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जीएसटी दावे और हकीकत

प्रभात पटनायक
माल और सेवा कर (जीएसटी) को थोपने के लिए, एनडीए की सरकार बहुत भारी झूठ के प्रचार का सहारा ले रही है. इस झूठे प्रचार में से सबसे नंगईपूर्ण है यह पूरी तरह से फर्जी दावा कि जीएसटी से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 2 फीसद सालाना के हिसाब से अतिरिक्त बढ़ोतरी हो रह होगी. अगर जीएसटी का वाकई ऐसा ही चमत्कारी प्रभाव होता हो, तब तो विश्व पूंजीवादी संकट कब का छू-मंतर हो चुका होना चाहिए था क्योंकि अमरीका ने, जिसने जीएसटी व्यवस्था का नहीं अपनाया है, फौरन इस व्यवस्था को अपना लिया होता तथा अपने सकघ घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में इसी अनुपात में बढ़ोतरी कर ली होती और इस तरह समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था की ही वृद्धि दर को ऊपर उठा दिया होता.

हवाबाजी और झूठे दावे
वास्तव में आज की दुनिया में, जहां हर चीज को बिकाऊ बना दिया गया है, इस घनघोर बाजारूकरण की एक खासियत यह भी है कि शोध को भी बाजारू बना दिया गया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि जैसे हम बाजार से अपनी मर्जी की कोई कमीज या पतलून खरीद सकते हैं, वैसे ही अपनी मर्जी के परिणामों को सही साबित करने वाला शोध भी खरीद सकते हैं, बस इसके लिए जरूरी पैसा खर्च करने की जरूरत होगी. यही वह चीज है जो, जैसाकि अरुण शौरी ने लिखा था, इस तरह का ‘कुत्सित शोध’ पैदा करती है, जो दिखाता है कि जीएसटी के अपनाए जाने से, देश की सालाना वृद्धि दर में 2 फीसद की फालतू बढ़ोतरी हो जाएगी.

इसी तरह, वित्त मंत्रियों की अधिकारप्राप्त कमेटी की बैठक के बाद, वित्त मंत्री ने अरुण जेटली ने संवाददाताओं को बताया कि, ‘तमिलनाडु को छोडक़र, व्यावहारिक माने में सभी राज्य जीएसटी का समर्थन दे रहे हैं.’(द हिंदू, 15 जून) वास्तव में इस टिप्पणी से उनका आशय ठीक-ठीक क्या था, यह तो स्पष्ट नहीं है फिर भी उसी रिपोर्ट में आगे चलकर यह बताया गया है कि, ‘तमिलनाडु समेत कुछ राज्यों ने जीएसटी काउंसिल पर’, जो कि प्रस्तावित व्यवस्था का कुंजीभूत तत्व है, अपनी ‘आपत्तियां’ जतायी हैं. ये ‘आपत्तियां’ इस तथ्य से निकली हैं कि जीएसटी कानून को अपनाए जाने की जल्दबाजी में, जिसकी बहुराष्ट्रीय निगमों तथा घरेलू कार्पोरेट पूंजी द्वारा बड़े जोर-शोर से मांग की जा रही है, हमारी व्यवस्था की संघीय प्रकृति से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को असंबोधित ही छोड़ दिया गया है.

बहरहाल, संघीय व्यवस्था से जुड़े सवालों पर आने से पहले, एक नजर हम जीएसटी के पक्ष में दी जाने वाली दलीलों पर डाल लेते हैं. इस तरह की हवाबाजी को कि जीएसटी से सकल घरेलू उत्पादन की वृद्धि दर में इतने फीसद की बढ़ोतरी हो जाएगी या राजस्व में इतनी बढ़ोतरी हो जाएगी (सोचने की बात है कि जब जीएसटी की दर तक तय नहीं हुई है, इसके अपनाए जाने से राजस्व में होने वाली कथित बढ़ोतरी का अनुमान कोई लगा ही कैसे सकता है), को अगर हम परे खिसका कर देखें तो, जीएसटी के पक्ष में तीन बुनियादी और ठोस तर्क नजर आते हैं.

जीएसटी के पक्ष में कुछ तर्क
पहला तो यही कि समान जीएसटी दर, राष्ट्रीय बाजार को एकीकृत करेगी. बेशक इस समान दर का संबंध वास्तव में तीन समान दरों से जुड़ता है. पहली, राज्य जीएसटी, जो राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले अप्रत्यक्ष करों की जगह लेगी. दूसरी, केंद्रीय जीएसटी, जो केंद्र सरकार द्वारा लगाए जाने वाले अप्रत्यक्ष करों की जगह लेगी. तीसरी अंतर्राज्यीय खरीद-फरोख्त पर लगने वाली अंतर्राज्यीय जीएसटी. मौजूदा वित्तीय व्यवस्था के विपरीत, जिसमें इस तरह की कोई समानता ही नहीं है, इस तरह की समानता का लाया जाना बाजार को एकीकृत करेगा. वह ऐसा करेगा देश भर में मालों तथा सेवाओं की आवाजाही के रास्ते में खड़ी उन तमाम बाधाओं को हटाने के जरिए, जो अलग-अलग जगहों पर लगने वाली अलग-अलग दरों के रूप में सामने आती हैं.

