Columnist

बस्तर पुलिस और सरकारी खामोशी

सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ के बस्तर में कल पुलिस ने फौजी किस्म की वर्दी पहने हुए सामूहिक रूप से जगह-जगह सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, राजनीतिक नेताओं, और पत्रकारों के पुतले जलाए. और प्रतीक के रूप में स्थानीय थानों की पुलिस ने पुतलों की आग बुझाने की कोशिश भी दिखाई. इन तस्वीरों को देखें तो यह हैरानी होती है कि पुलिस का एक हिस्सा एक ऐसे काम को रोक रहा है, जो कि पुलिस का ही दूसरा हिस्सा कर रहा है. और छत्तीसगढ़ वह राज्य है जहां पर पुलिस कर्मचारियों की कोई यूनियन भी नहीं है जिसे कि ऐसे किसी प्रदर्शन की छूट मिल सके.

अभी तक राज्य सरकार की तरफ से कल की इस व्यापक सोची-समझी अलोकतांत्रिक कार्रवाई पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आई है, इसलिए यह सोचना भी गलत होगा कि सरकार इस पर कोई कार्रवाई करने का सोच रही है. लेकिन यह एक राज्य का मामला नहीं है, भारत जैसे विशाल लोकतंत्र की लोकतांत्रिक परंपराओं और इसके लोकतांत्रिक ढांचे की बात है, और उसी नजरिए से बस्तर की कल की इस भयानक कार्रवाई के बारे में सोचना जरूरी है जिसमें पुलिस ने आदिवासियों का तो नहीं, लेकिन शहरी लोकतंत्र का लहू जरूर बहाया है.

बस्तर में अभी पिछले दो-चार दिनों के भीतर ही पुलिस को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पेश सीबीआई जांच रिपोर्ट खबरों में है जिसमें ऐसा कहा बताया जाता है कि ताड़मेटला की बहुत चर्चित आगजनी में सुरक्षा बलों ने आदिवासी बस्तियों में आग लगाई थी. बस्तर में काम कर रहे सामाजिक संगठन, मीडिया के कुछ लोग, और बहुत से स्थानीय आदिवासी पहले से यही बात कह रहे थे, लेकिन राज्य सरकार में उनकी कोई सुनवाई नहीं थी. अब जब यह बात सीबीआई के हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट में सामने आई है, तो बस्तर की पुलिस मानो बौखलाते हुए ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही है जैसा कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में याद नहीं पड़ता है. बस्तर के कई जिलों में सैकड़ों या हजारों पुलिस वालों ने जगह-जगह सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों-पत्रकारों के पुतले यह कहते हुए जलाए कि वे नक्सल-हिमायती हैं, या कि नक्सल हैं.

अब यह बुनियादी सवाल उठता है कि बस्तर की जो पुलिस अनगिनत बेकसूर लोगों के खिलाफ अदालती कार्रवाई से लेकर मुठभेड़ हत्या तक की तोहमतें झेल रही है, उस पुलिस को कानूनी कार्रवाई करने से कौन रोक रहा था अगर ये सारे लोग नक्सली हैं? और अगर यह लोग नक्सली हैं भी, तो भी पुलिस का काम जांच करके उन्हें गिरफ्तार करके अदालत में पेश करने का है, न कि सड़कों पर उनके पुतले जलाते हुए अपनी वर्दी की अलोकतांत्रिक ताकत का हिंसक प्रदर्शन करने का. लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत ही खतरनाक नौबत है कि पुलिस कानून को अपने हाथ में लेकर लोगों को मुजरिम करार दे, और अपनी वर्दी के साथ जुड़े हुए नियमों को कुचलकर ऐसा जश्न मनाए कि वह जिसके चाहे उसके पुतले जला सकती है.

यहां पर दो दिन पहले बस्तर के भारी विवादास्पद आईजी एस.आर.पी. कल्लूरी का कैमरों के सामने दिया गया वह राजनीतिक और अलोकतांत्रिक बयान भी देखने की जरूरत है जिसमें उन्होंने खुले राजनीतिक-अहंकार के साथ लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ बयानबाजी की है, और अपने-आपको लोकतंत्र से ऊपर साबित करने की कोशिश की है. उनका यह बयान आदिवासी बस्तियों को जलाने की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश होने के बाद और उसी संदर्भ में आया है. बस्तियों के बाद अब शहरों में लोकतांत्रिक लोगों के पुतले जलाकर कल्लूरी की पुलिस ने यह साबित किया है कि लोकतंत्र की ऐसी आगजनी पर उनका कुछ नहीं बिगड़ सकता, और बस्तर की पुलिस बस्तियों के बाद बेकसूरों के पुतले भी एक आंदोलन की तरह जला सकती है.

छत्तीसगढ़ के लोकतांत्रिक ढांचे में यह एक बहुत ही अनोखी नौबत है कि एक अफसर इस कदर अलोकतांत्रिक बर्ताव कर रहा है, और सरकार में कोई भी उस पर रोक लगाने की न सोच रहा है, न ऐसा कुछ बोल रहा है. जब निर्वाचित लोकतांत्रिक ताकतें लोकतंत्र को इस तरह और इस हद तक हांकने की ताकत वर्दीधारी अफसरों को दे देती हैं, तो वह एक भयानक खतरनाक नौबत से कम कुछ नहीं है. कोई अफसर नक्सलियों को मारने में कामयाब हो सकता है, लेकिन क्या इस खूबी को देखते हुए उसे बस्तर जैसे एक नाजुक और संवेदनशील, संविधान में विशेष हिफाजत मिले हुए आदिवासी इलाके में तानाशाही का ऐसा हक देना जायज है?

ऐसे में मुल्क की सरहद पर बहादुरी दिखाने वाले फौजियों को भी कुछ कत्ल माफ होने चाहिए, और फौजियों को भी बस्तर की तरह यह छूट मिलनी चाहिए कि वे भारत के जिन सामाजिक आंदोलनकारियों को पाकिस्तान का हिमायती समझते हैं उनके पुतले जलाने के लिए दिल्ली के राजपथ पर वर्दी में इकट्ठे हों.

पुलिस या किसी भी फौज में अफसर तो आते-जाते रहते हैं, और हिंसक और तानाशाह अफसर भी लोगों ने वक्त-वक्त पर देखे हैं, लेकिन वे अफसर लोकतंत्र की आखिरी ताकत नहीं रहते हैं. लोकतंत्र में आखिरी ताकत निर्वाचित जनप्रतिनिधि रहते हैं, और छत्तीसगढ़ की निर्वाचित सरकार सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के आदेश देखने के बावजूद सबसे बेजुबान आदिवासियों के बस्तर में जिस तरह की तानाशाही की छूट देकर चल रही है, वह रूख हक्का-बक्का करने वाला है.

हमारा ख्याल है कि राज्य सरकार ऐसे अफसरों के कितने ही जुर्म अनदेखे क्यों न करें, बस्तर सुप्रीम कोर्ट की नजरों में है, और हमको वह दिन दूर नहीं दिख रहा है जब लोकतंत्र के पुतलों को इस तरह से जलाने को लेकर राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाएगा. अब यह काम सुप्रीम कोर्ट के जजों के पुतले जलने के पहले होगा, या बाद में, यह देखना होगा.

*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘दैनिक छत्तीसगढ़’ के संपादक है.

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