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रमन सिंहः खास से आम की कवायद

दिवाकर मुक्तिबोध
रमन सिंह पिछले कुछ समय से बदले-बदले से नज़र आ रहे हैं.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की बातचीत का उनका तौर-तरीका और व्यवहार में फर्क महसूस होने लगा है. वे कठोर बनने की कोशिश कर रहे हैं. सरकारी मुलाजिमों को यह जताने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें ढीला-ढाला और सीधा-साधा शासनाध्यक्ष न समझा जाए जो भयानक से भयानक गलतियों पर भी ‘भूल गया, माफ किया’ नीति पर चलता है. उनकी बातचीत का टोन बदल गया है.

वे अब भरी सभा में, सरकारी बैठकों में लापरवाह, कामचोर व भ्रष्ट अफसरों पर फटकार बरसाने लगे हैं. चेतावनी देने लगे हैं कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी. सरकार को जनता से दूर करने की कोशिशें कामयाब नहीं होने दी जाएंगी. हर सूरत में प्रदेश के गरीब-बेसहारों को प्रसन्न रखना, उनके दु:ख दर्द को दूर करना, उनकी समस्याओं का समाधान करना व राज्य में विकास की गंगा बहाना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है. प्रदेश की गायों को लेकर वे अब इतने ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं कि उन्होंने यहां तक कह दिया है कि जो गायों का वध करेगा उसे लटका दिया जाएगा.

गायों के प्रति आस्था के देशव्यापी उबाल के बाद इतनी सख्त बात तो भाजपा शासित किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने नहीं की. और वह भी दो-दो बार. अपने सालाना कार्यक्रम लोक सुराज अभियान बनाम समाधान शिविर का तीसरा चरण प्रारंभ होने के पूर्व 1 अप्रैल 2017 को उन्होंने जगदलपुर में मीडिया से कहा गोवध कानून पहले से ही राज्य में लागू है और यदि कोई गाय का वध करते पकड़ा गया तो उसे लटका दिया जाएगा यानी फांसी दे दी जाएगी. गोरक्षा के साथ-साथ मुख्यमंत्री राज्य में फिलहाल शराब बंदी लागू न करने के फैसले पर भी अडिग हैं. हालांकि आश्वासन पर आश्वासन दे रहे हैं कि राज्य में शराबबंदी होकर रहेगी, लेकिन कब?

फिलहाल सरकार का लक्ष्य है शराब बिक्री से प्राप्त होने वाले राजस्व में करीब 700 करोड़ की वृद्धि करना. अब तक 3300 करोड़ मिलते थे जो 4000 करोड़ होने चाहिए. इसलिए जरूरी है इसकी अवैध बिक्री रोकी जाए. जाहिर है इसके लिए सख्ती जरूरी है. लिहाजा वे अवैध शराब का धंधा करने वाले कोचियों के प्रति भी बहुत सख्त हैं. 6 अप्रैल को अपनी समाधान यात्रा के एक पड़ाव कोरबा में उन्होंने कोचियों को सलाह दी कि वे दूध बेचना शुरू करें. यदि ऐसा करेंगे तो सरकार उन्हें सहायता देगी अन्यथा पकड़े जाने पर लटका दिए जाएंगे. यानी लटका दिए जाएंगे यह मुख्यमंत्री का तकिया कलाम जैसा हो गया है.