दूसरा तर्क, पहले वाले से जुड़ा हुआ होते हुए भी उससे भिन्न है. यह तर्क यह है कि बिक्री या उत्पादन के मूल्य से भिन्न, संवर्द्धित मूल्य पर अप्रत्यक्ष कर की समान दरों का लागू किया जाना, कर प्रणाली को ही सरल तथा तर्कसम्मत बनाने का काम करेगा. जीएसटी से और कुछ हासिल हो या नहीं हो, यह अपने आप में एक उपलब्धि होगी. सरलीकृत तथा तर्कसंगत करने के औजार के रूप में समरूपता का एक उपलब्धि होना स्वयं सिद्घ है. कुल मूल्य के विपरीत, संवर्द्धित मूल्य पर कर लगाने का महत्व इसमें निहित है कि यह ‘प्रपाती प्रभावों’ से बचाता है, जो पहले ही भरे जा चुके करों पर, दोबारा-दोबारा कर पडऩे से निकलते हैं.

एक मिसाल से प्रपाती प्रभाव की अवधारणा को समझा जा सकता है. मान लीजिए कि माल-अ की एक इकाई, श्रम की एक इकाई के साथ जुडक़र, माल-ब की एक इकाई पैदा करती है. मान लीजिए कि मजदूरी की दर 100 रु0 है, माल-अ की एक इकाई की कर-पूर्व कीमत 100 रु0 है और माल-बी के उत्पादन का मुनाफा 20 फीसद है तथा उत्पाद के मूल्य पर लागू होने वाले अप्रत्यक्ष कर की दर, माल-अ और ब, दोनों के मामले में 10-10 फीसद है. इस स्थिति में माल-ब की एक इकाई, 277.2 रु0 में बिकेगी. [(अ के 100+ उस पर पडऩे वाला 10 फीसद कर+ श्रम के 100 रु0)(1+20 फीसद लाभ)(1+10 फीसद कर)]. कर की कुल राशि 35.2 रु0 होगी, जिसमें से 10 रु0 माल-अ पर लगने वाले कर से आएंगे और 25.2 रु0 माल-ब पर लगने वाले कर से. माल-ब पर लगने वाले 25.2 रु0 के कर में, 1.2 रु0 वास्तव में पहले वाले कर पर लगने वाले कर के रूप में होगा क्योंकि पहले वाले कर से लागत और इसलिए, अंतत: माल-ब की कीमत बढ़ रही होती है. ([माल-अ पर भरा गया 10 फीसद कर+ इस 10 रु0 पर 20 फीसद मुनाफा, जिससे लागत बढ़ती है] और 10 फीसद कर का गुणनफल). दूसरे शब्दों में उत्पादन की प्रक्रिया में पहले भरा गया कर, अगले चरण में भरे जाने वाले कर को बढ़ा देता है. यह कथित रूप से ‘अतार्किक’ है क्योंकि कराधान आर्थिक गतिविधि के स्तर पर यानी इस पर आधारित होना चाहिए कि कितना मूल्य संवद्र्घन हुआ है.

तीसरा तर्क इस स्वत:स्पष्ट तथ्य में निहित है कि समान कराधान की दर का लागू होना, राज्य सरकारों को अपने-अपने यहां पूंजी को लुभाने की कोशिश में, आपस में कर घटाने की होड़ करने से रोकता है. दूसरे शब्दों में यह राज्यों के बीच उसी तरह की ‘रसातल की ओर दौड़’ को रोकता है, जैसी दौड़ अलग-अलग देशों की आर्थिक नीतियों के बीच हो रही होती है, ताकि निवेश के लिए आकर्षक ठिकाने के रूप में अपने आप को स्थापित कर सकें. यह कोई महज काल्पनिक डर भी नहीं है. अतीत में हमारे देश में राज्य सरकारों द्वारा ऐसी होड़ किए जाने के कुछ साक्ष्य तो मौजूद भी हैं.

