Columnist

एक फोन कॉल रिकॉर्डिंग

सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ के सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों से लगातार एक ऑडियो क्लिप तैर रही है जो कि बस्तर में तैनात वन विभाग की एक राजपत्रित अफसर की आवाज बताई जाती है. कई मिनटों के इस टेलीफोन कॉल में यह महिला अफसर अपने मातहत किसी बहुत छोटे कर्मचारी पर लगातार चीख रही है कि उसके घर पर काम पर लगाई गई महिला या लड़की काम छोड़कर चली गई है, और अब उससे बात करने को भी तैयार नहीं है.

चूंकि इस ऑडियो क्लिप के पहले भी इसी अफसर की ऐसी बदसलूकी की दूसरी शिकायतें सरकार के पास दर्ज थीं, और आदिवासी कर्मचारियों को जातिसूचक गालियों के साथ, झूठे पुलिस मामलों में फंसा देने का काम इस अफसर ने किया था, इसलिए सरकार ने उसे मैदानी तैनाती से हटाकर दफ्तर में अटैच किया है. लेकिन इस पूरे सिलसिले को देखें तो लगता है कि सरकार में रोजी पर काम करने के लिए भी जनता का एक बड़ा हिस्सा जान लगा देता है, और ऐसे लोगों के साथ किस तरह का सुलूक होता है.

यह मामला वनमंत्री महेश गागड़ा के अपने इलाके का है, बस्तर का है, और उस बस्तर का है जहां के आदिवासियों के साथ सरकारी अफसरों की बदसलूकी के चलते हुए वहां नक्सलियों को जमीन मिली थी. ऐसे इलाके में आज अगर एक महिला अफसर रोजी पर रखी गई एक महिला कर्मचारी के लिए तरह-तरह के झूठे मामलों में फंसा देने की धमकी के साथ, चोरी की झूठी रिपोर्ट लिखाकर पुलिस में बंद करवा देने की धमकी के साथ खुलकर मां-बहन की गालियां दे रही है, तो यह कई पहलुओं से सोचने का मुद्दा है.

एक महिला दूसरी महिला को मां-बहन की गालियां दे रही है, गैरकानूनी कार्रवाई की धमकी दे रही है, और यह सब कुछ सरकार के ढांचे के भीतर हो रहा है, तो इससे पता लगता है कि सरकारी ढांचा कितना भ्रष्ट हो चुका है, कितना सड़ चुका है. इसलिए यह हैरानी नहीं है कि आज अलग-अलग कई जगहों पर छप रहे चुनावी सर्वे और राजनीतिक खबरों में ऐसे वनमंत्री के हारने के आसार बताए जा रहे हैं, और उनकी टिकट कटने की अटकलें बताई जा रही हैं.

लेकिन कुछ और बातें भी इस मामले से निकलकर आती हैं. मझले दर्जे के अफसर भी अपने घरेलू कामकाज के लिए सरकारी रोजी या नौकरी पर लोगों का किस तरह बेजा इस्तेमाल करते हैं, वह देखना भी भयानक है. जिस टेलीफोन कॉल की रिकॉर्डिंग से आज यह कॉलम लिखना पड़ रहा है, उसी कॉल में यह महिला अफसर बार-बार बड़े शक के साथ इस कर्मचारी से कह रही है कि रोजी वाली उस महिला कर्मचारी से पूछकर बताए कि क्या उसके (अफसर के) पति ने उससे कुछ कहा है?

अब जो खबरें आई हैं उनमें कर्मचारियों ने औपचारिक पुलिस रिपोर्ट की है, सरकार से शिकायत की है कि यह महिला अफसर और उसका पति किस तरह लोगों को झूठे मामले में फंसा रहे हैं, और जातिसूचक गालियां दे रहे हैं. यह एक मामला तो उजागर हो गया है क्योंकि शिकायतकर्ता बहुत हैं, और ऐसी टेलीफोन रिकॉर्डिंग मौजूद हैं, लेकिन वन विभाग में कर्मचारियों के ऐसा बेजा इस्तेमाल सरकार के दूसरे कई विभागों की तरह आम हैं, और शायद कुछ मामलों में दूसरे विभागों से ज्यादह भी है.