दरअसल डॉ. रमन सिंह बहुत नर्म दिल एवं रहमदिल इंसान हैं. मुख्यमंत्री के रूप में वे तीसरी पारी खेल रहे हैं. बीते 13 वर्षों में उनके राजकाज के तौर-तरीके भले ही प्रभावित करने वाले न रहे हों किंतु एक व्यक्ति के रूप में, एक नेता के रूप में और एक राज्य के मुखिया के रूप में उनकी पर्याप्त ख्याति है, लोकप्रियता है और उन्हें ईमानदार और सच्चा मुख्यमंत्री माना जाता है जो किसी से भी ऊंचे स्वरों में बात नहीं कर सकता. और कभी आपा भी नहीं खोता. लेकिन इस तीसरी पारी के उत्तरार्ध में उनमें कुछ बदलाव न•ार आने लगा है. वे अब कठोर और सख्त प्रशासक के रूप में अपनी छवि बनाना चाहते हैं. अफसरों के साथ सख्ती से पेश आ रहे हैं. उनसे उनके कार्यों का हिसाब मांगा जा रहा है. शासन को गतिशील व जनोन्मुखी बनाने के लिए वे जोर-शोर से प्रयास कर रहे हैं. ऐसी कोशिशों के दौरान उनके सख्त बोल जहां एक ओर आश्चर्यचकित करते हैं वहीं दूसरी ओर भविष्य में कुछ बेहतर घटने की उम्मीद भी जगाते हैं.

डॉ. रमन सिंह वर्ष 2003 से भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं. वे जनता से सीधा संवाद करने अपने आवास में सप्ताह में एक बार जन-दर्शन कार्यक्रम तो करते ही हैं, प्रतिवर्ष हफ्ते-दस दिन ‘सुराज यात्राÓ पर भी निकल पड़ते हैं. हर वर्ष गर्मियों में उनकी लोक सुराज यात्रा गांवों की किस्मत बदलने के लिए होती है. वर्ष 2004 से अब तक 13 वर्षों में वे अपने सरकारी अमले के साथ राज्य के दूर-दराज के आदिवासी गांवों, नक्सल हिंसा से प्रभावित गांवों, अत्यंत पिछड़े गांवों व सभ्यता की रौशनी से कोसों दूर जिंदगी बसर करने वाले गांवों व ग्रामीणों से रुबरु हुए हैं और उनकी मिजाजपुर्सी करते रहे हैं.

इन वर्षों में उनके इस उपक्रम से कितना कुछ बदला, कैसा परिवर्तन आया, गांव में विकास की रौशनी फैली या नहीं, ग्रामीणों की शिक्षा, पेयजल व स्वास्थ्य तथा अन्य मूलभूत समस्याएं दूर हुई अथवा नहीं, नक्सली हिंसा में इजाफा हुआ अथवा हिंसा घटी आदि सवालों का जवाब ढंूढना बेहद कठिन है अलबत्ता इस बात में दो राय नहीं कि मुख्यमंत्री ने ईमानदार कोशिश की जो अभी भी जारी है. यह अलग बात है कि जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल व ग्रामीण समस्याओं के निदान में नौकरशाही लापरवाह बनी रही इसलिए जन सुराज या ग्राम सुराज अभियान या समाधान शिविर अब तक सार्थक नतीजे नहीं दे पाया है. लिहाजा समस्याओं का पहाड़ जहां के तहां खड़ा है.

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ठेठ छत्तीसगढिय़ा हैं, इसलिए गांवों की यात्रा के दौरान चौपाल लगाना, ग्रामीणों से छत्तीसगढ़ी भाषा में बातचीत करना, उनके दु:ख-दर्द के बारे में पूछताछ करना, उनके कंधे पर हाथ रखना और उन्हें स्थितियों के बेहतर होने का भरोसा दिलाना अपनत्व का अहसास कराता है. ग्रामीण जनता को लगता है कि वे उन्हीं के जमात के आदमी हैं जो उनकी जिंदगी के संघर्ष को आसान बनाने आए हैं. इसलिए वे उन पर भरोसा करते हैं. मुख्यमंत्री ने उनके इस विश्वास को टूटने नहीं दिया है बल्कि उसे और पुख्ता करने प्रयासरत है.

मसलन इस बार का उनका लोक सुराज अभियान तब्दीलियां लिए हुए है. अब मुख्यमंत्री न केवल गांव वालों से मिलते हैं वरन उनके यहां खाना भी खाते हैं, काम में हाथ भी बंटाने लगते हैं. स्कूलों का निरीक्षण करते हैं, बच्चों की क्लास लेते हैं. उनके साथ भोजन करते हैं. ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं की जानकारी देते हैं और पीठ थपथपाते हैं. 6-7 अप्रैल के दौरे में वे बलरामपुर के जोकापार गांव में सोबरन नाग के यहां गए और सिर पर गमछा बांधकर ईंटे जोडऩे में उसकी मदद करने लगे.

