विविध

जीवनयापन का संघर्ष

ग्रामीण भारत में बढ़ रहे असंतोष को शांत करने के लिए भाजपा को कर्ज माफी से आगे बढ़कर कुछ और सोचना होगा. 11 मार्च, 2018 को मुंबई में 40,000 किसान महाराष्ट्र सरकार के अधूरे वादों को पूरा कराने की मांग के साथ पहुंच गए. इनमें पुरुष-औरत और बुजुर्ग-जवान सब शामिल थे. इन लोगों ने लाल टोपी लगा रखी थी. ये किसान नासिक से 180 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके मुंबई आए थे. लेकिन किसानों का यह संघर्ष उनकी लंबी पैदल यात्रा की वजह से ही सिर्फ अलग नहीं था बल्कि इसकी कई वजहें हैं. पहली बात तो यह कि इसमें सबसे गरीब आदिवासी किसान शामिल थे. दूसरी बात यह कि इन किसानों ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी वजह से मुंबई के जनजीवन पर कोई असर नहीं पड़े. मुंबई के लोगों ने इसे महसूस भी किया. लोग उनके समर्थन में उतरे. कई लोग खाना, पानी और दवाइयां लेकर किसानों का साथ देने पहुंचे. इससे और मीडिया कवरेज से सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों के होश उड़ गए और सरकार के पास मोलभाव के लिए कुछ खास नहीं बचा.

देवेंद्र फडणविस के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी-शिव सेना सरकार को महाराष्ट्र में कृषि संकट विरासत में मिली है. यह समस्या 2016-17 में सबसे अधिक तब गहरा गई जब केंद्र सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी लागू करने का निर्णय लिया. इससे कृषि पर नकारात्मक असर पड़ा. कृषि उत्पादों की कीमतों में गिरावट के मसले पर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की आॅल इंडिया किसान सभा के नेतृत्व में 2017 की शुरुआत में पूरे महाराष्ट्र में विरोध-प्रदर्शन हुए. इसका असर यह हुआ कि सरकार ने 30,000 करोड़ रुपये का आंशिक कर्ज माफी पैकेज दिया और न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी आंशिक संशोधन किया. लेकिन इसके साल भर बाद भी कीमतों में तेजी न देख किसानों ने फिर से आंदोलन किया. इनकी मांग कर्ज काफी, सिंचाई सुविधाएं और भू अधिकार थे. महाराष्ट्र सरकार ने इनकी मांगें मान ली. इन्हें पूरा करने पर 10,000 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान है.

कर्ज माफी एक अस्थाई उपाय है. इससे किसानों को मौजूदा कर्जों को मुक्त कर दिया जाता है और वे नया कर्ज लेने के पात्र हो जाते हैं. जिस प्रदेश में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की हो, वहां के लिए यह छोटा काम भी नहीं है. लेकिन यह स्थाई समाधान इसलिए नहीं है क्योंकि किसानों की आमदनी नहीं बढ़ रही. लागत बढ़ती जा रही है और उत्पादों की कीमतें घटती जा रही हैं. न तो पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है और न ही तकनीकी सुविधाएं. इससे नगदी फसलों का रकबा बढ़ा है. कृषि उत्पादकता में कमी आई है. इसके अलावा माॅनसून पर निर्भरता और वैश्विक बाजार की कीमतों ने भी कृषि संकट को बढ़ाने का काम किया है.

कृषि सुधार एजेंडा कीमतों के आसपास केंद्रित है. यह 1970 के दशक से ही देखा जा सकता है. इसके तहत बड़े और छोटे किसानों के बीच तालमेल की बात तो है लेकिन ढांचागत सुधार पर जोर नहीं दिया गया. सिंचाई, कर्ज और भूमि सुधार जैसे विषयों की अनदेखी की गई. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने भी इन बातों को दोहराया था. इसी समिति की सिफारिशों को केंद्र में रखकर पिछले एक दशक में किसान आंदोलन हुए हैं. स्वामीनाथन ने भी कहा था कि कर्ज माफी से कृषि संकट का समाधान नहीं होगा. उन्होंने कहा था कि इसके लिए तकनीक, व्यापार और किसान प्रशिक्षण के स्तर पर हस्तक्षेप की जरूरत है. इन सुधारों के बगैर ग्रामीण भारत गंभीर कृषि संकट का सामना कर रहा है.

इस बार का किसानों का जमावड़ा पहले के मुकाबले इस मायने में अलग है कि इस बार आदिवासी किसानों की भारी भागीदारी रही. इन लोगों ने वनाधिकार कानून, 2006 को लागू करने की मांग की. इसके लिए जरूरी है कि वनाधिकारों के लिए लंबित आवेदनों का तेजी से निपटारा किया जाए. कृषि में महाराष्ट्र की स्थिति ठीक होने के बावजूद किसानों की बुरी स्थिति बनी हुई है. आदिवासी किसानों की समस्या से यह पता चलता है कि जिनके पास जमीन नहीं है, उन्हें किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा है. उनकी जमीनों पर काॅरपोरेट कब्जा हो रहा है. हालिया आंदोलन से यह भी पता चलता है कि ‘जमीन’ ऐसा राजनीतिक मुद्दा है जिस पर अब भी गोलबंदी हो सकती है.

मराठों के प्रभुत्व वाली महाराष्ट्र की राजनीति ने कृषि के स्थानीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था में गन्ने को मजबूत कर दिया है. प्रदेश के कुल कृषि भूमि में इसकी हिस्सेदारी 4 फीसदी है लेकिन 65 प्रतिशत सिंचाई साधन इसमें लग जाते हैं. इसके बावजूद चीनी सहकारी संस्थाओं में असंतोष पैदा होने लगा है. बढ़ते ग्रामीण असंतोष ने भाजपा को जरूरी कृषि सुधार की दिशा में बढ़ने का अवसर दिया है. जाहिर है कि क्रोनी पूंजीवादी और भाजपा के समर्थक शहरी मध्य वर्ग और कारोबारियों से इसका विरोध होगा. लेकिन चुनावी साल में भाजपा को कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा. ऐसा न हो कि दूसरे राज्यों में भी महाराष्ट्र की तरह आंदोलन खड़े हो जाएं. अगर ऐसा होता है तो भाजपा का लगातार चुनाव जीतने का दौर खतरे में पड़ सकता है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!