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विश्व व्यापार के नियमों को फिर से तय करना

10 से 13 दिसंबर के बीच विश्व व्यापार संगठन की 11वीं मंत्रिस्तरीय वार्ता ब्यूनोस एरिस में आयोजित की गई. इस बार ऐसा लगा कि अमरीका डब्ल्यूटीओ को बर्बाद करना चाहता है. अमरीका के व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइट्जर ने यह सुनिश्चित किया कि एजेंडे के विषयों पर कोई निर्णय नहीं हो सके और न ही कोई मंत्रिस्तरीय घोषणापत्र जारी हो सके.

इसके शुरुआती संकेत तो नवंबर में आयोजित एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग की बैठक से ही मिला था. वहां अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ‘अमरीका फस्र्ट’ की व्यापार नीति का जिक्र किया था. उन्होंने बहुपक्षीय समझौतों को दरकिनार करते हुए दोतरफा समझौतों को दोनों पक्षों के लिए फायदे का बताते हुए इस पर जोर दिया था. उन्होंने डब्ल्यूटीओ पर अमरीका से भेदभाव करने का आरोप भी मढ़ा.

डब्ल्यूटीओ बैठक में अमरीका ने कॉटन फोर बेनिन, बुरकिना फासो, चाड और माली के संकट पर कोई ध्यान नहीं दिया. यह अमरीका के स्वार्थी रवैये का प्रतीक है. भारत और दूसरे विकासशील देशों के मामले में अमरीका ने खाद्य सुरक्षा के लिए किए जाने वाले भंडारण के मसले पर भी इन देशों के हितों के खिलाफ रुख अपनाया. विवाद निपटारा पीठ में खाली जगह को भरने में भी अमरीका ने रोड़े अटकाए और इससे इस पीठ के पास लंबित मामले बढ़ते जाएंगे. डब्ल्यूटीओ बैठक में जो हुआ उसे करीब से देखने पर पता चलता है कि इस तरह का रुख सिर्फ अमरीका का नहीं था. अधिकांश मामलों में और खास तौर पर चीन से संबंधित मामलों पर यूरोपीय संघ, जापान और कनाडा ने अमरीका का साथ दिया.

कुछ समय से अमरीका दोहा दौर की वार्ता को मृत मानकर चल रहा है. इस बार की वार्ता के अंत में अमरीका ने कहा कि वह कृषि संबंधित विषयों का तुरंत समाधान चाहता है जो अभी की स्थितियों पर आधारित हो न कि 16 साल पुराने नियमों पर आधारित हो. भले ही बहुपक्षीय समझौतों पर इस सम्मेलन में उत्साह नहीं दिखा लेकिन कई द्विपक्षीय समझौतों की घोषणा की गई.

उल्लेखनीय है कि गैट उसी वार्ता से निकला था जिसकी शुरुआत अमरीका ने 1946 में की थी. अक्टूबर 1947 में भारत समेत 23 देशों ने इस पर दस्तखत किए थे. मार्च 1948 में जब 53 देशों ने हवाना चार्टर के आधार पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन स्थापित करने की कोशिश की तो अमरीका ने इसका विरोध किया. 1995 में डब्ल्यूटीओ के अस्तित्व में आने तक गैट प्रभावी रहा. 2017 में गैट के 70 साल पूरे हुए. लेकिन डब्ल्यूटीओ में जो हुआ उसे देखकर लगता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद की दुनिया में बहुपक्षीय व्यवस्था की अगुवाई करने वाला अमरीका आज खुद उस व्यवस्था को तहस-नहस करना चाहता है.

गैट को अमरीकी व्यापार विभाग नियंत्रित करता था. हर व्यापार वार्ता पर अमरीकी नीतियों में बदलाव की छाप होती थी. 1950 के दशक के मध्य में कृषि को गैट से बाहर किया गया था. इससे रोम की संधि करने में मदद मिली और समान कृषि नीति यूरोपीय आर्थिक समुदाय में लागू किया गया. 1958 में जापान और अमरीका की पहल पर टेक्सटाइल और वस्त्र को गैट से बाहर किया गया. हालांकि, 1986 से 1994 तक चले उरुग्वे दौर में फिर से ये क्षेत्र गैट के दायरे में आ गए. फिर इसमें वाणिज्यिक सेवाओं, बौद्धिक संपदा और व्यापार संबंधित निवेश नियमों को शामिल किया गया. लेकिन पहले की तरह डब्ल्यूटीओ के तहत भी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का अभाव रहा. मुट्ठी भर विकसित देशों ने व्यापार और व्यापार संबंधित नीतियों पर अपना प्रभुत्व कायम रखा. इसका दुष्प्रभाव छोटी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा.ट्रंप प्रशासन इन्हें तहस-नहस नहीं करना चाहता बल्कि इनके नियमों को बदलना चाहता है. ताकि अमरीकी पूंजीवाद के पराभव को कम किया जा सके और एक बार फिर से वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमरीका सबसे प्रभावी बनकर उभरे.
1960 से प्रकाशित इकॉमानिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय

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