सरकार का बहुत सा निचला अमला अर्दलियों और मजदूरों की तरह इस्तेमाल होता है, और इसकी लागत आम जनता पर आती है, इन कर्मचारियों की उत्पादकता महज अफसरों के परिवारों के सुख-सुविधा तक सीमित रहती है. इससे भी बड़ी बात यह कि इनके साथ अफसर और उनका परिवार बहुत से मामलों में बहुत अमानवीय बर्ताव भी करता है. मंत्री, नेता, या अफसर जितने बड़े होते हैं, वे अपने स्तर के मुताबिक सबसे निचले कर्मचारियों से ऊपर के कर्मचारियों का भी बेजा इस्तेमाल करते हैं, जिससे उन कर्मचारियों का मनोबल जाता रहता है.

लेकिन सरकार की खूबी यह है कि ऐसा मामला उजागर होने के बाद भी न तो उस इलाके के विधायक का मुंह खुला, न सांसद का मुंह खुला, न इलाके के मंत्री का मुंह खुला, और न ही विभागीय मंत्री का. अब बेजुबान गरीबों के साथ ऐसी ज्यादती के बाद भी अगर किसी का मुंह नहीं खुलता है, तो जनता के बीच से जो लोग कुछ बोलते हैं, वे सत्ता को नक्सली लगते हैं, शहरी नक्सली लगते हैं, देशद्रोही लगते हैं, बागी लगते हैं. सत्ता के बंगलों पर इंसानों का ऐसा हैवानी इस्तेमाल सिवाय अदालती दखल के और किसी तरह ठीक होते दिखता नहीं है, वह भी तब जब जजों के बंगलों पर ऐसी अघोषित बेगारी पर बहुत से लोग तैनात न हों.

राजधानी में हम लगातार यह देखते हैं कि किस तरह म्युनिसिपल के सैकड़ों सफाई कर्मचारी, माली, और दूसरे लोग मंत्रियों और अफसरों के बंगलों पर तैनात रहते हैं. उनमें से बहुतों के साथ स्थायी रूप से अपमानजनक बर्ताव होता है, और कुछ लोग साहबों की मालिश करते हैं, कुछ उनके कपड़े धोते हैं, और कुछ लोग उनके कुत्ते घुमाते-नहलाते हैं. जिस प्रदेश में एक रूपए किलो चावल मिलने पर लोगों की भुखमरी खत्म हुई है, उतने गरीब प्रदेश में ऐसी सामंती सरकारी फिजूलखर्ची क्यों होनी चाहिए?

अब जब सरकार के अलग-अलग विभागों के अमले हड़ताल करते हुए सड़कों पर आ रहे हैं, पुलिस-परिवारों के लोग भी आंदोलन करके अपने तेवर दिखाकर पुलिस कर्मचारियों के लिए रियायतें और राहत पा चुके हैं, तो ऐसे में क्या कोई ऐसा दिन नहीं आ सकता जिस दिन एक बंगला-कर्मचारी संघ बने, और जो मंत्रियों-अफसरों की रईसी के खिलाफ ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग लेकर सामने आए, दूसरे तरह के सुबूत लेकर अदालत तक पहुंचे?

सरकार और सत्ता के ऐसे सामंती मिजाज के खिलाफ कर्मचारियों को एक होना चाहिए, वहां काम करने वाले मजदूरों को संगठित होना चाहिए, और सरकारी सहूलियतों के ऐसे बेजा इस्तेमाल का भांडाफोड़ करना चाहिए. अगर ऐसे सुबूत लेकर कोई अदालत तक पहुंचे, तो जजों को न चाहते हुए भी ऐसे लोगों से बेजा इस्तेमाल की वसूली करनी पड़ेगी. जब सरकार और सत्ता छोटे अमले के बेजा इस्तेमाल पर बिल्कुल एकमत हों, तब फिर इस अमले के बीच से ही लोगों को निकलकर सामने आना पड़ेगा, और इसके खिलाफ सुबूत लेकर अदालत तक जाना पड़ेगा. ऐसी जागरूकता इस प्रदेश की गरीब जनता के पैसों को भी बचाएगी.

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