उन्होंने सोबरन की पत्नी उर्मिला से खाने के लिए गुड़ और बिस्किट मांगा. फिर देवसाय नाग के कुएं पर गए और कुएं का पानी पीया. गौरेला के गौरीखेड़ी में मनरेगा श्रमिक उर्मिला कोर्राम के यहां उन्होंने भोजन किया. यहीं उनके मन में विचार आया कि श्रमिकों को स्टील के टिफिन दिए जाएं. अम्बिकापुर में उनका अंदाज और भी निराला था. अपने लाव-लश्कर के साथ सरकारी गाड़ी पर सवार रमन सिंह सर्किट हाउस से कलेक्टोरेट जाते हुए अकस्मात गांधी चौक में अपने वाहन से उतर गए व एक ऑटो रिक्शा में बैठ गए. वे इसी ऑटो में कलेक्टोरेट गए. सफर के दौरान महिला आटो चालक गीता से वे बातचीत करते रहे और उसे 500 रु. दिए जबकि भाड़ा 20 रु. होता है.

12 अप्रैल को सरायपाली के ग्राम जम्हारी में उन्होंने स्कूली बच्चों के साथ मध्यान्ह भोजन किया, उनकी पढ़ाई के बारे में पूछताछ की, कुछ प्रश्न किये, बच्चों को टाफियां बांटी, अच्छे भोजन के लिए रसोइयों को पुरस्कृत किया. इसी मौके पर उन्होंने कठोर कार्रवाई भी की. ड्यूटी से गायब रहने वाले एसडीओ को उन्होंने सस्पेंड कर दिया. ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो ये दर्शाते हैं कि मुख्यमंत्री राजनेता से आम आदमी बनने की कोशिश कर रहे हैं. उनमें यह एक बदलाव है जिसे फौरी तौर पर सार्थक कह सकते हैं पर सवाल है ऐसा किसलिए? परिवर्तन किस वजह से? गांवों व ग्रामीणों की इस कदर चिंता क्यों सताने लगी?

अचानक ऐसा क्या हुआ कि शासन-प्रशासन पर मुख्यमंत्री सख्त हो गए. तथा नौकरशाहों को चेतावनी पर चेतावनी देने लगे. इन सभी का जवाब बहुत साफ है. अगले वर्ष विधानसभा चुनाव है. नवम्बर, दिसम्बर 2018 में चौथी विधानसभा के लिए वोट डाले जाएंगे. यानी अब मात्र 18-19 महीने शेष हैं. लेकिन इससे बड़ी चिंता 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की है. सन् 2014 के चुनाव में मुख्यमंत्री ने राज्य की 11 में से 10 सीटें पार्टी की झोली में डाली थी. अब इससे कम का सवाल ही नहीं है. क्योंकि केंद्र में सख्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जिन्हें शत प्रतिशत नतीजे चाहिए. अब वे 2019 का नहीं 2024 के लोकसभा चुनाव को टारगेट कर रहे हैं. यानी 2019 में उन्हें हर हालत में छत्तीसगढ़ से बेहतर नतीजे चाहिए. यह गंभीर चिंता है क्योंकि राज्य की राजनीतिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं.

