश्चात निजी कंपनियों की MDO नियुक्ति की इस प्रक्रिया से कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं. क्या इस प्रक्रिया से विवेकाधीन और मनमाने रूप से चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को बहुमूल्य राष्ट्रिय सम्पदा को कौड़ियों के भाव नहीं सौंपा जा रहा है ? और क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के 2014 के आदेश और उसमें उठाये गए निष्पक्षता और पारदर्शिता के मुद्दों का मज़ाक भर नहीं बन गया है ? जब सरकार ने 2015 में दावा किया था कि उसने एक अत्यंत सफल कोयला नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत की है, तो फिर क्यों उससे अब मुंह मोड़ लिया ?

जब यह स्पष्ट है कि प्रतिस्पर्धी नीलामी के रास्ते अधिक रॉयल्टी मिलती है, तो क्यों बहुमूल्य राजस्व को व्यर्थ गंवाया जा रहा है? और यह पिछला दरवाज़ा खोलने से क्या सरकार ने नीलामी का प्रमुख दरवाज़ा ही बंद नहीं कर दिया है क्योंकि जब आसानी से MDO के माध्यम से खदान का नियंत्रण एवं संचालन मिल जाए, तो फिर कौन सी निजी कंपनी नीलामी में जोखिम उठाने की कोशिश करेगी ?

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने सवाल उठाया है कि कोयला उत्पादन बढ़ाने की ऐसी क्या जल्दी है कि उसमें अंत-उपयोग को भी ना देखा जाए और कमर्शियल माइनिंग के माध्यम से चंद मुनाफे के लिए बहुमूल्य संपदा का दोहन और पर्यवरण का विनाश कर दिया जाए ? ऐसे में सवाल तो सरकार की पूरी कोयला आवंटन नीति और कोल माइंस विशेष उपबंध अधिनियम पर भी खड़े होते हैं. क्या यह नीति वाकई देश की ऊर्जा सुरक्षा के लिए बनाई गई है जैसा की सरकार ने दावा किया था ? या फिर इससे मिलते राज्य सरकारों के खनिज राजस्व में कुछ इज़ाफे के मकसद से इस नीति को बनाया गया है ? या फिर कहीं इसका असल मकसद राज्य सरकार के हितों या पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों की अनदेखी कर केवल कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को मुनाफा पहुँचाना ही तो नहीं है ?

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन ने कहा है कि कोयला खदानों के आवंटन की प्रक्रिया केवल अदानी जैसे कुछ कॉरपोरेट घरानों को मुनाफा पहुंचाने के लिए ही बनाई गयी हैं, जो प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया से बचना चाहते हैं और कम मूल्यों पर देश के बहुमूल्य खनिज संसाधनों को हथिया कर उससे निजी लाभ कमाना चाहते हैं. जिन खदानों को पर्यावरणीय स्वीकृतियां मिलने में कठिनाई आती, उन सभी को नीलामी प्रक्रिया की सार्वजनिक जांच से बचाकर अलॉटमेंट रूट से आवंटित कर दिया गया, जिससे मनमाने और गैरकानूनी रूप से स्वीकृतियां दे दी जाएँ.

इस पूरी प्रक्रिया में छत्तीसगढ़ राज्य को खनिज राजस्व में गंभीर नुकसान पहुंचा है और इसका सारा लाभ अदानी जैसी कंपनियों को मिला है जोकि आज छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ी कोयला कंपनी बनने की तरफ तेज़ गति से अग्रसर है, और जिसकी हसदेव अरण्य और मांड-रायगढ़ क्षेत्र के विशाल कोल भण्डार कर नज़र है.

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के आलोक शुक्ला और प्रियांशु गुप्ता ने इस पूरी कोयला खदानों के आवंटन की प्रक्रिया की निष्पक्ष जांच की मांग की है और कहा है कि CAG इसे संज्ञान में लेकर जांच करे या फिर एक न्यायिक जांच कराई जाये.

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