प्रसंगवश

जन गण मन पर मूर्खता

एम राजीवलोचन | बीबीसी
राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने भारत के राष्ट्र गान ‘जन गण मन’ पर सवाल उठाकर एक नई बहस को हवा दे दी है. कल्याण सिंह ने हाल में राजस्थान विश्वविद्यालय के 26वें दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए पूछा था कि ‘जन गण मन अधिनायक जय हो’ में अधिनायक किसके लिए है.

उन्होंने कहा था कि यह ब्रिटिश समय के अंग्रेज़ी शासक का गुणगान है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रगान में संशोधन होना चाहिए.

अब जरा, एक नज़र इस गाने के इतिहास पर भी डाल लेते हैं. यही वह गाना था जिसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के लड़ाकों ने राष्ट्रगान के तौर पर अपनाया था. स्वतंत्रता से पहले 1937 में प्रांतों में पहली चुनी हुई सरकारों ने भी इसे अपनाया. स्वतंत्र भारत के गणराज्य ने काफी चिंतन-मनन के बाद इसे 1950 में अपनाया.

2004 में साध्वी ऋतंभरा ने भी ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ को ‘गद्दारी का गाना’ का दर्जा दे डाला था. यह गाना पहली बार 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दूसरे दिन का काम शुरू होने से पहले गाया गया था.

‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ में यह बात साफ़ तरीके से अगले दिन छापी गई. पत्रिका में कहा गया कि कांग्रेसी जलसे में दिन की शुरुआत गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर द्वारा रचित एक प्रार्थना से की गई. ‘बंगाली’ नामक अखबार में खबर आई कि दिन की शुरुआत गुरुदेव द्वारा रचित एक देशभक्ति के गीत से हुई. टैगोर का यह गाना संस्कृतनिष्ठ बंग-भाषा में था यह बात बॉम्बे क्रॉनिकल नामक अखबार में भी छपी.

यही वह साल था जब अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम अपनी पत्नी के साथ भारत के दौरे पर आए हुए थे. तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग्स के कहने पर जॉर्ज पंचम ने बंगाल के विभाजन को निरस्त कर दिया था और उड़ीसा को एक अलग राज्य का दर्जा दे दिया था. इसके लिए कांग्रेस के जलसे में जॉर्ज की प्रशंसा भी की गई और उन्हें धन्यवाद भी दिया गया.

‘जन गण मन’ के बाद जॉर्ज पंचम की प्रशंसा में भी एक गाना गाया था. यह दूसरा गाना रामभुज चौधरी द्वारा रचा गया था, सम्राट के आगमन के लिए. यह हिंदी में था और इसे बच्चों ने गाया: बोल थे, ‘बादशाह हमारा’. कुछ अखबारों ने इसके बारे में भी खबर दी.

शायद आप रामभुज के बारे में न जानते हों. उस वक्त भी लोग कम ही जानते थे. दूसरी ओर, टैगोर जाने-माने कवि और साहित्यकार थे. सो सत्ता-समर्थक अख़बारों ने खबर कुछ इस तरह दी कि जिससे लगा कि सम्राट की प्रशंसा में जो गीत गाया गया था वह टैगोर ने लिखा था. तबसे लेकर आज तक, यह विवाद चला आ रहा है कि कहीं गुरुदेव ने यह गाना अंग्रेज़ों की प्रशंसा में तो नहीं लिखा था?

इस गाने के बारे में इसके रचियता टैगोर ने 1912 में ही स्पष्ट कर दिया कि गाने में वर्णित भारत भाग्य विधाता के केवल दो ही मतलब हो सकते हैं: देश की जनता, या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला—चाहे उसे भगवान कहें, चाहे देव. टैगोर ने इसे खारिज़ करते हुए साल 1939 में एक पत्र लिखा, ”मैं उन लोगों को जवाब देना अपनी बेइज्जती समझूँगा जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.”

इस गाने की बड़ी खासियत यह थी कि यह उस वक़्त व्याप्त आक्रामक राष्ट्रवादिता से परे था. इसमें राष्ट्र के नाम पर दूसरों को मारने-काटने की बातें नहीं थीं.

गुरुदेव ने इसी दौरान एक छोटी सी पुस्तक भी प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था ‘नेशनलिज़्म’. यहाँ उन्होंने अपने गीत ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ की तर्ज पर यह समझाया कि सच्चा राष्ट्रवादी वही हो सकता है तो दूसरों के प्रति आक्रामक न हो. आने वाले सालों में ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ ने एक भजन का रूप ले लिया. कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों की शुरुआत इसी गाने से की जाने लगी. 1917 में टैगोर ने इसे धुन में बंधा. धुन इतनी प्यारी और आसान थी की जल्द ही लोगों के मानास पर छा गई.

* लेखक पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक हैं.

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