2019 में मुख्यमंत्री के नेतृत्व में भाजपा छत्तीसगढ़ की सभी 11 सीटें जीतने के अत्यंत दुष्कर लक्ष्य का पीछा करेगी किंतु इसके पहले जरूरी है राज्य विधानसभा के चुनाव जीते जाएं. जब पार्टी चौथी पारी के लिए पुन: सत्ता प्राप्त करेगी तब 2019 का लोकसभा चुनाव ज्यादा दमदारी से लड़ा जा सकेगा. इसलिए अगले दो वर्ष मुख्यमंत्री व प्रदेश पार्टी के लिए चिंता भरे वर्ष हैं. लिहाजा पार्टी व सरकार ने कमर कस ली है. दरअसल यह मोदी का खौफ है जो सरकार और पार्टी को आम आदमी के अधिक से अधिक नजदीक जाने विवश कर रहा है. तो क्या यह माना जाए कि मुख्यमंत्री के रुख में बदलाव के पीछे मोदी का आतंक है? व्यवहार के स्तर पर बदलाव के पीछे एक खास मंशा है, एक उद्देश्य है? क्या मिजाज में परिवर्तन का यह अस्थायी दौर है? लक्ष्य के हासिल होते ही क्या रमन सिंह पहले जैसे रमन सिंह हो जाएंगे जिन्हें नौकरशाही कोई भाव नहीं देती थी?

राजनीति में आम कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री बनने और मुख्यमंत्री बनने के बाद भी आम आदमी बने रहने के बहुतेरे उदाहरण हैं. कई नाम लिए जा सकते हैं, मसलन त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, इसी राज्य के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी, केंद्र में मंत्री व राज्य में मुख्यमंत्री रह चुके ए.के. एंटोनी आदि आदि. शासनाध्यक्ष होने के बावजूद उन्होंने सादगी की मिसाल पेश की. सरकारी सुविधाओं का त्याग किया, अपना बैंक बैलेंस नहीं बढ़ाया. अपने उपर कोई लांछन नहीं लगने दिया. यकीनन मुख्यमंत्री रमन सिंह इस श्रेणी में नहीं हैं पर आ सकते हैं बशर्ते शहर के रमन सिंह अलग और गांव के रमन सिंह अलग-अलग न हो. सरकारी सुविधाओं का त्याग करने की हिम्मत यदि वे जुटाते हैं, मन बनाते हैं तो वे आम आदमी के मुख्यमंत्री कहलाएंगे जो अभावों में जीते हैं. संघर्ष करते हैं. उनके सामने सबसे अच्छा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी है जो प्रोटोकाल को ताक पर रखकर आम आदमी बन जाते हैं.

हाल ही में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री का दिल्ली विमानतल पर स्वागत करने वे बिना किसी लाव-लश्कर के अकेले ही पहुंच गए. यही नहीं नई दिल्ली में भारत प्रवास पर आए ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मैलकल टर्नबुल के साथ उन्होंने मेट्रो में सफर किया. अक्षरधाम मंदिर पहुंचे, साथ-साथ पूजा-अर्चना की और बाद में मंदिर की सीढिय़ों पर बैठकर दोनों काफी देर तक बातचीत करते रहे. ऐसा उदाहरण अब तक किसी प्रधानमंत्री ने पेश नहीं किया था. राजनीति के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. किसी ने भी लीक से हटकर चलने की कोशिश नहीं की. किंतु मोदी ऐसा करते हैं लिहाजा उनके मुख्यमंत्रियों के लिए यह एक मिसाल है.

अब प्रश्न यह है कि मुख्यमंत्री रमन सिंह इस नीति पर चलने की इच्छा रखते हैं? क्या वे शहर में आम नागरिक की तरह घूमते हुए मिल जाएंगे, क्या अकेले बाजार में दिखेंगे? गांव में स्कूली बच्चों के साथ जमीन पर बैठकर उन्होंने भोजन तो किया, तो क्या शहरों में भी ऐसा कुछ करेंगे? क्या कभी स्लम बस्तियों का दौरा करेंगे? क्या बेइंतिहा तकलीफों को झेल रहे शहरी गरीबों के बीच कुछ वक्त बिताएंगे? क्या सायरन बजाकर उनके काफिले के लिए रास्ता बनाने की सामंती पद्धति से तौबा करेंगे? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब तय करेंगे कि मुख्यमंत्री वाकई अपने राजनीतिक जीवन व्यवहार में तब्दीलियां ला रहे हैं वरना हर जागरूक नागरिक यह समझता है कि व्यवहार में नाटकीय बदलाव की असली वजह क्या है?

* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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