कलारचना

सेक्स परोसने वाले निर्देशक

नई दिल्ली | विशेष संवाददाता: दक्षिण के एक फिल्म निर्देशक अपनी छोटी सोच के कारण विवादों में आ गये हैं. तमिल फिल्म ‘काठति सांदाई’ के निर्देशक सूरज ने कहा है कि ‘बी’ और ‘सी’ श्रेणी के दर्शकों के लिये हीरोइनों के कपड़े छोटे होने चाहिये. उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा है कि वे अपने फिल्मों के ड्रेस डिजाइनरों को कहते हैं कि हीरोइन की ड्रेस उसके घुटने के उपर होनी चाहिये. निर्देशक सूरज का बयान अपनी फिल्म की नायिका तमन्ना भाटिया के लिये था.

तमन्ना भाटिया ने इसका जमकर विरोध किया. सोशल मीडिया में भी इसके खिलाफ विरोधों की बाढ़ सी आ गई. जिसके बाद निर्देशक ने माफी मांग ली है. क्या इसके बाद मुद्दे को दफ्न माना जाये? क्या समाज में, दर्शकों को इसका प्रतिरोध नहीं करना चाहिये?

सबसे अहम सवाल है कि क्या वही निर्देशक अपने घरों के लड़कियों को महिलाओं को घुटने से उपर तक, नग्न जंघाओं को प्रदर्शित करने वाले कपड़े पहनने की हिदायत देने की जुर्रत कर सकता है. जाहिर है कि नहीं. इसका जवाब ना में ही दिया जायेगा. क्योंकि घर की लड़कियां, घर की इज्जत होती हैं तथा सिनेमा को ‘बाजार’ समझने वाले निर्देशकों के लिये नायिकाओं का शरीर उस बाजार का प्रचार होता है, जो दर्शकों को खींचकर अपनी ओर लाता है.

एक सवाल किया जाना चाहिये कि दर्शकों को ‘बी’ तथा ‘सी’ श्रेणी में किस आधार पर रखा जा रहा है. उनके कपड़े, खर्च करने की क्षमता के आधार पर या नग्न स्त्री की देह का ‘नयन भक्षण’ करने के आधार पर. यदि कपड़ों के आधार पर, खर्च करने की क्षमता के आधार पर एक वर्ग को ‘बी’ तथा ‘सी’ श्रेणी में रखा जाता है तो उन्हें को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिये जो सदन के भीतर अपने स्मार्टफोन पर अश्लील वीडियो देखते पाये गये थे?

सबसे ज्यादा सेक्स का सुख उठाने का मौका पैसों वालों को मिलता है. इस सेक्स सुख के लिये समंदर तथा रेगिस्तान पार करके लोग ‘सेक्स पैराडाइज’ माने जाने वाले देशों में जाते हैं. जहां मालिश से लेकर नाच-गाने तक में सेक्स का तड़का लगा होता है. रात को बिस्तर गर्म करने के लिये भांति-भांति के बेबस लड़कियों तथा लड़कों की जमात उपलब्ध होती है. हमारे निर्देशक महोदय इन पर्यटकों को किस श्रेणी में रखेंगे? ‘सेक्स के भूखे भेड़िये’ या साभ्रांत पुरुषों की श्रेणी में.

दरअसल, जिनमें कला नहीं होती है वे सबसे ज्यादा कलाबाजी दिखाते हैं. उनकी सोच उन्हें दर्शकों के इसी तरह से वर्गीकरण करके फिर फिल्म बनाने की इज़ाजत देती है.

यदि ऐसा होता तो भारत में कभी ‘दिल वाली दुल्हनिया ले जायेंगे’ एक ही सिनेमाघर में लगातार 21 साल नहीं चली होती. इसके अलावा ‘मदर इंडिया’, ‘मुगले आज़म’, ‘शोले’ जैसी फिल्मों में कौन ने छोटे कपड़े पहने थे. आज भी सिनेमा घरों में ‘पीके’, ‘सुल्तान’ तथा ‘दंगल’ जैसी फिल्में ही सबसे ज्यादा कमाई करने वाली मानी जाती है. जाहिर है कि इन फिल्मों को बनाने में जिस मेहनत तथा लगन की जरूरत है वह सबसे बस की बात नहीं है. इसीलिये एक फिल्म निर्देशकों की श्रेणी बन गई है जो सेक्स परोसकर दर्शकों के मन में छुपी भूख को मिटाने का दावा करते हैं. बगैर यह सोचे-समझे कि इससे समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

यदि बाजार में केवल सेक्स ही बिकता तो सनी लियोन जैसी पूर्व पोर्न स्टार बॉलीवुड में जमने के लिये हिन्दी न सीख रही होती, अभिनय की ट्रेनिंग न ले रही होती.

यह सत्य है कि चिकित्सीय भाषा में सेक्स को ‘बॉयोलाजिकल नीड ऑफ द बॉडी’ माना जाता है. बिना स्त्री-पुरुष के मिलन के समाज आगे नहीं बढ़ सकता है. परन्तु हर चीज एक दायरे में हो तभी समाज में बनी रह सकती है. भीड़ तो तब भी जमा हो जायेगी जब हमारे माननीय निर्देशक महोदय भरे बाजार में बिना पैंट पहने निकल जाये. क्या यह स्थिति उन्हें खुद मंजूर होगी?

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