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अन्न की बर्बादी रोकना ज़रूरी

देविंदर शर्मा
हाल ही में मन की बात कार्यक्रम के दौरान देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, ‘मुझे लगता है कि खाने की बर्बादी रोकने के विषय की जानकारी बढ़ानी चाहिए. मुझे मालूम है कि कुछ युवा इस दिशा में काम कर रहे हैं और उन्होंने बचे हुए खाने को इकट्ठा करने के लिए मोबाइल पर एक ऐप बनाया है. ऐसे लोग हमें पूरे देश में मिलेंगे. क्या हमें उनका काम प्रेरणा नहीं देता है कि हम खाना बर्बाद न करें?’

प्रधानमंत्री ने जो पुण्यकर्म की बात कही वो विचारणीय है. मैं पूर्णतया उनकी बात से सहमत हूं कि ये भावना मन में बैठाना कि खाना बर्बाद करना गरीबों के प्रति असामाजिक और अन्याय है, और इस बारे में देश को संवेदनशील बनाना एक चुनौती है लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि खाद्य और उपभोक्ता व्यवसाय मंत्री रामविलास पासवान अचानक एक अनोखे विचार के साथ जागेंगे और रेस्त्रां पर खाने को लेकर नियंत्रण लागू कर देंगे.

अगर मुझे सही समझ में आया है तो पासवान ने जो बात कही उसके अनुसार अगली बार आप रेस्टोरेंट में दक्षिण भारतीय स्वादिष्ट खाने में ध्यान रखिएगा कि दोसा , उत्पम या इडली वगैरह के साथ दूसरी बार सांभर नहीं मिलेगा. ये पासवान के हिसाब से खाने की बर्बादी को रोकने का इलाज है. यह पूछने पर कि आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं तो उन्होंने जवाब दिया, ‘प्रधानमंत्री खाने की बर्बादी को लेकर चिंतित हैं.’ पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया, ‘अगर एक व्यक्ति दो प्रॉन खाता है तो उसे छ: क्यों दिए जाएं? अगर एक व्यक्ति दो इडली खाता है तो उसे चार क्यों दी जाएं ?’ खैर , मुझे नहीं लगता कि प्रधानमंत्री का ये मतलब था. जब मैं रेस्त्रां में जाकर थाली मांगता हूं तो जो सब्ज़ी मुझे नहीं खानी मैं वो निकाल देता हूं. जब मैं इडली मांगता हूं तो ये स्पष्ट कर देता हूं कि मुझे एक चाहिए या दो.

जब प्रधानमंत्री ने बड़ी मात्रा में खाने की बर्बादी पर चिंता व्यक्त की तो उस समय उन्होंने इस सिलसिले में खाना तैयार करने वाले उद्योगों के महत्त्व का ज़िक्र नहीं किया. मैं विशेषकर इन उद्योगों की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि पासवान की ही तरह फूड प्रोसेसिंग मंत्री हरसिमरत कौर भी खाने की बर्बादी को रोकने के लिए फूड प्रोसेसिंग उद्योगों के विस्तार पर ज़ोर दे रही हैं.

जैसे ही आप खाने की बर्बादी की बात करते हैं तो पहली बात जो कही जाती है वो कोल्ड स्टोरेज की भयंकर कमी और सीमित फूड प्रोसेस करने की क्षमता है. हमारे दिमाग़ में यही बात पूरी तरह बैठा दी गई है और इसलिए जब भी खाना बर्बादी की बात की जाती है तो फिर से बहु किस्म के खुदरा व्यापार में एफ़डीआई लाने की मांग उठती है. इन सब बातों से मेरे दिमाग़ में ये शक उठता है कि भोजन बर्बाद करने की पूरी बहस, कर रियायत, आर्थिक सहायता और खाना तैयार करने के उद्योग (फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री) के लिए ज़मीन प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है.

अगर बड़ी मात्रा में भोजन की बर्बादी के पीछे फूड प्रोसेसिंग क्षमता की कमी है तो मुझे ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि अमेरिका की आधी पैदावार कचरे के रूप में ही क्यों बर्बाद होती है. आखिरकार भारत में बहु किस्म के खुदरा व्यापार में एफ़डीआई को लाने की योजना अमेरिका से ही आती है. क्या कारण है कि अमेरिका में ज़्यादातर खाना (प्रोसेसिंग प्रक्रिया में), सुपर मार्केट व घरेलू स्तर पर बर्बाद होता है, जिसका मतलब है कि ये तैयार करने के स्तर पर ही फ़ेंक दिया जाता है या सुपरमार्केट स्तर पर बर्बाद हो जाती है. ये बात मुझे एक और महत्त्वपूर्ण सवाल पर लेकर आती है: कोल्डस्टोरेजों की श्रृंखला और राइपनिंग चैंबर (भोजन पकाने का कक्ष) वगैरह के इस्तेमाल का क्या महत्त्व है जब वो आखिर में फेंके ही जाने हैं.