झूठी हैं दलीलें
बहरहाल, इन पहले दो तर्कों में कोई दम नहीं है. जैसाकि हम पहले ही बता आए हैं, जीएसटी जिस तरह से संवर्द्धित मूल्य पर कर लगाए जाने की व्यवस्था है, वैसी व्यवस्था अमरीका में है ही नहीं. दूसरे शब्दों में अमरीका बड़े आराम से कराधान के ‘प्रपाती प्रभाव’ को चलने दे रहा है. इतना ही नहीं, वहां समान कर दर लागू नहीं है और यहां तक कि टर्नओवर के मूल्य के हिसाब से कोई समान छूट सीमा भी लागू नहीं है, जो उक्त सीमा से नीचे कोई कर न लगाया जाना सुनिश्चित करती हो. वास्तव में अमरीका में कराधान की दर और छूट की सीमा, दोनों ही अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग हैं. इसके अलावा, भारत में जीएसटी योजना में महज एक या दो करों का जो प्रस्ताव किया जा रहा है, उससे भिन्न अमरीका में बहुत सारे कर लगे हुए हैं और अलग-अलग राज्यों में ऐसे करों की संख्या भी अलग-अलग है. अब यह तो कोई नहीं कहेगा कि अमरीका में एकीकृत राष्ट्रीय बाजार नहीं है. और अगर कोई वाकई यह कहता है कि अमरीका में ऐसा बाजार नहीं है, तो पलटकर कर उससे पूछा जा सकता है कि जब दुनिया की सबसे बड़ी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का काम गैर-एकीकृत राष्ट्रीय बाजार से ही मजे में चल रहा है, तो इसका मतलब यह है कि बाजार के एकीकृत न होने से कोई फर्क ही नहीं पड़ता है.

विडंबना यह है कि यूरोपीय यूनियन, जहां वैट लागू है और वास्तव में इस मामले में दुनियाभर में अगुआ रहा है, इस समय ऐसी गंभीर आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहा है कि वास्तव में उसका अस्तित्व ही खतरे में नजर आ रहा है. बेशक, यूरोपीय यूनियन की इन कठिनाइयों का वहां वैट लागू होने से कोई संबंध नहीं है. फिर भी, उसकी इन कठिनाइयों से इसका पता तो चलता ही है कि किसी अर्थव्यवस्था में वैट लागू हो या नहीं लागू हो और उसके ऊपर से एकसार वैट लागू हो या नहीं लागू हो, इससे संबंधित अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन पर कोई खास फर्क पड़ता ही नहीं है.

दूसरी ओर, एक और कारण से वैट के लागू होने न होने से बहुत फर्क पड़ता है और वास्तव में इसीलिए अमरीका ने समान वैट की व्यवस्था को नहीं अपनाया है. इसका संबंध, राजनीतिक व्यवस्था की संघीय प्रकृति की हिफाजत करने से है. जाहिर है कि पूरे देश के लिए एक की कर की दर का अपनाया जाना, राज्यों से अपने विवेक के अनुसार कर लगाने की स्वतंत्रता छीन लेता है. दूसरे शब्दों में यह ऐसा रास्ता है जो गंभीरता से राज्य सरकारों की शक्तियों का और इसलिए, देश के संघीय स्वरूप का भी अतिक्रमण करता है.

यह ऐसा मुद्दा है जिस पर शायद ही कोई ध्यान दिया गया है. वास्तव में अब तक जीएसटी पर सारी की सारी बहस इसी के गिर्द घूमती रही है कि कोई राज्य सरकार जीएसटी लागू होने के बाद, मौजूदा व्यवस्था के मुकाबले में राजस्व के लिहाज से फायदे में रहेगी या नुकसान में. ठीक इसी मुद्दे पर केंद्र सरकार ने राज्यों को भरोसा दिलाया है कि अगर जीएसटी लागू होने से उनका कोई राजस्व घाटा होता है, तो तीन साल तक केंद्र सरकार उनके इस घाटे की भरपाई करती रहेगी.

संघीय ढ़ांचे पर गहरी चोट
बहरहाल, असली मुद्दा मौजूदा हालात के मुकाबले राजस्व घटने या नहीं घटने का नहीं है. असली मुद्दा राज्य सरकारों की इसकी स्वतंत्रता का है कि वे भविष्य में अपने विवेक के अनुसार कर लगाकर राजस्व जुटा सकती हों. हमारी संघीय व्यवस्था की और वास्तव में किसी भी संघीय व्यवस्था की एक निशानी ही यह है कि उसमें राजनीतिक पार्टियों की बहुलता की गुंजाइश हो, जहां अलग-अलग पार्टियां, अलग-अलग राज्यों में सरकारें बना सकती हों. इन पार्टियों के लिए इसका मौका होना चाहिए कि वे अपने-अपने शासन वाले राज्य की आर्थिक नीतियां तय करने में, अपने विचारों को अमल में ला सकें. मिसाल के तौर पर हो सकता है कि किसी पार्टी की सरकार, ‘‘विकास’’ लाने के लिए, पूंजी को आकर्षित करने के लिए, पूंजी के लिए कर रियायतें देने का रास्ता अपनाना चाहे, जबकि कोई दूसरी सरकार, पूंजी पर लगने वाले वाले करों की दर बढ़ाकर, इसके रास्ते कल्याणकारी गतिविधियों पर और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्रों पर खर्चा बढ़ाना ही ज्यादा पसंद करे.

