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मां-बाप बेटे पर फख्र करेंगे

सुनील कुमार
अमरीका के दक्षिण कैरोलिना में आई बाढ़ में एक बस्ती बुरी तरह से घिर गई है, और टापू बन गई है. वहां पर एक परिवार का 15 बरस का लड़का घर की मोटरबोट से लोगों को बाहर की आबादी तक लाने ले जाने के काम में रात-दिन लगा हुआ है. और बाहर की जमीन तक पहुंचाने, वहां से सामान लाने के अलावा वह डूबे हुए उन इलाकों में भी लोगों को इधर-उधर ला-ले जा रहा है, जहां पर सड़कें ही नदी बनी हुई हैं, और वहां भी बोट चल रही है. अभी रात साढ़े 10 बजे वह एक परिवार को बोट से छोड़कर आया, तो उसके पिता ने कहा कि उन्हें अपने बेटे पर बड़ा फख्र है कि वह इस काम में लगा हुआ है.

हिन्दुस्तान में 15 बरस के बच्चों के आम मां-बाप ऐसी बाढ़ के किसी वक्त अपने बच्चों को घर पर हिफाजत से रखने के अलावा शायद ही और कुछ सोचें. यह भी हो सकता है कि जिन इलाकों में आदतन बाढ़ आती है, असम जैसे वैसे इलाकों में बच्चे भी ऐसी मदद में डूबते हैं और वे हमारी नजरों में न आ पाते हों. लेकिन यह पूरी मिसाल भारत में भी बच्चों के सोचने के लायक है, और उनके मां-बाप के भी.

15 बरस की जिस उम्र में खाते-पीते घरों के बच्चे दोपहिया चलाने लगते हैं, मोबाइल फोन सस्ते से महंगा पाने की कोशिश करने लगते हैं, वे बच्चे समाज के लिए क्या करना सीखते हैं? क्या वे इतने बड़े नहीं हो गए रहते कि उन्हें बिना खतरे वाले सामाजिक कामों में लगाया जाए? जब कहीं बाढ़ आती है, तो लोगों के घर बह जाते हैं, पहनने को कपड़े नहीं बचते, वैसे में देश भर में लोग कपड़े और बाकी जरूरी सामान जुटा सकते हैं, और उन्हें डूबे हुए, या भूकंप में बिखरे हुए इलाकों के लिए भेज सकते हैं. बच्चों से लेकर नौजवानों तक ऐसे काम में लग सकते हैं.

फिर सामाजिक जागरूकता के बहुत से ऐसे अभियान होते हैं जिनमें बच्चों को लगाया जा सकता है. वे वालंटियर होकर सार्वजनिक जगहों पर गंदगी फैलाते लोगों को रोकने के काम में एक औपचारिक दर्जा देकर लगाए जा सकते हैं, लोगों को पार्किंग ठीक करने के काम में लगाए जा सकते हैं, और जहां लोग कतार में न लगते हों, वहां भी उन्हें रोकने-टोकने के काम में उनको लगाया जा सकता है. कभी-कभी एनसीसी जैसे किसी संगठन के बच्चे चौराहों पर ट्रैफिक काबू में रखने में मदद करते दिखते हैं, लेकिन बाकी बच्चों को भी ऐसे काम में लगाया जा सकता है.

अब सवाल यह है कि इस देश में दसियों करोड़ ऐसे किशोर-किशोरी और नौजवान हैं जिनके पास बहुत सी ऊर्जा है, और कुछ न कुछ खाली वक्त है. अब इनको किसी नेता से तो कोई प्रेरणा मिल नहीं सकती. नेताओं की साख का ऐसा भट्टा बैठा हुआ है कि लोग उनका मुंह भी देखना नहीं चाहते. लेकिन कुछ फिल्म सितारे ऐसे हैं, कुछ खिलाड़ी ऐसे हैं, और कुछ होनहार बच्चे ऐसे हैं कि जिनकी कही हुई बात नौजवान पीढ़ी पर असर करे. आज अगर सानिया मिर्जा से लेकर साइना नेहवाल तक, और अनुष्का शर्मा से लेकर विराट कोहली तक, ऐसे दर्जनों लोग हो सकते हैं जिनको अगर सरकार या समाज ऐसे किसी अभियान में लगाए, तो वे अपने निजी असर से करोड़ों लोगों को कहीं पेड़ लगाने में लगा सकते हैं, तो कहीं रक्तदान में.