अब इससे पहले कि आप गुस्से में प्रतिक्रिया दें ज़रा सोचिए. दुनिया में दूसरी जगहों की तरह अमेरिका में भी दरअसल खाना बनाने के उद्योग जितना तैयार करते हैं उससे अधिक बर्बाद करते हैं. अधिकतर खाने की बर्बादी किसानों के स्तर पर नहीं होती बल्कि इसके ऊपर के स्तर पर हो रही है, जहां खाना तैयार हो रहा है. फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री और खुदरा व्यापारी केवल उच्च स्तर की सब्ज़ियां, फल और खेती संबंधी पदार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं. इससे अधिकतर फल और सब्ज़ियां बाहरी दिखावे के कारण फेंक दी जाती हैं. खाद्य उद्योग गुणवत्ता के मानदण्ड में श्रेष्ठता चाहती है और इसलिए आश्चर्य नहीं कि जो चीज़ नकार दी जाती है उसे ‘बदसूरत’ कहते हैं. सिर्फ़ इसलिए कि वो बनाने वाले के गुणवत्ता मापदण्ड पर खरी नहीं उतरती तो वह ‘बदसूरत’ नहीं बन जाती.

फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री भारत में अलग नहीं है. ये उन्हीं गुणवत्ता के मापदण्डों का अनुसरण करता है. उदाहरण के लिए जब ई-चौपाल किसानों से सोयाबीन खरीदता था तो काफी किसानों के उत्पाद को अस्वीकार कर दिया जाता था, क्योंकि उसके दाने का आकार गुणवत्ता के मापदण्ड पर सही नहीं उतरा जबकि अस्वीकार किए सोयाबीन की पोषकता में कोई गिरावट नहीं थी. यह केवल बाहरी दिखावा था जो ई-चौपाल ने किसानों के लिए मापदण्ड बनाया था. जब मैं फूड प्रोसेसिंग मिनिस्ट्री की 42 मेगा फूड पार्क को स्वीकृति देने पर उत्सुकता सुनता हूं तो मुझे ये आभास होता है कि इसका लक्ष्य खाद्य की बर्बादी को कम करना नहीं है बल्कि इस उद्योग की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करना है. हमें यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि तैयार खाना महंगा होता है और इसलिए जिनके भूखे पेट की हम चिंता कर रहे हैं वो इससे नहीं भरेगा.

भारत में जहां 212 मिलियन लोग आधारिक तौर पर कुपोषण की श्रेणी में हैं वहां खाने की बर्बादी निश्चित रूप से अपराध है. अगर भारत में खाने का प्रत्येक दाना हम बर्बादी से बचाएं तो अवश्य ही लाखों भूखों का बड़ी संख्या में पेट भर सकेंगे लेकिन लक्ष्य लाखों तक ताज़ा खाना पहुंचाने का होना चाहिए. मुझे सरकारी गोदामों में अनाज भरने का औचित्य समझ नहीं आता, कभी- कभी ये लगातार तीन साल तक रखा जाता है और भूखों को नहीं दिया जाता. इससे तो ज़्यादातर वो सड़ ही जाएगा.

तैयार खाना ग़रीबों तक पहुंचाने से भूख ख़त्म नहीं हो जाएगी. इस पहुंच की मैं वकालत नहीं करता. मुझे आशा है कि पासवान खाने की बर्बादी को रोकने के लिए रेस्त्रां को नियंत्रित करने का कोई नया कानून नहीं बनाएंगे. मेरे विचार से खाना बचाने के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाने के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाना एक बड़ी चुनौती है. मैं रामविलास पासवान और हरसिमरत कौर दोनों से ऐसे अभियान की उम्मीद करता हूं.

ये तीन तरफ़ा प्रयास से संभावित हैं :
1. प्रधानमंत्री को ऐसे लोगों को सम्मानित करना होगा जो बचा हुआ खाना होटलों, रेस्त्रां , सुपरमार्केटों और विवाह स्थलों से एकत्रित कर के ज़रूरतमंदों तक पहुंचाते हैं. निजी संस्थाओं को प्रोत्साहित करना होगा कि वे सीएसआर कार्यक्रम के तहत ऐसी गतिविधियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराएं.

2. राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा अभियान शुरू किया जाए जो इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के माध्यम से घरेलू खाने की बर्बादी को रोकने के लिए लोगों में जागरुकता फैलाए. अधिकतर खाने की बर्बादी घरेलू स्तर पर होती है, इस तरह के सामाजिक जागरुकता अभियान को सोच-समझ कर बढ़ावा दिया जाए.

3. बड़ी संख्या में लोगों में ये जागरुकता पैदा करें कि घर में खाना बनाना कितना आवश्यक है और सेहतमंद भी. जितने ज़्यादा से ज़्यादा परिवार औद्योगिकी तैयार खाने से दूर होंगे उतनी ही खाने की बर्बादी कम होगी.

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