दूसरे शब्दों में अलग-अलग राज्य सरकारों को अपनी मर्जी की राजकोषीय नीतियों पर चलने की इजाजत होनी चाहिए, जिस पर ज्यादा से ‘रसातल की दौड़’ से बचने की शर्त लगायी जानी चाहिए, जिसकी मैं जरा आगे चर्चा करूंगा. लेकिन, प्रस्तावित जीएसटी से राज्यों से यह स्वतंत्रता छिन जाएगी. वस्तव में इस कानून के लागू होने के बाद तो, कर की दरों में किसी भी फेरबदल के लिए राज्य सरकारों को जीएसटी काउंसिल में जाना होगा, जिसमें केंद्र सरकर का और विभिन्न राज्य सरकारों का प्रतिनिधित्व होगा. इस काउंसिल में, किसी भी राज्य सरकार की स्थिति भीड़ में अकेले व्यक्ति जैसी होगी और यह काउंसिल ही तय करेगी कि संबंधित राज्य सरकार अपनी कर की दर में बदलाव कर सकती है या नहीं.

यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था के संघीय ढांचे में बहुत भारी बदलाव किए जाने का मामला है. संवैधानिक रूप से गठित राज्य सरकारों से छीनकर उनकी निर्णय लेने की शक्तियां, जीएसटी काउंसिल नाम के एक ऐसे गैर-संवैधानिक निकाय को सोंपी जानी हैं, जिसमें केंद्र व राज्य सरकारों के प्रतिनिधि बैठेंगे. वास्तव में यह शक्तियों के केंद्रीयकरण का ही कदम है, जो कि इतना बुनियादी मुद्दा है कि अगर आज की सभी राज्य सरकारें इसके लिए राजी भी हो जाती हैं तब भी, यह असली नुक्ता तो अपनी जगह ही रहेगा कि क्या यह हमारे संविधान के ‘‘बुनियादी ढांचे’’ का ही अतिक्रमण नहीं है.

अपने मान माफिक कर लगाने के राज्यों के अधिकार का मुद्दा, तभी उठाया गया था जब बिक्री कर की जगह वैट को बैठाया गया था. राजकोष विशेषज्ञ, अमरेश बागची ने तभी इकॉनमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित अपने लेख में इस मुद्दे को उठाया था. लेकिन, वैट के मामले में कम से कम चार अलग-अलग दरों की छूट तो थी. जीएसटी में तो राज्य जीएसटी के रूप में सभी राज्यों के लिए एक ही दर की व्यवस्था है, जो इस मामले को और भी गंभीर बना देती है.

राज्य जीएसटी की समान दर और बड़ा अतिक्रमण
अगर सभी राज्यों के लिए एक ही जीएसटी दर के बजाए, सिर्फ एक न्यूनतम जीएसटी दर का प्रस्ताव किया जाता, जिसके ऊपर अपनी मर्जी से दर तय करने का राज्यों को अधिकार दिया जा रहा होता, तब तो फिर भी राज्यों के अधिकारों पर अपेक्षाकृत कम अतिक्रमण हो रहा होता. इसके साथ ही साथ, अपने-अपने राज्य में निजी निवेशों को आकर्षित करने के लिए, कर की दर घटाने की राज्यों के बीच होड़ के खतरे से भी इस तरह निपटा जा रहा होता. लेकिन, न तो मौजूदा एनडीए सरकार का इरादा ऐसा कुछ भी करने का है और न मनमोहन-चिदंबरम के प्रस्ताव में ऐसा करने कोई नीयत थी. उन्होंने भी समान केंद्रीय जीएसटी के साथ ही, समान राज्य जीएसटी दर का ही प्रस्ताव किया था.

जीएसटी काउंसिल द्वारा तय की जाने वाली ऐसी समान राज्य जीएसटी दर का थोपा जाना, संघीय ढांचे का गंभीर अतिक्रमण है. इसलिए, यह खुशी की बात है कि अनेक राज्य सरकारें, जीएसटी काउंसिल द्वारा राज्यों के अधिकारों के छीने जाने के खिलाफ आवाज उठाकर, व्यवहारत: तो ऐसी समान दर के खिलाफ भी आवाज उठा रही हैं.

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