कोई भी देश तब आगे बढ़ सकता है जब वह अपनी संभावनाओं पर काम करे. जो मौजूदा क्षमता है, उस पर तो हर कोई, हर देश काम कर लेते हैं. लेकिन जो अब तक अनछुई बची हुई संभावनाएं हैं, उनका आसमान अपार होता है. भारत में ही अगर दसियों करोड़ लोग कुछ किस्म के सामाजिक कामों में लगें, तो यह देश पूरी तरह से बदल सकता है. लेकिन जो लोग ऐसे अभियान के ब्रांड एम्बेसडर बनें, उनकी अपनी विश्वसनीयता अच्छी होनी चाहिए, उनकी अपनी एक शोहरत भी होनी चाहिए.

दरअसल आज हिन्दुस्तान में नौजवान पीढ़ी के सामने धर्म से उपजी नफरत का जहर बाहें फैलाए खड़ा है. यह जहर लोगों के जहन में भरते चले जा रहा है, और उनके खाली दिमाग को शैतान का डेरा बनाते चल रहा है. ऐसे में अगर किसी रचनात्मक और सकारात्मक काम में नौजवान दिमागों को नहीं लगाया गया, तो फिर नफरत में तो यह ताकत रहती ही है कि वह बड़ी तेजी से लोगों पर काबू कर ले. इसके बाद आज टेक्नालॉजी की दिलाई हुई डिजिटल-बर्बादी भी है जो कि लोगों के दिमाग गैरजरूरी कूड़े से भरते चल रही है. ऐसे में एक बड़ी जरूरत है नौजवान पीढ़ी को जिम्मेदारी का एहसास कराने की, और उन्हें एक संगठित तरीके से ऐसे काम में लगाने की जिसमें कि उनको खुद को एक गौरव भी हासिल हो.

आज हमको यह लगता है कि ऐसे किसी भी काम से राजनीति को अपने आपको दूर रखना होगा, क्योंकि वह प्रतिउत्पादक (काउंटर प्रोडक्टिव) साबित हो चुकी है. भारत में आज जिस सामाजिक मुद्दे को बर्बाद करना हो उससे नेता और राजनीतिक जोड़ देना काफी हो जाता है. अब जहां तक सरकारी योजनाओं या मदद का सवाल है, तो सत्ता चलाने वाली पार्टी की यह जाहिर प्राथमिकता होती है कि उससे पार्टी का क्या फायदा होगा? भ्रष्टाचार वाले फायदे के अलावा भी शोहरत वाले फायदे की हसरत किसी राजनीतिक पार्टी के मन से हट नहीं सकती. ऐसे में सरकारी मदद के बिना, सरकार के बिना, राजनीति के बिना सामाजिक क्षेत्र में ऐसा आंदोलन छेडऩे के लिए स्थानीय स्तर पर भी, और राष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों की जरूरत है.

आज अगर रतन टाटा जैसे लोग, या कि अजीम प्रेमजी जैसे लोग सामाजिक आंदोलनों से जुड़ते हैं, तो अपनी दौलत से परे भी, वे अपनी साख से, अपनी लीडरशिप के हुनर से भी लोगों को जोड़ सकते हैं, और देश की तस्वीर को बदल सकते हैं. आज अमरीका में बिल गेट्स ने अपनी खुद की आधी दौलत समाज सेवा के लिए लगाकर एक आंदोलन छेड़ा जिसमें लगातार दुनिया के दूसरे खरबपति जुड़ते जा रहे हैं, और वे भी अपनी आधी-आधी पूंजी समाज को देने का काम कर रहे हैं. भारत में भी ऐसे काम में लोग जुड़ सकते हैं. अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, आमिर खान जैसे लोग जो कि आज भी शायद हर बरस सैकड़ों करोड़ रूपए कमाते हैं, वे अगर अपने खाली वक्त को, और अपनी कुछ दौलत को अपने पसंदीदा किसी एक सामाजिक काम के लिए लगाएं, और देश भर में अपने प्रशंसकों को जोड़ें, तो पल भर में देश में जरूरत से कई गुना रक्तदान हो सकता है, जरूरत से कई गुना नेत्रदान हो सकता है, और जितने पेड़ कटते हैं, उनके कई गुना पेड़ लग भी सकते हैं. भारत में भी अच्छा काम करने वाले लोग हैं, लेकिन वैसे और बहुत से लोगों की जरूरत है. इसमें साख, शोहरत, और वक्त इन सबको लगाने वाले लोग देश को कहां से कहां पहुंचा सकते हैं.

और जब तक कोई ऐसे संगठित सामाजिक आंदोलन शुरू नहीं होते हैं, मां-बाप को खुद ही अपने बच्चों को ठोस समाजसेवा में लगाने का रास्ता दिखाना चाहिए, और बच्चों को कोई राह दिखाना एक मिसाल पेश करके ही किया जा सकता है.

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